मुस्लिम विरोध भाजपा व आर एस एस की विचारधारा के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है। सत्ता में आने के लिए व सत्ता में बने रहने के लिए वह मुस्लिम विरोध की राजनीति का इस्तेमाल करती रही है।
मुस्लिम धर्म के मानने वालों को वह हिंसक और आतंकवादियों के रूप में चित्रित करती रही है और ऐसी ही सोच वह बहुलांश हिन्दू आबादी के दिमाग में बैठाने की काफी हद तक सफल कोशिशें भी करती रही है। आम तौर पर मीडिया विशेष रूप से हिन्दी पट्टी के हिन्दी अखबार संघ-भाजपा की इस राजनीति को परवान चढ़ाने में अहम भूमिका अदा करते रहे हैं।
संघ-भाजपा और उनके कट्टर अनुयायी अपने इसी नजरिये के कारण स्वाभाविक रूप से हर उस देश के साथ खड़े हो जाते हैं जो मुस्लिम देशों या उनकी जनता का कत्लेआम करता है जैसा कि अभी हाल में ही ये हत्यारे इजरायल के साथ खड़े थे।
ठीक इसी तरह वे देश-विदेश के मुस्लिम कट्टरपंथ व उसके संगठनों को आतंकवादी कहकर पुकारते रहे हैं। तालिबान को सभी की तरह वे भी आतंकवादी संगठन कहते आये थे। ये उनके कोर वोटर को संतुष्ट भी करता था।
पर अभी हाल में ही तालिबान के प्रति भारतीय राज्य का दृष्टिकोण बदल रहा है। तालिबान के पहली बार सत्ता में आने का भारत ने न सिर्फ विरोध किया था वरन् करजई सरकार के कार्यकाल में अमेरिका के साथ मिलकर अफगानिस्तान के कथित पुनर्निर्माण में खूब ठेके भी भारतीय कंपनियों को मिले थे।
सन् 2021 में जब तालिबान ने पुनः अफगानिस्तान पर नियंत्रण किया तो भाजपानीत सरकार ने तालिबान को न तो मान्यता दी और न ही संबंधों में गर्मजोशी दिखाई। किन्तु यह भी सच है कि तालिबान को आतंकवादी संगठन कहने के बावजूद भाजपा सरकार ने अफगानिस्तान से अपने संबंधों को पूरी तरह खत्म नहीं किया। यद्यपि भारत सरकार विदेश सेवा राजनयिकों के मार्फत तालिबानी सरकार से संपर्क रखे हुए थी।
भाजपा के लिए दरअसल नफरत की राजनीति सत्ता पर पहुंचने के लिए है यह तालिबान के साथ संबंधों के संदर्भ में पुनः साबित हो जाता है। अफगानिस्तान में भारत ने 3 अरब डालर का निवेश 500 से भी ज्यादा परियोजनाओं में कर रखा है जैसा कि 2023 में संसद में विदेश मंत्री ने बताया था। सो नफरत एक तरफ अफगानिस्तान में आर्थिक हित दूसरी तरफ। आर्थिक हितों के लिए या कहें मुनाफे के लिए आतंकवादियों को भी बाप बना लेने में भी भाजपा नीत सरकार पीछे नहीं हटी।
भारतीय पूंजी के आर्थिक हितों व भारतीय पूंजीवादी राज्य के राजनीतिक व सामरिक हितों के मद्देनजर भाजपा नीत सरकार की आतंकवादी संगठनों द्वारा संचालित अफगानी राज्य से अधिकृत बातचीत शुरू हो गयी है। यह वार्ता दुबई में भारतीय विदेश राज्य सचिव विक्रम मिस्त्री व कार्यवाहक अफगानी विदेश मंत्री आमिर खान मुतैकी के बीच 10 जनवरी को सम्पन्न हुई। यह प्रकारांन्तर से तालिबानी सरकार को मान्यता प्रदान करना है।
जाहिर है तालिबानी सरकार भारत के साथ संबंधों का पूरा फायदा उठायेगी और अपने अंतर्राष्ट्रीय अलगाव को दूर करने में इसका इस्तेमाल करेगी। वैसे भी तालिबान व भाजपा-संघ में कोई फर्क तो है नहीं। तालिबान अफगानिस्तान को जहां लेकर आया है वही तो भाजपा-संघ का मिशन है। अपने व्यवहार, आचरण और सोच में बिल्कुल एक जैसे। इसलिए दूरियां नजदीकियों में बदलनी ही थीं।
जहां तक भारतीय पूंजीपति वर्ग का सवाल है उसका मूलमंत्र मुनाफा है। जनवाद, स्वतंत्रता जैसे नारे उसके लिए बहुत पहले ही पराये हो चुके थे। जब उसने अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए अपने देश में संघ-भाजपा जैसे कट्टरपंथी व फासीवादी समूहों को स्वीकार कर लिया तो तालिबान शासित अफगानिस्तान तो फिर भी एक विदेशी मुल्क है। भारतीय पूंजीपति अफगानी बाजार को पूरी तरह चीन के नियंत्रण में नहीं जाने देना चाहेंगे जो पहले ही अपने राजदूत की नियुक्ति कर चुका है। इसका सबसे बुरा प्रभाव अफगानी जनता पर पड़ेगा। तालिबानी शिकंजे से उनकी मुक्ति का संघर्ष और भी मुश्किल हो जायेगा। तालिबानी कट्टरपंथियों की अंतर्राष्ट्रीय वैधता अफगानी जनों की लड़ाई को और भी लंबा कर देगी।
भाजपा का दोगलापन
राष्ट्रीय
आलेख
ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है।
आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।
ट्रम्प ने घोषणा की है कि कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य बन जाना चाहिए। अपने निवास मार-ए-लागो में मजाकिया अंदाज में उन्होंने कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को गवर्नर कह कर संबोधित किया। ट्रम्प के अनुसार, कनाडा अमरीका के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे अमरीका के साथ मिल जाना चाहिए। इससे कनाडा की जनता को फायदा होगा और यह अमरीका के राष्ट्रीय हित में है। इसका पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने विरोध किया। इसे उन्होंने अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता के खिलाफ कदम घोषित किया है। इस पर ट्रम्प ने अपना तटकर बढ़ाने का हथियार इस्तेमाल करने की धमकी दी है।
आज भारत एक जनतांत्रिक गणतंत्र है। पर यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को पांच किलो मुफ्त राशन, हजार-दो हजार रुपये की माहवार सहायता इत्यादि से लुभाया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को एक-दूसरे से डरा कर वोट हासिल किया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें जातियों, उप-जातियों की गोलबंदी जनतांत्रिक राज-काज का अहं हिस्सा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें गुण्डों और प्रशासन में या संघी-लम्पटों और राज्य-सत्ता में फर्क करना मुश्किल हो गया है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिक प्रजा में रूपान्तरित हो रहे हैं?
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।