
संसद में प्रधानमंत्री मोदी ने निदा फाजली की गजल के एक शेर से अपनी सरकार और इस वर्ष के बजट के बारे में हकीकत बयां कर दी। हालांकि इस गजल का मकसद विपक्षी पार्टियों पर तथाकथित शायराना अंदाज से निशाना साधना था परन्तु भूल से मियां ने खुद अपनी जूतियां खुद अपने सिर रख लीं। शेर कुछ यूं था-<br />
<strong>‘‘यही है जिन्दगी कुछ ख्वाब चन्द उम्मीदें <br />
इन्हीं खिलौने से तुम बहल सको तो चलो’’</strong><br />
देश के किसानों, नौजवानों, उत्पीडि़त स्त्रियों, दलित आदिवासियों के लिए देश की सरकार और उसके बजट में कुछ ख्वाब, चन्द उम्मीदें नाम के खिलौने हैं जिनसे उन्हें अपने खाली पेट, बेरोजगारी, बीमारी और मुसीबतों के समय अपना दिल बहलाना है। सरकार और उसके बजट का कुल जमा मतलब यही है। पर यही बात देशी-विदेशी पूंजीपतियों, मुफ्त का माल उड़ाने वाले अमीरों पर लागू नहीं होती। वे कितने खुश हैं, इसका इजहार शेयर बाजार में आये उछाल से लगाया जा सकता है। बजट पेश होेने के बाद शेयर बाजार के कई सूचकांकों में से एक सेनसेक्स में 1500 से भी अधिक अंकों का इजाफा हो गया है। 22,000 के करीब पहुंच चुका सेनसेक्स बजट के बाद 24000 को पार कर चुका है। <br />
इस वर्ष के बजट की सरकार और उनके मंत्रियों के साथ मीडिया ने ऐसी छवि बनायी है कि यह बजट किसान जनता के हित में है। यह मिथक गढ़ा गया है कि सरकार ने अपनी ‘सूट-बूट’ की छवि से मुक्ति पाने के लिए किसानों को भारी राहत दी है। बजट में कृषि क्षेत्र को भारी मात्रा में धन दिया है। हकीकत कुछ और है। <br />
2015-16 में कृषि क्षेत्र तथा किसानों के कल्याण मद में 15,809 करोड़ रुपये दिये गये। इस वर्ष के बजट में यह राशि 35,984 करोड़ रुपये पहुंच गयी। इतना बड़ा इजाफा भ्रम पैदा करता है। असल में सरकार ने अल्प अवधि के कृषि ऋण पर ब्याज सब्सिडी को वित्त मंत्रालय से हटा कर कृषि सहकारिता व किसान कल्याण विभाग के खाते में डाल दिया। इस राशि को जैसे ही इस मद से हटा दिया जाता है वैसे ही हकीकत उजागर हो जाती है। यह राशि मात्र 20,894 करोड़ रुपये रह जाती है। 2014-15 में यह राशि 19,255 करोड़ रुपये थी। 2015-16 में 15,809 करोड़ रुपये। <br />
इस बजट में देश में आत्महत्या को मजबूर होते किसानों को 2022 तक उनकी आय दुगुना होने का ख्वाब दिखाया गया है। मोदी सरकार के इस दावे पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की टिप्पणी थी कि यह असंभव है। इस लक्ष्य को हासिल करने का अर्थ है कृषि में जबर्दस्त ढंग से वृद्धि हो। अनुमानतः यह वृद्धि लगभग 12 फीसदी प्रति साल होनी चाहिए। सच्चाई यह है इस वक्त कृषि क्षेत्र भयानक ढंग से संकट का शिकार है। किसानों की आत्महत्याओं की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर 2014-15 में -0.2 फीसद थी वहीं 2015-16 में महज 1.1 फीसद रही है। वित्त मंत्री जेटली 2022 तक किसानों की आय में दोगुनी की वृद्धि का ख्वाब दिखलाकर न जाने किसे मूर्ख बना रहे हैं। किसानों को तो बना नहीं पायेंगे। हो सकता है कुछ दिन बाद मोदी-जेटली कहें कि यह तो एक चुनावी जुमला था। <br />
गांधी, नेहरू, इंदिरा, राजीव आदि नामों से बेहद चिढ़ने वाले संघ-भाजपा की भावनाओं का ख्याल इस बजट में खूब रखा गया है। कोई भी नयी योजना की शुरूवात या पुरानी योजना का पुनः नामकरण इस ढंग से किया गया है कि भारत की जनता की जुबान में संघी नेताओं का भी नाम चढ़ जाय। वैसे जैसे कांग्रेसियों को अपने नेताओं के अलावा कोई नहीं दिखायी देता है वैसा ही हाल इन संघियों का भी है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी आदि के नाम से कई योजनाएं शुरू की गयी हैं। <br />
सबसे मजेदार है दीन दयाल उपाध्याय की जन्मशती मनाने के लिए सौ करोड़ रुपये दिये गये हैं। दीन दयाल उपाध्याय के बारे में किसी गैर संघी-भाजपाई से पूछा जाये तो शायद कुछ भी न बता पाये। इन महाशय का भारत की आजादी की लड़ाई या अन्य किसी सामन्तवाद विरोधी सामाजिक संघर्ष में कोई योगदान नहीं है। संघ की हिन्दू फासीवादी सोच पर इन्होंने मानवतावाद का मुलम्मा चढ़ाया था। ‘एकात्म मानववाद’ नाम से प्रचारित इनके दर्शन का लब्बे-लुआब है कि एक देश-एक धर्म-एक भाषा-एक संस्कृति। भारत जैसे बहुराष्ट्रीय, बहुधार्मिक, बहु संस्कृति वाले देश को हिन्दू फासीवादी ढंग से रचने का मंसूबा पालने वाले दीन दयाल उपाध्याय पर सौ करोड़ रुपये खर्च करना देश की जनता के पैसे की खुली बर्बादी हैै। विपक्षी दल या कोई और हल्ला न मचा सके इसके लिए इस धन की घोषणा दसवें सिक्ख गुरू गोविन्द सिंह की 350वीं वर्षगांठ मनाने के साथ की गयी है। ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ नाम की योजना भी संघी फासीवादी योजना को परवान चढ़ाने के लिए ही है। <br />
इस बजट में निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों को और आगे बढ़ाया गया है। देशी-विदेशी पूंजीपतियों को कई तरह की कर राहतें दी गयी हैं। भारी मात्रा में सब्सिडी दी गयी है। घरेलू गैस, खाद्य सब्सिडी आदि पर शोर मचाने वाले मोदी-जेटली ने अपने खजाने को खुले तौर पर पूंजीपतियों को लुटाया है। काले धन को सफेद बनाने के लिए सरकार ने नयी स्कीम की घोषणा की है जिसका राहुल गांधी ने ‘फेयर एण्ड लवली’ योजना कहकर मजाक बनाया है। हालांकि ऐसी ही योजना कांग्रेस भी अपने शासन काल में लायी थी। <br />
पूंजीपतियों को विभिन्न करों से राहत दिलाने का एक प्रस्ताव है- ‘‘विभिन्न मंत्रालयों द्वारा लगाये जा रहे 13 उपकर जिनमें राजस्व संग्रहण एक वर्ष में 50 करोड़ रुपये से कम है, समाप्त किये जायेंगे।’’ इसी तरह पूंजीपतियों को ‘मेक इन इण्डिया’ के नाम पर कई वस्तुओं के सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क में भारी कर राहत दी गयी है। कई ऐसे नये क्षेत्र खोल दिये गये हैं जिनमें सौ फीसदी विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति दी गयी है। यही बातें रोजगार और विकास को बढ़ावा देने के नाम पर भी की गयी हैं। <br />
वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण की शुरूवात में वैश्विक अर्थव्यवस्था के गम्भीर संकट का हवाला दिया और फिर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के नाम पर अपनी पीठ थपथपायी है। और फिर दावा किया है कि अर्थव्यवस्था में वृद्धि 7.6 फीसदी रहेगी। इस सच्चाई के बावजूद कि भारत का निर्यात पिछले चौदह महीनों में लगातार गिरा है। विदेशी निवेश में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है। औद्योगिक और कृषि उत्पादन गम्भीर मंदी के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में ये आंकड़े ऐसे हैं जिसमें मोदी सरकार के अलावा किसी का भरोसा नहीं है। <br />
मोदी सरकार को नाम बदलने का बहुत शौक है। अब उन्होंने विनिवेश विभाग का नाम भी बदल डाला है। अब इस विभाग का नाम ‘निवेश तथा सरकारी अस्ति प्रबंधन (दीपम) कर दिया गया है। सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों की हालत खस्ता करने उनकी नीलामी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है परन्तु इस सबके बावजूद सरकार विनिवेश के जरिये मनमाफिक रकम नहीं जुटा पायी है। इसमें सबसे बड़ी वजह व्यापक रूप से फैला आर्थिक संकट है। पूंजीपति ऐसे जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की नीलामी के लिए अब नया विचार लेकर आयी है। <br />
इस बजट में भारत के मजदूरों के लिए ऐसा कुछ नहीं है जिससे उनके कष्टपूर्ण जीवन में कुछ राहत मिले। उल्टे उसे और निचोड़ने के लिए ईपीएफ पर डाका डाला गया था। मजदूर कर्मचारियों के उग्र तेवर और चुनावी माहौल(पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव) में अपनी फजीहत होेते देख मोदी-जेटली ने अपना कर प्रस्ताव वापस ले लिया। <br />
गौरतलब है देश में सबसे बड़ी आबादी मजदूर आबादी है फिर भी उनके लिए इस बजट में यदि कुछ है तो वह है और अधिक शोषण और अधिक महंगाई। भारत कभी किसान प्रधान देश था अब तो यह मजदूर प्रधान देश है। भारत के मजदूरों के जीवन का संकट औद्योगिक जगत के संकट से और गहरा गया है। लाखों की संख्या में मजदूरों की छंटनी हो रही है। बेरोजगारी के कारण मजदूरी गिरती जा रही है। <br />
ऐसे में यह बजट मजदूरों को नाम मात्र की भी राहत नहीं देता। असल में पूरे बजट में मजदूरों की घोर उपेक्षा की गयी है। पूरे बजट भाषण को पढ़ जाइये आपको एक भी अक्षर मजदूरों के बारे में नहीं मिलेगा। यहां तक कि कहीं पर मजदूर शब्द लिखा हुआ भी नहीं मिलता। यह है अपने को ‘नम्बर वन मजदूर’ कहने वाले का बजट।