नागरिक टीम के नए प्रयास बहुत ही सराहनीय हैं

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नागरिक टीम लगभग 6 महीने से पत्र को बेहतर करने के नए प्रयास कर रही है। पत्र को बेहतर करने के लिए उसकी छपाई की गुणवत्ता, फोंट आदि में प्रयोग किये जा रहे हैं। मुझे जो ज्यादा बेहतर लगे, उनमें से पत्र के दूसरे पृष्ठ में जो राजनीतिक लेख या टिप्पणी आती हैं, वह हैं। उसमें देश-समाज में चल रही राजनीति व अन्य घटनाओं-परिघटनाओं पर छोटी-छोटी टिप्पणी या व्यंग्य के द्वारा सटीक तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास, एक अच्छा प्रयोग है। इसे जारी रखा जाना चाहिए। 
    
इसी तरीके से अगस्त महीने से ही मजदूर आवाज में जो पत्र आ रहे हैं। वह विशेष रूप से मुझे बहुत ही बेहतरीन लगे। वे दिल को छू जाते हैं। उसमें फैक्टरी और उसमें काम कर रहे मजदूरों की जो मनोदशाएं हैं, उसको बहुत ही बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है। अपने आस-पास ही कई बार यह सवाल उठता है कि इतना शोषण-उत्पीड़न हो रहा है। उसके बावजूद मजदूर संघर्ष नहीं कर रहे हैं। इन पत्रों में बहुत ही बारीक तरीके से मजदूरों की परिस्थितियों और उसके अंदर चल रहे मनोभावों को व्यक्त किया गया है।
    
‘‘ओवरटाइम’’ शीर्षक भाग 1 व 2 में बहुत ही बेहतरीन है। आज फैक्टरियों की क्या स्थिति है उसमें मालिक किस तरीके से अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए ओवरटाइम करवा रहे हैं। उसमें मजदूरों की क्या-क्या स्थितियां और मनोदशा है। वह क्यों तैयार हो जाता है। इसको बहुत ही सटीक तरह से बयान किया है। 
    
इसी तरह 16 से 30 दिसंबर के अंक में जो ‘‘विभाजन’’ शीर्षक से पत्र है उसमें दिखाया है कि आज फैक्टरी में किस-किस तरीके का विभाजन है ना सिर्फ स्थाई व ठेका मजदूर बल्कि भाषा-क्षेत्र आदि के बीसों विभाजन हैं। उसको दिखाने की कोशिश की गई है और मालिक किस तरीके से इन विभाजन का इस्तेमाल कर अपने मुनाफे को बढ़ता है। इसी तरह 16 से 31 अक्टूबर के पत्र में ‘‘विश्वकर्मा पूजन’’ शीर्षक भी बहुत अच्छा है। जिसमें विश्वकर्मा पूजन के माध्यम से फैक्टरी में मजदूरों की स्थिति और किस तरीके से ऐतिहासिक रूप से औजारों का विकास हुआ। आज पूंजीपति ने औजारों पर कब्जा कर लिया और औजार, मजदूरों के शोषण का जरिए बन चुके हैं। इसी तरह ‘‘जूठन’’ शीर्षक नामक पत्र बहुत अच्छा लगा।
    
मेरा नागरिक टीम से आग्रह है कि इस तरीके के पत्र छापना लगातार जारी रखें। 
    
इतने बेहतरीन पत्रों पर तुरंत प्रतिक्रिया ना कर, लंबे समय बाद प्रतिक्रिया देने के लिए मैं खेद व्यक्त करता हूं। -एक पाठक, गुड़गांव

आलेख

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भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

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आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

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युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

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हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

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अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।