अफ्रीका और अमरीकी साम्राज्यवादः इतिहास के आइने में

<strong><em>(प्रस्तुत लेख पैन अफ्रीका न्यूज वायर के सम्पादक अबायोमी अजी किवे द्वारा डेट्रायट,अमरीका में 18 मई, 2013 को दिये गये भाषण के मुख्य अंश का भावानुवाद है। यह भाषण अफ्रीकी एकता संगठन के गठन की 50 वीं वर्षगांठ के अवसर पर दिया गया था। इस वर्षगांठ को युद्ध और अन्याय के विरुद्ध मिशीगन आपात कमेटी ने आयोजित किया था। इस कमेटी द्वारा आयोजित अफ्रीका और अमरीकी साम्राज्यवाद सम्मेलन में यह भाषण दिया गया था।</em></strong><br />
    <strong><em>इसी समय अफ्रीकी देशों के शासक अफ्रीकी यूनियन के झण्डे तले इथियोपिया की राजधानी अदिस अबाबा में शीर्ष सम्मेलन कर रहे थे। यह भाषण उनकी पवित्र घोषणाओं को उद्धृत करते हुए शुरू होता है।<br />
    उम्मीद है कि पाठक इसको पढ़कर आज के अफ्रीका के बारे में तथा उसके इतिहास के बारे में कुछ जान सकेंगे।- सम्पादक)</em></strong><br />
    25 मई, 2013 को अफ्रीकी एकता संगठन (Organisation of African Unity- OAU) की स्थापना की 50 वीं वर्षगांठ है। यह संगठन 2002 में बने अफ्रीकी यूनियन का पूर्ववर्ती संगठन था। यह सम्मेलन अफ्रीका और प्रवासी अफ्रीकियों के इतिहास के एक महत्वपूर्ण समय में हो रहा है।<br />
    हालांकि 1963 के बाद से अफ्रीका में और समूची अफ्रीकी दुनिया में व्यापक प्रगति हुई है, फिर भी साम्राज्यवादियों ने महाद्वीप की और वस्तुतः समूचे यूरोप, उत्तरी अमरीका और लातिन अमरीका की अफ्रीकी जनता के शोषण और परिणामतः उत्पीड़न को जारी रखने और विस्तार करने के तौर-तरीके विकसित कर लिये हैं। यह सम्मेलन इस वर्षगांठ के मध्य में अफ्रीकी यूनियन को बधाई संदेश भेजती है।<br />
    अफ्रीकी यूनियन का शिखर सम्मेलन 19 मई से 27 मई तक हो रहा है। हम इसके इर्द गिर्द की परिस्थिति पर निगाह डाले हुए हैं। शिखर सम्मलेन इथोपिया की राजधानी अदिस अबाबा में ‘सर्वअफ्रीकावाद और अफ्रीकी पुनर्जागरण’’ की विषय वस्तु के अंतर्गत हो रहा है। यह 1960 के दशक के अफ्रीकी क्रांतिकारी संघर्ष के तूफानों में अपनी राजनीतिक उत्पत्ति की ओर महाद्वीपीय संगठन की वापसी का एक प्रयास है।<br />
    अफ्रीकी यूनियन की 21 वें शिखर सम्मेलन को प्रचारित करने के लिए उसकी वेबसाइट में की कई व्याख्या के अनुसार,<br />
    ‘‘वर्ष 2013 अफ्रीकी एकता संगठन के गठन की 50वीं वर्षगांठ का उत्सव है। एक दशक से ज्यादा समय अफ्रीकी यूनियन को गठित हुए भी हो गया है। अफ्रीकी यूनियन अपने खुद के नागरिकों द्वारा संचालित और वैश्विक क्षेत्र में एक गतिशील प्रतिनिधित्व करने वाले एक ‘एकीकृत, सम्पन्न और शांतिपूर्ण अफ्रीका विकसित करना चाहता है। परिणामस्वरूप, राज्याध्यक्षों ने 2010 को सर्वअफ्रीकावाद और अफ्रीकी पुनर्जागरण का साल घोषित किया है।’’<br />
    इसी रूपरेखा में आगे यह कहा गया है कि<br />
    ‘‘इस वर्षगांठ में अतीत, वर्तमान और भविष्य के अफ्रीकी आख्यानों को सुगम बनाने तथा उनका उत्सव मनाने की उम्मीद है जो अफ्रीकी आबादी को उत्साहित व ऊर्जावान बनायेगी और 21वीं सदी में सर्व अफ्रीकावाद व पुर्नजागरण के अग्रगामी एजेण्डे को गति देने में अपनी रचनात्मक ऊर्जा का इस्तेमाल करेगी। यह विलक्षण अवसर उपलब्ध कराता है और यह ऐसे समय में हो रहा है जब अफ्रीका उत्थान पर है और इसलिए इसे अपने भविष्य पर विश्वास करना होगा। 50वीं वर्षगांठ के समारोह सर्व अफ्रीकावाद और अफ्रीकी पुनर्जागरण की थीम पर संचालित होंगे।’’ (ए.यू.बेवसाइट)<br />
    इन दिनों के दौरान हम पैन-अफ्रीकन न्यूज वायर (Pan&African News Wire) के जरिए व्यापक तौर पर भाषणों और बहसों को देंगे जिससे कि अफ्रीकी जगत और आम तौर पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को अदिस अबाबा में होने वाले विकास क्रमों की व्यापकतम समीक्षा उपलब्ध करा सकें। समूचे भूमण्डल में फैले हुए अफ्रीकी लोग इस शिखर सम्मेलन के नतीजों का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं जिससे कि वे राज्याध्यक्षों और इस सम्मानित संस्था के अन्य नेतृत्वकारी निकायों द्वारा पेश की गयी सोच और कार्यवाही के बारे में ज्यादा साफ दृष्टिकोण बना सकें।<br />
    तब भी, आज यहां पर हमारा मकसद अफ्रीका के उस इतिहास और अफ्रीकी मुक्ति संघर्षों के महत्व को बताना है जो पिछले पांच दशकों से ज्यादा समय में उभर कर आया है। हम कहां थे और 21वीं सदी के नाकामी दशकों में हम कहां जा रहे हैं, ये ऐसे सवाल होने चाहिए जो हमारे लिए विशेष महत्व के हैं।<br />
<strong>द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की राजनीतिक परिस्थिति</strong><br />
    प्रगतिशील और क्रांतिकारी अफ्रीकी बड़े इतिहासकारों द्वारा यह स्वीकार किया जाता है कि अटलांटिक के गुलाम व्यापार और उपनिवेशवाद ने समूची दुनिया में अफ्रीकी समाज के चरित्र को रूपरंग दिया। 15वीं शताब्दी के शुरू में अफ्रीका उस यूरोप के सम्पर्क में आया जो उस समय तथाकथित ‘अंधकार युग’ से बाहर निकला था, वह ऐसा समाज व ऐसी संस्कृति थी जो भूमण्डल के अन्य लोगों की कीमत पर अपना खुद का आंतरिक विकास करने में लगा हुआ था।<br />
    15वीं और 19वीं शताब्दी के बीच लाखों-लाख अफ्रीकी लोगों को गुलामी और उपनिवेशवाद के जरिए अतिशोषण का शिकार बनाया गया। महाद्वीप के इतिहास में यह काल यूरोप द्वारा पश्चिमी गोलार्ध पर विजय का और औद्योगिक साम्राज्य बनाने का भी काल रहा है जिसने पश्चिम के मूल निवासियों के साथ-साथ अफ्रीकी महाद्वीप, एशिया और दक्षिणी प्रशांत के लोगों के शोषण को घनीभूत कर दिया।<br />
    वास्तव में अफ्रीकी और अन्य उत्पीडि़त लोगों ने गुलामी और उपनिवेशवाद के हमलों का बहादुरी से प्रतिरोध किया था। आज इतिहास ज्यादा विस्तार से ब्योरों को उजागर कर रहा है कि अफ्रीकी लोगों ने साम्राज्यवाद का उसके शुरूवाती काल के संघर्ष में कितनी बहादुराना भूमिका निभायी थी तथा उसके परिपक्व हो जाने व नवउपनिवेशवाद की मौजूदा व्यवस्था में बाद में तब्दील हो जाने में भी जारी रखा है।<br />
    सभी शोषणकारी व उत्पीड़नकारी व्यवस्थाओं को अपने भीतर से ही प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है जो उस समाज के भीतर के शासक हितों द्वारा शिकार बनाये जाते हैं, उन शक्तियों को संगठन व गोलबंदी की ओर ले जाता है। इन आंतरिक संघर्षों के साथ-साथ बाहर से मिलने वाली चुनौतियों के परिणामस्वरूप व्यवस्था का रूपान्तरण कुछ ऐसा हो जाता है जो मानवता के विकास में आगे का कदम हो सकता है या पीछे का कदम भी हो सकता है।<br />
    यद्यपि साम्राज्यवाद ने शोषण व उत्पीड़न की ऐसा व्यवस्था बनाने की कोशिश की थी जो अंदरूनी और बाहरी हमलों से बचाती थी। तथापि, ये प्रयास बेकार साबित हुए। प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति तक पूंजीवाद और उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन और कम्युनिस्ट प्रवृत्तियां साफ-साफ दिखाई देने लगी थीं।<br />
    1917 में बोल्शेविक क्रांति से शुरू करके समूचे उत्तरी अमरीका, यूरोप, अफ्रीका और एशिया में विद्रोह और क्रांतिकारी उभार फैल गये थे। बोल्शेविक क्रांति ऐसी क्रांति थी जिसने पहली बार पूंजीवाद को पूर्णतया उखाड़ फेंका था और इस शोषणकारी व्यवस्था के स्थान पर समाजवाद स्थापित किया था जो मजदूर वर्ग और उत्पीडि़तों को सत्तासीन करने पर आधारित था।<br />
    1920 के दशक में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों और समाजवादी पार्टियों के बीच विश्वव्यापी संश्रय बनाने के प्रयास और उभार हुए। 1920 के दशक के अंत तक पूंजीवादी दुनिया अपने सबसे खराब आर्थिक संकट में फंस गई और यह 12 वर्षों तक तब तक जारी रहा जब तक कि 1941 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल नहीं हो गया।<br />
    1930 के दशक के दौरान पूंजीवादी व्यवस्था के इस पतन ने यूरोप और जापान को फासीवाद को बढ़ावा देने की ओर ले गया। तब भी, 1930 और 1940 के दशक में फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में कम्युनिस्टों और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों ने अगुवाई की और 1945 में युद्ध के नतीजों को तय करने में इनकी भूमिका निर्णायक थी।   <br />
    1945 के शुरू से कम्युनिस्ट और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों ने पूंजीवाद और उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंकने के अपने प्रयास तेज कर दिये। कोरिया, वियतनाम, पूर्वी यूरोप और अंततोगत्वा चीन में उनकी निर्णायक विजय हुई। 1947 तक भारत भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजादी हासिल कर चुका था और अफ्रीकी महाद्वीप भी औपनिवेशक शासन के जुए को उतार फेंकने के लिए अपने लोकप्रिय उभार शुरू कर चुना था।<br />
    द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समूची पूंजीवादी दुनिया में संयुक्त राज्य अमरीका के शासक वर्ग का प्रभुत्व हो गया। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन और जापान 1930 और 1940 के दशक के दौरान अपनी सीमाओं के भीतर व्यापक लड़ाई से तबाह हो गये थे। संयुक्त राज्य अमरीका पर युद्ध का कोई नुकसान पहुंचाने वाला कोई सैन्य प्रभाव नहीं पड़ा था।<br />
    सोवियत संघ को 1942 और 1943 के दौरान स्तालिनग्राद की लड़ाई में भीषण नुकसान उठाना पड़ा था, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी शक्ति के बतौर उभरा था, सिर्फ अमरीकी साम्राज्यवाद की सैनिक व राजनीति ताकत उससे ज्यादा थी। इस काल के दौरान समाजवाद समूचे पूर्वी यूरोप में फैल गया और यूगोस्लाविया ने भी फासीवाद के विरुद्ध अपने प्रतिरोध से अपने को मुक्त करा लिया था, जहां उसने समाजवाद का रास्ता चुका था।<br />
.......<br />
    1954 तक, वियतनाम की जनता ने फ्रांसीसी साम्राज्यवाद को पराजित कर दिया और इस दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्र के दक्षिण के हिस्से में अमरीकी साम्राज्यवाद ने कब्जा कर लिया। उसी वर्ष अल्जीरिया के राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा ने उत्तरी अफ्रीका में फ्रांसीसी साम्राज्यवाद के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया।<br />
    डा. क्वाने न्क्रूमा ने 1949 में स्थापित कन्वेंशन पीपुल्स पार्टी के जरिए घाना में आजादी का संघर्ष छेड़ दिया। डा. न्क्रूमा 1940 के दशक के अंत से 1972 में अपनी मौत के बीच अफ्रीकी क्रांति के मुख्य रणनीतिकार और रणकौशलकार थे। उन्होंने बताया था कि उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध अफ्रीकियों के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन अलग-थलग नहीं थे बल्कि आजादी, न्याय और आत्मनिर्णय के लिए चलने वाले वैश्विक संघर्ष से घनिष्ठता से जुड़े हुए थे। न्क्रूमा ने अफ्रीकी मुक्ति आंदोलनों और महाद्वीप में समाजवाद के लिए संघर्ष के उठते ज्वार को शोषण और उत्पीड़न के सभी रूपों के विरुद्ध विश्व व्यापी प्रयासों के संदर्भ में रखकर देखा था।<br />
    न्क्रूमा ने लिखा था कि ‘‘अफ्रीकी परिस्थिति को प्रभावित करने वाले अनेक बाहरी कारक हैं और यदि हमारे मुक्ति संघर्ष को सही परिप्रेक्ष्य में रखा जाए और हम अपने दुश्मन को जानना चाहते हों तो इन कारकों के प्रभाव को पूरी तरह से समझना होगा। इनमें से पहला साम्राज्यवाद है क्योंकि यह मुख्यतया शोषण और गरीबी के लिए जिम्मेदार है जिसके विरुद्ध हमारी जनता विद्रोह करती है।’’<br />
    इस सर्व-अफ्रीकी क्रांतिकारी नेता ने आगे यह कहाः<br />
    ‘‘इसलिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध रणनीति को स्पष्ट तौर पर तय किया जाएः दुश्मन द्वारा हमारे इलाकों के आर्थिक शोषण को जारी रखने को सुनिश्चित करने के उपायों और मुक्ति आंदोलन को कुचलने के उसके प्रयासों की प्रकृति को समझा जाए। एक बार जब दुश्मन की रणनीति के घटकों को तय कर लिया जाए तब हम इस स्थिति में होंगे कि अपनी वास्तविक परिस्थिति और अपने उद्देश्यों के अनुरूप अपने खुद के संघर्ष की सही रणनीति की रूपरेखा तैयार कर सकें।’’<br />
    द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के काल के विशेष संदर्भ में न्क्रूमा ने यह लिखाः<br />
    ‘‘युद्ध के बाद दोनों क्षेत्रों के बीच और उनके भीतर गम्भीर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तनाव बढ़ गये हैं। ये दोनों क्षेत्र हैं औपनिवेशक इलाके और यूरोप व उत्तरी अमरीका के औद्योगीकृत पूंजीवादी देश। उन्होंने यह लिखा, ‘‘पूंजीवादी-साम्राज्यवादी राज्यों के भीतर मजदूर संगठन तुलनात्मक रूप से मजबूत और अनुभवी हो गये हैं और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था द्वारा पैदा की गयी सम्पदा में मजदूर वर्ग द्वारा और ज्यादा हिस्सा पाने के दावे को अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस मांग को मानना इसलिए भी और जरूरी हो गया है क्योंकि साम्राज्यवादी युद्धों के कारण लगभग तबाही से यूरोपीय पूंजीवादी व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी है।’’<br />
    इसी काल के दौरान, वे कहते हैं,<br />
    ‘‘जहां शोषण की पूंजीवादी व्यवस्था अपने आंतरिक संकट से ग्रस्त है, वहीं दुनिया के औपनिवेशिक क्षेत्र मजबूत मुक्ति आंदोलनों के उभार से खौल रहे हैं। यहां फिर से अब मांगों को किनारे नहीं लगाया जा सकता, या नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, विशेष तौर पर उस समय जब उन्हें अप्रतिरोध्य जन आंदोलनों के जरिए उठाया जा रहा है जैसे कि गिनी और घाना में उठाया जा रहा है। कुछ क्षेत्रों में, जैसे वियतनाम, केन्या और अल्जीरिया में, सीधी टकराहटों ने उत्पीडि़त जनता द्वारा अपने दावों को खून और आग से लिखने की तैयारी प्रदर्शित कर दी है।’’<br />
    ..................<br />
     जैसा कि न्क्रूमा ने कहा था कि राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों की आंधी ने साम्राज्यवाद को अपनी रणनीति बदलने के लिए बाध्य कर दिया था। साम्राज्यवादी देशों ने न सिर्फ अपने देशों के भीतर ‘कल्याणकारी’ योजनायें लागू की थी। बल्कि औपनिवेशिक क्षेत्रों के भीतर भी वे कुछ सुधारवादी कदमों की ओर जाने में नये शासकों की मदद करने लगे। लेकिन इन सभी कदमों से वे अपनी जकड़ को कायम रखना चाहते थे। इस प्रकार, 1994 तक आते-आते एक-एक करके अफ्रीकी देश आजाद हो गये। 1994 में आखिरी देश दक्षिण अफ्रीका था, जहां रंगभेदवादी गोरी सरकार की विदाई हुई।<br />
    1966 में न्क्रूमा की पार्टी कन्वेंशन आफ पीपुल्स पार्टी को घाना में बलात सत्ताच्युत कर दिया गया। 1983 में घाना के सैनिक शासक ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक द्वारा निर्देशित आर्थिक सुधार कार्यक्रम लागू किये। इसी प्रकार उगाण्डा में सैनिक तख्तापलट कराके साम्राज्यवादियों ने इदी अमीन को सत्तासीन कराया जिसने 1971 में मिल्टन ओबोटे को सत्ता से हटा दिया था।<br />
    2010 के अंत और 2011 के शुरू में तथाकथित ‘अरब बसंत’ के दौरान ट्यूनीशिया, मिस्र, मोरक्को और अल्जीरिया में विद्रोहों के अंतर्निहित कारण इन सरकारों द्वारा नौजवानों को और आम तौर पर मजदूरों को रोजगार उपलब्ध कराने की असफलता में रहा है।...<br />
    लीबिया में, साम्राज्यवादियों और कारपोरेट प्रेस ने इस पश्चिम समर्थित विद्रोह को ट्यूनीशिया और मिस्र की 2011 की घटनाओं से जोड़ने का प्रयास किया। लेकिन लीबिया के प्रदर्शनों का चरित्र राजनीतिक तौर पर पूर्णतया अलग था। जमहरिया का विद्रोह गद्दाफी सरकार द्वारा कुचला जा चुका था।<br />
    जमहरिया का बहाना बनाकर साम्राज्यवादी राज्यों ने संयुक्त राष्ट्र संघ में दो प्रस्ताव पारित कराये। एक प्रस्ताव में गद्दाफी सरकार पर हथियारों की आपूर्ति पर प्रतिबंध लगाया गया था और दूसरे प्रस्ताव में ‘नो फ्लाई जोन’ घोषित कराकर लीबिया पर बमबारी की योजना लागू की गयी थी। इसके बाद लगातार सात महीनों तक अमरीकी साम्राज्यवादियों और नाटो ने बमबारी की। 20 अक्टूबर 2011 को गद्दाफी के काफिले पर हमला कर उसे सिर्ते में गिरफ्तार किया गया।<br />
<strong>अफ्रीकाम-नाटो और अफ्रीका का सैन्यीकरण</strong><br />
    अफ्रीकाम की औपचारिक स्थापना 2008 में अमरीकी साम्राज्यवादियों ने की थी। इसका मुख्यालय जर्मनी के स्टुगार्ट में स्थापित किया गया था। तब से अमरीकी साम्राज्यवादी इसका मुख्यालय अफ्रीका में लाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इसका विरोध अफ्रीकी यूनियन और अलग-अलग देश कर रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने जिब्रूती में एक सैन्य अड्डा स्थापित कर रखा है। इस सैन्य अड्डे के अतिरिक्त ड्रोन स्टेशन, सी.आई.ए. के अड्डे और अमरीकी साम्राज्यवादियों तथा विभिन्न अफ्रीकी राज्यों के बीच संयुक्त कार्रवाइयों के समझौते हैं। अभी दिसम्बर 2012 में ओबामा ने घोषणा की है कि वे 3500 सैनिकों व सैन्य प्रशिक्षकों को 35 अफ्रीकी राज्यों में भेज रहे हैं। यह सब ‘आतंकवाद के विरुद्ध’ लड़ने में मदद करने के नाम पर किया जा रहा है।<br />
    अमरीकी साम्राज्यवादियों के अपराधों की श्रृंखला बहुत लम्बी है। उन्होंने लीबिया में 50,000-1,00,000 तक लोगों को मार डाला है। 20 लाख के आस पास लोग अपने घरों को छोड़कर बाहर जाने को मजबूर हुए हैं। यह अभी अमरीकी साम्राज्यवादियों और नाटो द्वारा हमलों और हुकूमत परिवर्तन के लिए किया गया है।<br />
...................<br />
    संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थायें लीबिया में प्रति क्रांतिकारी अपराधों के मामलों में ज्यादातर चुप्पी साधे हुए हैं। यह सोमालिया के बारे में भी सही है जहां सी.आई.ए. और पेण्टागन ने ड्रोन और हवाई हमलों से हजारों लोगों की हत्यायें की हैं।<br />
    अफ्रीकी लोग अफ्रीकाम और इसके लगुओं-भगुओं के हमलों का इस महाद्वीप में प्रतिरोध कर रहे हैं।<br />
    लीबिया और सोमालिया में युद्ध का फैलाव पड़ौसी देशों- माली, नाइजर और केन्या में हो गया है। दक्षिण सोमालिया पर कब्जा किए हुए केन्या ने अमरीकी साम्राज्यवादियों की छत्रछाया में 2000-3000 फौजें लगा रखी है।<br />
    ..............<br />
<strong>अफ्रीका और प्रवासी अफ्रीकियों के आगे का रास्ता</strong><br />
    अफ्रीका और इसके लोगों का विकास करने के लिए वित्तीय पूंजी की साम्राज्यवादी व्यवस्था के साथ इसका निर्णायक विच्छेद जरूरी है। विश्व पूंजीवाद के गहराते संकट के समय, इस आर्थिक व्यवस्था के पास न तो अफ्रीका की समस्याओं का समाधान है और न ही यूरोप और उत्तरी अमरीका की इसकी अपनी जनता की समस्याओं का वास्तविक समाधान है।<br />
    यूरोप भयंकर मंदी में है। इसके दक्षिण के देश बेतहाशा बेरोजगारी दर, जो 25 प्रतिशत से ऊपर है, का सामना कर रहे हैं। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी में भी आर्थिक संकट ने राष्ट्रीय कोष को निचोड़ डाला है। इसने केन्द्रीय बैंकों को अपनी वित्तीय संस्थाओं के पूर्ण विनाश को रोकने के लिए भारी बेलआउट पैकेज देने के लिए मजबूर किया है।<br />
    संयुक्त राज्य अमेरिका में गरीबी और बेरोजगारी की दरें बढ़ रही हैं। संयुक्त राज्य की करीब आधी आबादी अपने को गरीबी या लगभग गरीबी में जीवित मानती है।<br />
    यह आर्थिक संकट इस समय राजनीतिक हो जाता है जब व्हाइट हाउस, कांग्रेस, डाउनिंग स्ट्रीट, ब्रूसेल्स, और पेरिस करोड़ों मजदूरों, किसानों और नौजवानों को प्रभावित करने वाली आर्थिक दुर्दशा से पूंजीवादी व्यवस्था को बचाने के लिए कोई वैकल्पिक विचार नहीं पेश कर रहे हैं। शासक वर्ग और सरकार में बैठे उनके लगुओं-भगुओं के भवनों से एकमात्र प्रस्ताव यह आ रहा है कि खर्चों में और ज्यादा कटौती की जाए तथा जनवादी बहस, संवाद और सामूहिक  कार्रवाई की किसी भी कोशिश को सीमित करने का तंत्र विकसित किया जाए।<br />
    हमारा कार्यभार इन चुनौतियों के समाधान की तरफ जाने में व्यापक जनसमुदाय की राजनीतिक शिक्षा, उनकी गोलबंदी और संगठन से सम्बन्धित है। अफ्रीका और प्रवासी अफ्रीकियों का संकट किसी भी तरह दुनिया की जनता के व्यापकतर संघर्ष से अलग-थलग नहीं है।<br />
........................<br />
    अफ्रीकी यूनियन को इस महाद्वीप से अमरीका, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, इजरायल और अन्य साम्राज्यवादी राज्यों व उनके सहयोगियों को हटाने में कार्रवाई करनी होगी। अफ्रीका की इस समय की समस्याओं की जड़ों को समूचे महाद्वीप में साम्राज्यवादी व्यवस्था के प्रभुत्व में खोजा जा सकता है।<br />
    उत्तरी अमरीका और यूरोप में बसे अफ्रीकी प्रवासियों के संदर्भ में नस्लवाद और राष्ट्रीय उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष अत्यन्त महत्व को है। अफ्रीका प्रवासियों की शक्तियां सर्व-अफ्रीकावाद के आदर्शों पर चलकर अफ्रीकी आजादी के आंदोलन को समग्रता में सुदृढ़ करने में निर्णायक भूमिका निभाती रही है। उसे भी निभा सकती हैं तथा सर्व अफ्रीकावाद व अफ्रीकी पुनर्जागरण की ओर बढ़ सकती हैं।<br />
    न्क्रूमा ने ‘अफ्रीका को एकजुट होना होगा’ में लिखा थाः<br />
    ‘‘ ‘सर्वअफ्रीकावाद’ की अभिव्यक्ति बीसवीं सदी के शुरू से पहले नहीं आयी थी। सबसे पहले ट्रिनीडाड के हेनरी सिलवेस्टर विलियम्स और संयुक्त राज्य अमेरिका के विलियम एडवर्ड बरघार्ट डू बोईरु ने इस शब्द का कई सर्व अफ्रीकी कांग्र्रेसों में इस्तेमाल किया था। इस दोनों के पूर्वज अफ्रीकी थे। इन कांग्रेसों में अफ्रीकी मूल के विद्वान मुख्यतः हिस्सा लेते थे। अफ्रीकी राष्ट्रवाद और सर्व-अफ्रीकावाद का योगदान मरक्यूज गार्वे के ‘अफ्रीका की ओर वापस चलने आंदोलन का था।’’<br />
    1963 से, अफ्रीकी, अमेरिकी और कैरिबियाई अफ्रीकी लोगों ने अफ्रीकी मुक्ति की अवधारणा को लोकप्रिय बनाने के संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। 1980 के दशक और 1990 के दशक के शुरू में अफ्रीकी अमरीकी लोगों से प्रभावित दक्षिणी अफ्रीकी एकजुटता संघर्ष ने उस रंगभेद नीति वाली हुकूमत के विरुद्ध पहली बार विधायी और प्रशासनिक कार्रवाई करने की ओर सफलता पायी।<br />
    ओबामा प्रशासन के आने के बाद सर्व-अफ्रीकी संघर्ष के वर्ग चरित्र पर जोर देने की आवश्यकता बढ़ गयी है। अफ्रीका अमरीकी साम्राज्यवाद का कोई पृष्ठभाग नहीं है और इसको सही अर्थों में आजादी व संप्रभुता का पूरी तौर पर इस्तेमाल करने का मौका देना होगा।<br />
    संयुक्त राज्य अमरीका में, जहां अफ्रीकी अमेरिकी रहते हैं, वे भयंकर आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के जनसंघर्षों में उन्होंने जो राजनीतिक अधिकार हासिल किए थे, उन्हें छीना जा रहा है।<br />
    इसलिए न्क्रूमा ने अपनी पुस्तिका ‘क्रांतिकारी युद्ध की हैण्डबुक’ में जोर दिया था,‘‘अफ्रीकी एकता में यह अंतर्निहित है कि साम्राज्यवाद और विदेशी उत्पीड़न को उनके सभी रूपों में खात्मा करना होगा। नव-उपनिवेशवाद को चिह्नित करना चाहिए और उसका खात्मा करना चाहिए तथा महाद्वीपीय फ्रेमवर्क के भीतर नए अफ्रीकी राष्ट्र को विकसित करना होगा।’’<br />
    न्क्रूमा ने आगे और कहा कि ‘‘अफ्रीकी एकता की अवधारणा के केन्द्र में समाजवाद और नये अफ्रीकी समाज की समाजवादी परिभाषा है। समाजवाद और अफ्रीकी एकता आवयविक तौर पर एक दूसरे के पूरक हैं। केवल एक ही सच्चा समाजवाद है और वह वैज्ञानिक समाजवाद है, जिसके सिद्धान्त सभी जगह लागू होते हैं, सार्वभौमिक हैं’’।<br />
    वैज्ञानिक समाजवाद पर आधारित क्रांतिकारी सर्व-अफ्रीकावाद अफ्रीकावासियों और समूची दुनिया में अपने सहयोगियों को पूंजीवादी समाज व विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था के रूपान्तरण के लिए संगठन और गोलबंदी में अधिकतम अंशों तक योगदान देना चाहिए। पिछले 5 दशकों के ये ही सबक हैं और अफ्रीका तथा इसके लोगों की पूर्ण मुक्ति में आगे बढ़ने के लिए इनका आंकलन करना होगा।  

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