पिछले सालों में हिन्दू फासीवादियों ने अपनी सरकार के खिलाफ होने वाले विरोध प्रदर्शनों से निपटने के लिए एक माडल विकसित किया है। इसमें वे किसी भी विरोध प्रदर्शन के खिलाफ अपने लंपटों को भेज देते हैं। लंपट आंदोलन स्थल पर हिंसा और अराजकता फैलाते हैं। इसके बाद पुलिस आंदोलनकारियों पर हिंसा फैलाने के लिए फर्जी मुकदमे दर्ज कर उन्हें जेल में ठूंस देती है। आंदोलन का दमन कर दिया जाता है। लंपटों का कुछ नहीं बिगड़ता। इसी के साथ अपने समर्थक पूंजीवादी प्रचारतंत्र द्वारा धुंआधार प्रचार कर आंदोलन को बदनाम किया जाता है। भीमा-कोरेगांव, सी ए ए-एन आर सी विरोधी आंदोलन, जे एन यू का छात्र आंदोलन इत्यादि में इस माडल को देखा जा सकता है। किसान आंदोलन के साथ भी उन्होंने समय-समय पर यही करने की कोशिश की जिसमें वे नाकामयाब रहे।
अभी संसद के इस सत्र के दौरान हिन्दू फासीवादियों ने इस माडल को सड़क से आगे बढ़ाकर संसद में भी लागू करने की कोशिश की। जब विपक्षियों ने अम्बेडकर के मामले में भाजपा और खासकर मोदी-शाह को घेरा तो उन्होंने इससे निपटने के लिए अपना प्रदर्शन शुरू कर दिया। अंत में वे विपक्षी सांसदों से शारीरिक तौर पर भिड़ गये। इसके बाद उन्होंने एक-दो भाजपा सांसदों को लगी मामूली चोटों को लेकर तिल का ताड़ बनाया। उनका समर्थक पूंजीवादी प्रचारतंत्र उनके पक्ष में प्रचार करने में जुट गया। वे अपने लक्ष्य में यानी मुख्य मुद्दे से ध्यान हटाने तथा विपक्षियों को ही कसूरवार ठहराने के अपने प्रयास में एक हद तक सफल हो गये।
यह पहला मौका था जब हिन्दू फासीवादियों ने अपना सड़क वाला माडल संसद में लागू किया। इसमें मिली सफलता से वे उत्साहित हुए होंगे। उनके मुंह में खून लग गया है और वे इसे दोहराने की हरचंद कोशिश करेंगे।
वैसे फासीवादियों के इतिहास में यह माडल नया या अनोखा नहीं है। इटली और जर्मनी के फासीवाद-नाजीवाद में इसे व्यापक पैमाने पर अपनाया गया था। यहां गौरतलब है कि यह तब हुआ था जब अभी फासीवादी या नाजीवादी सत्ता में नहीं थे। इनके सत्ता में न होने के बावजूद पुलिस-प्रशासन और न्याय व्यवस्था में इनके ढेरों समर्थक मौजूद थे। यहां तक कि इन्हें सरकार में भी समर्थन हासिल था। इटली और जर्मनी दोनों में गृह और रक्षा मंत्रालय में बैठे लोगों ने वर्तमान और भूतपूर्व सैनिक अफसरों को फासीवादियों-नाजीवादियों के साथ जाने की इजाजत दी थी। इटली में तो वे लंपट दस्ते का नेतृत्व करते थे।
भारत में किसी हद तक यह हो रहा है। न केवल भाजपा शासित प्रदेशों बल्कि दूसरी जगह भी संघी लंपट गिरोहों के साथ पुलिस-प्रशासन की मिली-भगत देखने को मिलती है। जब अफजल गुरू को फांसी दी गयी थी तब केन्द्र व प्रदेश दोनों में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। लेकिन तब भी इस फांसी का विरोध करने वाले लोगों पर जंतर-मंतर पर संघी लंपटों ने पुलिस की मौजूदगी में हमला किया था। पुलिस ने संघी लम्पटों के बदले विरोध प्रदर्शन करने वालों पर ही कार्रवाई की थी।
न्यायपालिका की ओर से भी यह देखने में आ रहा है कि संघी लंपटों को वहां राहत तुरंत मिल जा रही है पर विरोधी सालों-साल जेल में सड़ रहे हैं। भीमा-कोरेगांव से लेकर शाहीन बाग आंदोलन में गिरफ्तार लोग अभी भी जमानत पर बाहर नहीं आये हैं।
आने वाले समय में हिन्दू फासीवादियों का यह माडल और ज्यादा व्यवहार में लाया जायेगा क्योंकि समाज में संकट बढ़ने के साथ प्रतिरोध का स्वर और मुखर होगा ही।
सड़क से संसद तक
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।