लोकसभा चुनाव 2024 के परिणाम में भाजपा को बहुमत से कम जब 240 सीटें मिलीं तो मोदी की सरकार बनाने में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के घटक दलों खासकर जेडीयू प्रमुख नीतिश कुमार और टीडीपी प्रमुख चन्द्रबाबू नायडू की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई थी। तमाम उदारवादी बुद्धिजीवी पत्रकार और वामपंथी संगठन उनकी भूमिका को बढ़ा-चढ़ा कर देखने लगे। वे हांकने लगे कि नीतीश और नायडू इस मौके का फायदा उठाएंगे। उनका अनुमान था कि तीसरी बार बनने वाली नई सरकार में मोदी और अमित शाह का दबदबा नहीं चलेगा। समर्थन के बदले सहयोगी दल महत्वपूर्ण मंत्रालयों खासकर गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, विदेश मंत्रालय अथवा वित्त मंत्रालय आदि में से कोई न कोई हासिल करने के लिए जोर लगाएंगे और मोदी-अमित शाह को झुकना पड़ेगा। दूसरा महत्वपूर्ण अनुमान यह था कि 18वीं लोकसभा में स्पीकर के पद को लिए बिना नीतीश और नायडू बिल्कुल नहीं मानेंगे। खुशनुमा सपना देखने वाले बुद्धिजीवियों का अनुमान और अटकलबाजी धरी की धरी रह गई। नीतीश एवं नायडू को ना तो कोई महत्वपूर्ण मंत्रालय मिला और ना ही लोकसभा स्पीकर का पद मिला। मोदी और अमित शाह ने सरकार बनाकर साबित कर दिया कि शासन-सत्ता, सरकार और संगठन में अभी बादशाहत उन्हीं की चलेगी।
सकारात्मक तस्वीर खींचने वाले बुद्धिजीवी एवं पत्रकार मोदी और अमित शाह के पिछले 10 साल के दौरान बढ़ती फासीवादी तानाशाही से छुटकारा पाने की उम्मीद लगाए थे। उनको लगता था कि 2014 एवं 2019 में भारी बहुमत पाने के बाद मोदी और अमित शाह तानाशाह हो गए थे। वहीं कमजोर विपक्ष के कारण वे लोकतांत्रिक स्वायत्त संस्थाओं को कमजोर कर रहे थे तथा उनका दुरुपयोग कर रहे थे। कथित वामपंथी और पूंजीवादी व्यवस्था के उदारवादी बुद्धिजीवियों को ऐसा लगता है कि यदि विपक्ष मजबूत हो तो मौजूदा सरकार काबू में आ सकती है। वे मोदी-शाह की फासीवादी तानाशाही को उनके अहंकार में देखते हैं। वे यह नहीं देख पाते हैं कि आज की जितनी भी तानाशाही है, वह एकाधिकारी वित्त पूंजी की तानाशाही है। यह भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था के विकास, पूंजी के संकेंद्रण और उसको तेजी से आगे बढ़ाने का परिणाम है।
यह बात सही है कि 18वीं लोकसभा में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है और इस सरकार में एनडीए के सहयोगी दलों की भूमिका बढ़ गई है। इसी के साथ विपक्ष भी एक हद तक मजबूत हुआ है। लेकिन हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि सभी छोटे-बड़े दलों की पहलकदमी आज एकाधिकारी वित्त पूंजी के रहमो-करम पर निर्भर है। इलेक्ट्रोरल बांड के खुलासों ने इसे प्रमाणित किया है।
पिछले 10 सालों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कारपोरेट की पहली पसंद बने हुए हैं। मोदी जनता की सभी प्रकार की नाराजगी और असंतोष का रिस्क उठाकर उनके साथ वफादारी निभा रहे हैं। यही कारण है कि नीतीश कुमार और नायडू को नई मोदी सरकार के गठन और उसके संचालन में टांग अड़ाने की छूट कारपोरेट्स द्वारा नहीं दी गई।
जहां तक विपक्ष की बात है तो उसे इस चुनाव में मोदी सरकार के खिलाफ उभरे जन असंतोष का लाभ मिला है। सभी विपक्षी दलों को मिलाकर लगभग 234 लोकसभा सदस्य जीत कर आए हैं। इस लोकसभा चुनाव में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी और सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव की तारीफ हो रही है। लेकिन राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते हुए राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने अपने पूरे भाषण में कुछ सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत आलोचना तक ही अपने आप को केन्द्रित किया। विपक्ष देखने में भले ही ताकतवर लगता हो लेकिन वह निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का विरोधी नहीं है। वह मेहनतकश विरोधी, जन विरोधी नीतियों और फासीवादी एजेंडा के खिलाफ स्पष्ट रूप से खुलकर बोलने से बच रहा है। वह केवल सरकार विरोधी जन असंतोष का चुनावी लाभ हासिल करने की जुगत में बैठा है। यही कारण है कि मोदी के नेतृत्व में नई सरकार बनते ही फासीवादी संगठनों द्वारा मुस्लिम समुदाय के सदस्यों के खिलाफ कई मॉब लिंचिंग की घटनाओं को अंज़ाम दिया गया है। समूचा विपक्ष हिंसक व जानलेवा फासीवादी हमलों के खिलाफ बोलने के बजाय मूकदर्शक बना हुआ है।
सरकार में एनडीए के सहयोगी दल हों या विपक्ष सभी पर कारपोरेट वित्तपूंजी के हितों को साधने का दबाव काम कर रहा है।
इंडिया गठबंधन या सरकार में एनडीए के घटक दलों का भाजपा और मोदी से टकराव अथवा होड़ मेहनतकशों के हितों के लिए नहीं है बल्कि सत्ता की कुर्सी हासिल कर पूंजीवादी कारपोरेट व्यवस्था के हितों का प्रबंध करने के लिए है। कारपोरेट वित्त पूंजी का हित निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों को तेज गति से लागू करने से हासिल होता है। वित्त पूंजी के आकाओं को भली-भांति पता है कि जन विरोधी नीतियों को तेजी से लागू करने पर देश में मजदूरों-मेहनतकशों की बेलगाम लूट के साथ बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि बढ़ेगा जिसके कारण जन असंतोष भी बढ़ेगा। यह जन असंतोष जन आंदोलन अथवा क्रांतिकारी संकट में रूपांतरित भी हो सकता है। जन आंदोलन का क्रांतिकारी आंदोलन में रूपांतरण वित्त पूंजी की लूट की व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है। इसी खतरे को कुचलने के लिए फासीवादी तानाशाही की जरूरत होती है। आज बेशक भाजपा और आरएसएस घोषित रूप से चिन्हित फासीवादी संगठन हैं लेकिन इनके खिलाफ भी जन असंतोष बढ़ सकता है। ऐसी स्थिति में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, उद्धव ठाकरे की शिवसेना तथा ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस जैसे संगठन भाजपा-आरएसएस की जगह ले सकते हैं।
देशी-विदेशी कारपोरेट की चहेती मोदी सरकार ने फासीवादी एजेंडा के साथ अपने अगले कार्यक्रम को निर्धारित कर दिया है। मजदूर विरोधी चारों लेबर कोड्स और भारतीय कानून व्यवस्था (भारतीय दण्ड संहिता, साक्ष्य संहिता और नागरिक सुरक्षा संहिता) में व्यापक बदलाव कर इन्हें एक जुलाई से लागू करने की घोषणा कारपोरेट हितों के अनुरूप हैं। आज भारत में राष्ट्रीय बुर्जुवा अथवा उदारवादी बुर्जुवा की कल्पना करना निराधार है। उनसे प्रगतिशील पूंजीवादी लोकतंत्र के मूल्यों पर चलने की कल्पना करना, अपने आप को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं है।
विशालकाय वित्त पूंजी का आकार और भारतीय राजनीति में उसका दबदबा देश की मजदूर मेहनतकश आबादी की मेहनत की कमाई को लूट-लूट कर बना है। आज कारपोरेट्स पूंजी द्वारा सबसे ज्यादा हमला मजदूरों-किसानों एवं अन्य मेहनतकशों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर किया जा रहा है। फैक्टरी मालिक, खेतों-जमीनों के मालिक और निर्माण क्षेत्र में लगी हुयी कंपनियां अपने मजदूरों के अधिकारों को खुलेआम कुचल रही हैं। यह सब न केवल मोदी सरकार की नाक के नीचे हो रहा है बल्कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारों की नाक के नीचे हो रहा है। कोई भी विपक्षी दल इससे अनभिज्ञ नहीं है।
हम सत्ता पक्ष को छोड़ दें तो क्या विपक्षी दल जिनका नेतृत्व कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी कर रहे हैं, वे मजदूरों-मेहनतकशों के संवैधानिक लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करते हैं? बिल्कुल नहीं! ऐसे में व्यापक आबादी के पूंजीवादी जनवादी अधिकारों को बचाने का दारोमदार भी मजदूरों-मेहनतकशों के क्रांतिकारी आन्दोलन से तय होगा। ऐसे में कथित वामपंथी और उदारवादी बुद्धिजीवी पत्रकारों के विश्लेषण प्रस्थान करने के बजाए क्रांतिकारी ताकतों का फौरी कार्यभार बनता है कि वे पूंजीवादी दलों के पीछे-पीछे ना चलें, वे संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ बढ़ते मजदूरों-मेहनतकशों के असंतोष को एकजुट कर क्रांतिकारी आन्दोलन में परिवर्तित करने की ओर बढ़ें। -मुन्ना प्रसाद, दिल्ली
आपका नजरिया - 18वीं लोकसभा, मोदी 3.0, उम्मीद और संभावनाएं
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।