बनभूलपुरा हिंसा : फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट (अंश) भाग-1

(8 फरवरी को हल्द्वानी के मुस्लिम बहुल क्षेत्र बनभूलपुरा में नगर निगम एवं जिला प्रशासन द्वारा एक मदरसा और मस्जिद को ढहाने के दौरान हुई हिंसा, पथराव, आगजनी एवं पुलिस फायरिंग में 7 लोग मारे गये एवं सैकड़ों की संख्या में आम नागरिक, पुलिसकर्मी एवं पत्रकार घायल हुये। तदुपरान्त कर्फ्यू, पुलिस की दबिश और गिरफ्तारियों के साये में विभिन्न राजनैतिक सामाजिक संगठनों ने ‘कौमी एकता मंच’ का गठन किया। जिसने प्रभावित इलाकों में जाकर तथ्य जुटाये व फैक्ट फाइडिंग रिपोर्ट जारी की। -सम्पादक) 
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8 फरवरी का घटनाक्रम 
    
बनभूलपुरा कोई नई बस्ती नहीं है, इसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि हल्द्वानी शहर का। मुसलमान हल्द्वानी के लिए बाहरी नहीं हैं। इतिहासकार किरण त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक ‘हल्द्वानी : मंडी से महानगर की ओर’ में उल्लेख किया है कि 1924-25 में बनभूलपुरा में एक जिला परिषद का स्कूल खुला था। त्रिपाठी की पुस्तक के नाम से स्पष्ट है कि हल्द्वानी, जो कि उत्तराखंड के पर्वतीय कुमाऊं क्षेत्र की एक मंडी था उसका, मैदानी क्षेत्र होने के कारण, समय के साथ नैनीताल जिले में एक महानगर के रूप में विकास हो गया है। जैसा कि एचआर नेविल द्वारा लिखित ‘नैनीताल : ए गजेटियर’ (1904) में बताया गया है, 1901 में, हल्द्वानी की जनसंख्या 6,624 थी, जिसमें से 3,327 हिंदू और 3,198 मुस्लिम थे। एक समय संख्या में लगभग बराबर होने के बाद, धीरे-धीरे हिंदू प्रमुख आबादी बन गए और मुस्लिम अब केवल बनभूलपुरा जैसे विशिष्ट इलाकों में ही रह रहे हैं। आनन्द बल्लभ उप्रेती अपनी किताब ‘हल्द्वानी : स्मृतियों के झरोखे से’ में बताते हैं कि कैसे आजाद नगर (आज का बनभूलपुरा) को तत्कालीन नगर पालिका अध्यक्ष डी के पांडे ने अंग्रेजों द्वारा निर्देशित तर्ज पर सोच-समझकर विकसित किया था। उदाहरण के लिए, हर चार लेन के बाद फायर लाइनें बनाई गईं।
    
हल्द्वानी का बनभूलपुरा; शहर की लाइफ लाइन कहा जा सकता है। बढ़ई, प्लम्बर, वेल्डर, मोटर मैकेनिक एवं टाइल लगाने का काम करने वाले इत्यादि सभी तरह के कुशल श्रमिकों के लिये ये शहर बनभूलपुरा पर ही निर्भर करता है। इसके अलावा शहर के लोग बिरयानी और रूमाली रोटी का आनंद लेने के लिये भी बनभूलपुरा का रुख करते हैं। दीवाली जैसे त्यौहार पर बताशों और खिलौनों का मुख्य आपूर्तिकर्ता भी बनभूलपुरा ही है। फल-सब्जी और रेवड़ी-गुड़ के ठेले, कपड़े-जूते की दुकानों और छोटे-बड़े रेस्टोरेंट-भोजनालयों पर देर रात तक यहां बातचीत का माहौल पुरानी दिल्ली की याद दिलाता है। यहां की ज्यादातर आबादी निम्न आय वर्ग और रोज कमा कर खाने वाले मजदूर-मेहनतकश लोगों की है। 
    
8 फरवरी की बनभूलपुरा की सुबह अन्य दिनों की सुबहों की भांति ही एकदम सामान्य और शांत थी। कुछ लोग ‘हजारी रोजा’ (चांद के कलेण्डर के अनुसार रजफ़ माह की 27 तारीख) लिए हुए थे। मजदूर काम पर जाने को, दुकानदार दुकान खोलने को और बच्चे स्कूल जाने को तैयार हो रहे थे, ठेला लगाने वाले अपना ठेला तैयार कर रहे थे जबकि महिलायें घरेलू कामकाज में व्यस्त हो चुकी थीं। सभी की दिनचर्या रोज की ही तरह शुरू हुई थी और शाम को क्या घटने जा रहा है इसकी किसी को भनक तक न थी। 
    
शाम के 4 बजकर 30 मिनट पर नगर निगम की टीमें भारी पुलिस बल और प्रशासनिक अमले के साथ बनभूलपुरा स्थित मलिक के बगीचे पर पहुंचती हैं और यहां निर्मित एक मस्जिद और मदरसे को अतिक्रमण एवं अवैध निर्माण बताकर तोड़ने का प्रयास करती हैं। स्थानीय आबादी, जिसमें महिलाओं की संख्या अच्छी खासी थी, इसका भारी विरोध करती है। लोगों का कहना था कि जब प्रशासन द्वारा इस जगह को अपने कब्जे में लेकर सील किया जा चुका है और मामला कोर्ट में भी लंबित है तो फिर मस्जिद और मदरसे को इस तरह ढहाने और हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का भला क्या औचित्य है?  
    
गौरतलब है कि 30 जनवरी के अपने आदेश में नगर आयुक्त पंकज उपाध्याय ने मदरसे और मस्जिद को नजूल भूमि पर बने अवैध निर्माण बताते हुये अब्दुल मलिक को इसे हटाने के लिये 1 फरवरी तक का समय दिया था, अन्यथा 4 फरवरी को इसे बलपूर्वक ध्वस्त करने की घोषणा कर दी गई थी। इसके बाद 3 फरवरी को प्रशासन व नगर निगम के अधिकारियों की मुस्लिम समुदाय के धर्म गुरुओं एवं स्थानीय जन प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक हुई। बैठक में लोगों ने अधिकारियों से कहा कि इस भूमि को फ्री-होल्ड किये जाने के प्रार्थना पत्र के निस्तारण का आदेश 2007 में उच्च न्यायालय द्वारा किया जा चुका है, लेकिन प्रशासनिक स्तर पर यह अभी भी लंबित है तथा इस क्षेत्र की भूमि पर रेलवे और स्थानीय लोगों के दावे के साथ यह पूरा मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी विचाराधीन है। इसके अलावा लोगों ने मलिक का बगीचा के इंदिरा नगर पश्चिमी मलिन बस्ती श्रेणी-ए में होने का हवाला देकर भी ध्वस्तीकरण की कार्यवाही पर रोक लगाने की मांग की। बैठक हालांकि बे-नतीजा रही लेकिन देर रात डेढ़ बजे स्थानीय जिम्मेदार लोगों की मौजूदगी में प्रशासन ने मस्जिद और मदरसे को अपने कब्जे में लेकर सील कर दिया। इसके बाद 6 फरवरी को अब्दुल मलिक की पत्नी सफिया मलिक ने इस भूमि पर अपने मालिकाने के दावे के साथ उच्च न्यायालय में याचिका लगाई, जो कि स्वीकार हुई और 8 फरवरी को सुनवाई के बाद इस पर सुनवाई की अगली तारीख 14 फरवरी तय हुई। परन्तु प्रशासन ने 14 फरवरी तक इंतजार करना मुनासिब नहीं समझा और 8 फरवरी की शाम को ही मस्जिद व मदरसे को ध्वंस करना शुरू कर दिया। क्या यह न्यायिक प्रक्रिया में मुकदमा हार जाने की संभावना से लिया गया उतावलेबाजी का कदम था? या फिर शहर की फिजा खराब करने वाला उकसावेबाजी का कदम? यह साफ होना बाकी है।
    
यहां एक और कानूनी पहलू है जो कि बनभूलपुरा निवासियों के पक्ष में जाता है, वह यह कि आजादी के बाद उत्तर प्रदेश में 1950 में ‘भूमि सुधार कानून’ बना था, जिसके तहत पुराने जमींदारी भूमि संबंधों को बदला गया था और अधिकतम भूमि की सीमा को तय किया गया था। इस भूमि सुधार कानून में छोटी जोत के मालिकों को सुरक्षा दी गई थी और जो जहां बसा हुआ है उसे वहीं मालिकाना हक प्रदान किया गया था। उस समय उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। ऐसे में बनभूलपुरा के निवासियों को भी यह कानूनी सुरक्षा हासिल है। यह कानून यद्यपि उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में दलील का आधार नहीं बनाया गया है परंतु यदि इस कानून को मद्देनजर रखा जाय तो बनभूलपुरा सहित प्रदेश की, कथित अवैध बसावट वैध मानी जानी चाहिये। लेकिन प्रशासन ने इन सभी बातों को नजरअंदाज कर मस्जिद और मदरसे को ध्वस्त करने की कार्यवाही शुरू कर दी।  
    
लोगों ने कहा कि अंदर कुराने पाक और अन्य धार्मिक किताबें व सामान हैं, इससे उनकी बेअदबी होगी, लेकिन प्रशासन ने सरकारी सील खोले बिना और धार्मिक पुस्तकों व अन्य सामान की सूची बनाकर उसे सरकारी मालखाने में जमा करने के प्रोटोकाल का पालन नहीं किया। स्थानीय निवासियों ने बताया कि जेसीबी से मलवा हटाने के दौरान 1-2 मार्च को 18 कुरान निकाली गयीं। साफ है कि प्रशासन की कार्यवाही सरकारी कब्जे वाली सीलबंद जगह पर नियमों को ताक पर रखकर की गयी। मस्जिद व मदरसे के ध्वंस का विरोध करते हुए महिलायें वहीं धरने पर बैठ गईं और लोगों ने नारेबाजी शुरू कर ध्वस्तीकरण को रोकने की कोशिश की, जवाब में पुलिस ने लाठियां भांजकर लोगों को वहां से खदेड़ने का प्रयास किया। महिलाओं को सड़कों पर घसीटा गया और 4 जे.सी.बी. मशीनों की सहायता से मस्जिद और मदरसे को ढहा दिया गया। गौरतलब है कि जिस समय मस्जिद और मदरसे को ढहाया गया उस समय पुलिस प्रशासन के कई वरिष्ठ अधिकारी मौके पर मौजूद थे। 
    
इसके बाद मस्जिद और मदरसे को ढहाने से उत्तेजित लोगों द्वारा पथराव शुरू कर दिया गया, जवाब में पुलिसकर्मियों और नगर निगम कर्मियों द्वारा भी पलटकर लोगों पर पथराव किया गया। पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े तथा हवाई फायरिंग की। अब चौतरफा भगदड़ की स्थिति कायम हो गई। कुछ पुलिसकर्मी, जो कि बनभूलपुरा की गलियों में फंस गये, को लोगों ने पीटा, हालांकि इसका उल्टा भी हुआ और पुलिसकर्मियों को स्थानीय लोगों ने भीड़ से बचाया व अपने घरों में शरण दी। कई महिला पुलिसकर्मियों को स्थानीय लोगों ने आश्रय दिया और उन्हें अपने आम महिलाओं के कपड़े दिए ताकि वहां से वे सुरक्षित निकल सकें और अराजक तत्वों के निशाने पर न आयें। इसी तरह कुछ पत्रकारों को भी शरण देकर उनकी हिफाजत की गई। हिंसा के दौरान गोपाल मंदिर, जो मस्जिद-मदरसे से लगभग 150 मीटर की दूरी पर है, को उपद्रवियों द्वारा नुकसान पहुंचाने से भी लोगों ने बचाया।
    
इस माहौल के बीच कुछ पत्रकारों ने हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं जैसी भाषा का इस्तेमाल करते हुये बेहद उत्तेजक कवरेज की और शहर व राज्य की सांप्रदायिक फिजा बिगाड़ने की पूरी कोशिश की। यह भी पता चला कि इन पत्रकारों को बुलडोजर की कार्यवाही शुरू होने से कुछ देर पहले ही खुद प्रशासन ने अपनी गाड़ी से घटना स्थल पर पहुंचाया था। 

असामाजिक तत्वों की भूमिका 
    
अफरा-तफरी के इस माहौल में अब असामाजिक तत्व भी शामिल हो गये और भारी तोड़फोड़ व आगजनी शुरू हो गई। भीड़ ने बनभूलपुरा थाने के सामने खड़े वाहनों में आग लगा दी और खुद थाने के एक कमरे को भी आग के हवाले कर दिया, जिसे फायर ब्रिगेड की गाड़ी ने मौके पर पहुंचकर किसी तरह बुझाया। स्थानीय लोगों का कहना है कि ये असामाजिक तत्व गांधी नगर बस्ती से थे और शराब के नशे में थे। कुछ घटनायें लोगों के इन आरोपों को पुष्ट भी कर रही हैं, जैसे थाने पर हमला करने वाली भीड़ ने थाने के नजदीक ही चल रहे एक मुस्लिम शादी समारोह पर भी हमला किया। यदि ये उपद्रवी बनभूलपुरा के होते तो ऐसा कतई न करते। इसके अलावा लोगों के कथनानुसार इसी उपद्रव के दौरान गांधी नगर क्षेत्र में ही एक हिस्ट्रीशीटर संजय सोनकर फईम नामक एक युवक की मोटर साइकिल को पेट्रोल डालकर आग लगा देता है और जब फईम इसका विरोध करता है तो वह गोली मारकर उसकी हत्या कर देता है। इस दौरान इनके घर से सामान की लूटपाट भी की जाती है। गौरतलब है कि फईम (30 वर्ष) इस उपद्रव में मरने वाले 7 लोगों में से एक है। इस मामले में न्यायालय के 9 मई के आदेश के बाद अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ है। इसी तरह एक वीडियों में साफ देखा जा सकता है कि कुछ युवक पुलिस की मौजूदगी में पथराव कर रहे हैं। 
    
बनभूलपुरा प्रकरण में असामाजिक तत्वों की यह भूमिका स्वतः स्फूर्त थी अथवा योजनाबद्ध? ऑप इंडिया नामक पत्रिका, जो कि हिन्दू दक्षिणपंथी पत्रिका है, आर.एस.एस.-भाजपा की खुली समर्थक है, वाल्मीकि समुदाय से जुड़े लोगों की इस भूमिका को न सिर्फ स्वीकारती है अपितु जिस तरह इसका गौरवगान करती है उससे यही प्रतीत होता है कि यह सब योजनाबद्ध था। यह आर.एस.एस. द्वारा दंगों में असामाजिक तत्वों के इस्तेमाल के एक खास पैटर्न की ओर इशारा करता है। गौरतलब है कि स्थानीय आबादी के लोग इस तरह के दंगे-फसाद या उपद्रव में शामिल नहीं होते हैं। गुजरात नरसंहार और दिल्ली दंगों में बाहरी लोगों या दूसरे शहरों से लाये गये उपद्रवियों की भूमिका रही थी। कई स्थानीय लोगों का कहना है कि उपद्रवी तत्व बाहरी लोग थे और उन्होंने पूर्व में पुलिस से शिकायत की थी कि अनजान लोगों की तादाद इस इलाके में बढ़ गयी थी। 
    
चोरगलिया रोड स्थित बनभूलपुरा थाने में आगजनी की घटना के बाद शासन एवं पुलिस प्रशासन के उच्च अधिकारियों की बैठकें हुईं। अब अर्द्ध सैन्य बलों को भी मौके पर बुला लिया गया। गोली चलाने के आदेश के बारे में एसएसपी प्रह्लाद नारायण मीणा का बयान आया कि ‘‘जब बनभूलपुरा थाने पर हमला हुआ तो अधिकारी और कर्मचारी फंस गए। उपद्रवियों की तरफ से गोली चल रही थी। ऐसे में थाने पर कब्जा लेने और अधिकारियों और कर्मचारियों को बचाने के लिए गोली चलाने का आदेश दिया गया। मामले में कार्यवाही नजीर बनेगी। उपद्रवियों ने अतिक्रमण स्थल को बचाने के लिए नहीं बल्कि राज्य को चुनौती देने के लिए हमला किया था।’’ वहीं जिलाधिकारी ने इस बारे में बयान दिया कि ‘‘भीड़ ने थाने को घेर लिया और थाने के अंदर मौजूद लोगों को बाहर नहीं आने दिया गया। उन पर पहले पथराव किया गया और फिर पेट्रोल बम से हमला किया गया। थाने के बाहर वाहनों में आग लगा दी गई और धुएं के कारण दम घुटने लगा। पुलिस थाने की सुरक्षा के लिए ही आंसू गैस और पानी की बौछारों का इस्तेमाल किया।’’ बयानों से साफ है कि गोली चलाने के आदेश के बारे में प्रशासन के स्तर पर कोई स्पष्टता नहीं थी। जिलाधिकारी वंदना सिंह ने रात्रि 9 बजे पूरे हल्द्वानी शहर में कर्फ्यू का आदेश जारी कर दिया। साथ ही रात 10 बजे शहर में इंटरनेट सेवायें बंद कर दी गयीं।

पुलिस फायरिंग में मरने वाले और घायलों का विवरण 
    
रेलवे स्टेशन के पास बनभूलपुरा की गफूर बस्ती, जहां के निवासी बेहद गरीब हैं और स्वस्थ नागरिक सुविधाओं से भी वंचित हैं, में रहने वाले पिता-पुत्र मोहम्मद जाहिद (उम्र 43 वर्ष) और अनस (उम्र 18 वर्ष) 8 फरवरी को पुलिस फायरिंग में मारे गये। .... मोहम्मद जाहिद मैजिक गाड़ी चलाते थे और 8 फरवरी की शाम गाड़ी खड़ी करने के बाद नमाज अता कर घर लौटे थे और करीब सात-साढे़ सात बजे चोरगलिया रोड पर स्थित दुकान से दूध लेने गये थे, वहीं उन्हें गोली लगी और उनकी मौत हो गई। जब पिता को ढूंढने अनस बाहर निकला तो चोरगलिया रोड के पास उसे भी गोली लगी और वहीं उसकी भी मौत हो गई। पिता-पुत्र की मौत से परिवार में कोहराम मच गया। 
    
इसी तरह गोलीबारी में मारे गये मोहम्मद इसरार के बारे में फैक्ट फाइंडिंग टीम को पता चला कि वे छोटा हाथी चलाते थे और 8 फरवरी की शाम काम से लौटकर अपने लड़के को तलाशने चोरगलिया रोड पर गये थे, तभी उनके सिर पर गोली लगी। यह भी करीब सात-साढ़े सात बजे का समय था। उनका पुत्र सुहैल उन्हें ढूंढने गया तो वे सड़क पर गिरे मिले। यहां भी अस्पताल ले जाने के लिये उन्हें एम्बुलेंस नहीं मिली। उनके बेटे किसी तरह उन्हें लेकर हल्द्वानी बेस अस्पताल से कृष्णा अस्पताल से फिर सुशीला तिवारी अस्पताल पहुंचे, जहां 13 फरवरी को उनकी मृत्यु हो गई। उनके दोनों बेटे दुकानों में काम करते हैं और उस दिन भी वे शाम को अपने काम से लौटे थे।  
    
फैक्ट फाइंडिंग टीम ने 8 फरवरी को गोलीबारी में गंभीर रूप से घायल हुये और 18 दिन अस्पताल में रहकर दम तोड़ देने वाले इंदिरा नगर के अलबसर के बारे में पड़ताल की तो पता चला कि अलबसर (19 वर्ष) पुत्र माजिद के पचास वर्षीय पिता को 8 फरवरी की शाम सात-साढे़ सात बजे किसी ने बताया कि तुम्हारे लड़के को गोली लगी है। अलबसर लाल स्कूल, राजकीय बालिका इंटर कॉलेज बनभूलपुरा लाइन नं. 17, के पास पड़ा मिला। उसके पेट में गंभीर चोट थी और उसकी आंतें बाहर निकल आई थीं। उसे टेम्पू करके सुशीला तिवारी अस्पताल पहुंचाया गया। 18 दिन अस्पताल में रहने के बाद उसने दम तोड़ दिया। उसकी उम्र सिर्फ 19 साल थी और वह सब्जी का ठेला लगाता था।
    
इसी तरह सबान पुत्र शफीक अहमद, बिलारी मस्जिद के पीछे मछली बाजार रोड में दुकान पर था। भारी पुलिस बल को देख डर-भय के माहौल में उसने अपने पिता को बुलाया और दुकान बंद की और लाइन नम्बर 8 में काम करने वाले अपने छोटे भाई को बुलाने के लिए गया। कुछ देर में परिवार वालों को फोन पर सूचना मिली कि उनके बेटे को गोली लगी है। ढूंढने निकले तो फोन से ही पता चला कि उसकी मौत हो गयी है। सुशीला तिवारी अस्पताल में उसका पंचनामा हुआ। रात 8 बजे बॉडी परिजनों को सौंप दी गयी। 5-7 लोग जनाजे में गये। पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं मिली है।
    
उक्त विवरण के अनुसार पुलिस गोलीबारी में मारे गये इन पांचों लोगों- मोहम्मद जाहिद और उसके पुत्र अनस, मोहम्मद इसरार, अलबसर और सबान को गोली 8 फरवरी की शाम सात-साढे़ सात बजे के करीब लगी जबकि प्रशासन के स्तर पर गोली चलाने के आदेश को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है। जिलाधिकारी महोदया ने कर्फ्यू के औपचारिक आदेश 9 बजे दिये थे। इससे स्पष्ट है कि फायरिंग कर्फ्यू के आदेश से पहले ही शुरू हो गई थी। साफ है कि इनकी हत्या पुलिस फायरिंग या उपद्रवी तत्वों की गोली से हुई। यदि उपद्रवी तत्वों ने उनकी हत्या की तो किसके इशारे और सहयोग से की। गौरतलब है बनभूलपुरा में रचे गये हत्याकांड और उपद्रव के दौरान बिजली काट दी गयी थी।
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इसके अलावा इस बात की भी संभावना है कि पुलिस की गोलीबारी में घायल बहुत से लोग डर की वजह से सामने नहीं आये हों और छिप कर अपना इलाज करा रहे हों।
    
उपरोक्त विवरण में मरने और घायल होने वाले सभी लोग शाम को काम से लौटकर अपने घर आये थे अथवा आ रहे थे तब उन्हें गोली लगी। अमर उजाला में छपी खबर के अनुसार पुलिस ने 350 राउंड फायरिंग की और इस दौरान क्षेत्र की बत्ती गुल थी। स्पष्ट है कि पुलिस ने फायरिंग के प्रोटोकाल का पालन नहीं किया और किन्हीं उपद्रवियों को लक्षित करके नहीं बल्कि अंधाधुंध फायरिंग की गई। 
    
8 फरवरी के बनभूलपुरा प्रकरण के दौरान विवाहेतर संबंधों की वजह से हुई आपसी रंजिश के कारण एक पुलिसकर्मी ने अपने साथियों के साथ मिलकर प्रकाश नाम के एक मजदूर की हत्या कर उसके शव को चोरगलिया रोड, पुल के पास डाल दिया गया, जिससे यह लगे कि उसकी मौत बनभूलपुरा प्रकरण में हुई है, परन्तु मामला उजागर हो गया। यहां यह सवाल भी उठता है कि क्या इस पुलिसकर्मी को इस सब की पूर्व सूचना थी या यह महज एक संयोग था। जो भी हो इस पुलिसकर्मी ने बड़े ही शातिर ढंग से प्रकाश की हत्या को अंजाम दिया और कोशिश की कि प्रकाश इस उपद्रव का एक मासूम शिकार बन कर सामने आये। 

खुफिया विभाग की रिपोर्ट और नगर निगम कमिश्नर की भूमिका 
    
इस पूरे प्रकरण में एक खास बात यह भी है कि खुफिया विभाग ने प्रशासन को कई बार चेताया था कि यदि मदरसे और मस्जिद को ढहाने की कार्यवाही की जाती है तो इसका भारी विरोध होगा। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या खुफिया सूचना को जानबूझकर अनदेखा किया गया ताकि संभावित विरोध को कोई और रूप देकर राज्य में ध्रुवीकरण किया जा सके? क्या आधी-अधूरी तैयारी इसी सुनियोजित योजना का हिस्सा थी? या फिर क्या प्रशासन ने लोगों के भारी विरोध के मद्देनजर आवश्यक तैयारी ऐसे ही की थी? यदि प्रशासन ने खुफिया विभाग की चेतावनियों को गंभीरता से लिया होता तो वह ध्वस्तीकरण की कार्यवाही से पहले वहां के धर्मगुरुओं एवं स्थानीय जिम्मेदार लोगों को अपने विश्वास में लेने की कोशिश करता। लेकिन प्रशासन ने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। दूसरे, इस कार्यवाही के दौरान सिर्फ पी ए सी के जवान ही आवश्यक सुरक्षा तैयारियों के साथ मौके पर मौजूद थे, बाकी पुलिसकर्मियों एवं पी आर डी (प्रांतीय रक्षा दल) के जवानों की ऐसी कोई सुरक्षा तैयारी नहीं थी। यही वजह रही कि पथराव में वे घायल हुये। इसके अलावा खुफिया विभाग ने ध्वस्तीकरण के लिये मुफीद सुबह का समय बताया था, लेकिन प्रशासन ने अपनी कार्यवाही के लिये शाम का वक्त चुना, जबकि सर्दियों के मौसम में जल्दी ही अंधेरा होने लगता है। प्रशासन का यह फैसला भी उसे कठघरे में खड़ा करता है।
    
इस मामले में नगर निगम कमिश्नर पंकज उपाध्याय भी खासे विवादित और चर्चित रहे। 31 जनवरी को इनका स्थानांतरण कुमाऊं मंडल विकास निगम के प्रबन्ध निदेशक के पद पर हो चुका होता है लेकिन इसके बावजूद ये 8 फरवरी को इतनी बड़ी कार्यवाही को नेतृत्व दे रहे होते हैं। 1 फरवरी को भी इनकी अब्दुल मलिक के साथ गर्मा-गर्म बहस होती है और यही वो सज्जन हैं जो कि 2 फरवरी को हल्द्वानी के ही एक दूसरे हिस्से राजपुरा में नजाकत खां के बगीचे पर कब्जा लेने के बाद वहां मौजूद मुस्लिम महिलाओं को धमकाते हुये इस अंदाज में वहां गौशाला खोलने की घोषणा करते हैं और बने हुए ढांचों को गिराकर जमीन पर कब्जा ले लेते हैं, मानो यह उनके व्यक्तिगत अहम का सवाल हो। यहां गौर करने लायक बात ये है कि नजाकत खां के पास इस जमीन की खाता बही से लेकर दाखिल खारिज तक के दस्तावेज हैं जिनके आधार पर पूर्व में भी वे मुकदमे जीते और जमीन पर अधिकार हासिल किया। 8 फरवरी के प्रकरण के बाद अब पंकज उपाध्याय को पदोन्नति देते हुये ऊधमसिंह नगर जिले का अपर जिलाधिकारी बना दिया गया है। यहां यह रेखांकित करना होगा कि बनभूलपुरा के इस पूरे प्रकरण को बनभूलपुरा ही नहीं, हल्द्वानी की बाकी जनता ने भी अप्रिय माना। बनभूलपुरा की जनता जहां इस पूरे घटनाक्रम से आतंकित थी, वहीं हल्द्वानी शहर की जनता इससे हैरान-परेशान थी। कर्फ्यू व इंटरनेट सेवायें बंद कर दी गई थीं। हालांकि प्रशासन द्वारा शेष हल्द्वानी में 10 फरवरी की शाम से कर्फ्यू हटा लिया गया था और इंटरनेट सेवायें बहाल कर दी गई थीं, जबकि बनभूलपुरा में 12 दिन लम्बा कर्फ्यू रहा जिसमें 15 फरवरी से कुछ ढील मिलनी शुरू हुई और 20 फरवरी को जाकर ही कर्फ्यू को पूरी तरह हटाया गया। हालांकि बनभूलपुरा के चौक चौराहों पर पुलिस और अर्द्ध सैन्य बल इसके बाद भी तैनात रहे, जिनमें से अर्द्ध सैन्य बलों को कुछ दिन बाद हटा लिया गया। 

संवैधानिक-वैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों का रुख
    
राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी शुरूआत से ही मामले पर नजर बनाए हुए थे। वो घटना के अगले दिन 9 फरवरी को हल्द्वानी शहर के दौरे पर आये। इस दौरान उन्होंने घायल पुलिसकर्मियों से मुलाकात की, उनके प्रति संवेदना व्यक्त की। हालांकि इस दौरान वे बनभूलपुरा के आम घायलों से अस्पताल में नहीं मिले। उन्होंने बनभूलपुरा के आम नागरिकों के प्रति कोई संवेदना तक व्यक्त नहीं की। जहां घायल पुलिसकर्मियों को मुआवजे की घोषणा की गई वहीं उपद्रव में मारे गए और घायल लोगों के लिए किसी तरह के मुआवजे की कोई घोषणा नहीं की गयी। इसके बाद विवादित भूमि पर न्यायालय के वाद को ताक पर रखकर पुलिस चौकी बनाने की घोषणा कर दी। यह पुलिस चौकी एक टैंट के अंदर बना दी गयी है। जिसे आरोपियों के घरों से कुर्की के रूप में जब्त सामान, जो नियमानुसार सरकारी मालखाने में जमा होने चाहिए था, से सजाया गया है। राज्य के मुख्यमंत्री का उक्त व्यवहार प्रदेश की आम जनता के प्रति जिम्मेदारी और जवाबदेही वाला नहीं है।
    
सांसद अजय भट्ट जी ने भी 12 फरवरी को हल्द्वानी का दौरा किया। इस दौरान वे घायल पुलिसकर्मियों, पत्रकारों, निगम कर्मचारियों से मिले। लेकिन इनका दौरा भी जिंदगी-मौत से जूझ रहे बनभूलपुरा के घायलों के बीच नहीं हुआ। इनमें से दो घायलों की तो बाद में इलाज के दौरान मौत ही हो गई। सांसद अपने संसदीय क्षेत्र में हुई हिंसा की घटना का सही अंदाजा तभी लगा सकते थे, जब वे; प्रशासन और जनता; दोनों से मिलते। लेकिन इनका दौरा भी लोगों के बीच निष्पक्षता और न्याय की भावना भरने वाला न होकर पक्षपातपूर्ण रहा।
    
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष श्री इकबाल सिंह लालपुरा जी ने भी 21-22 फरवरी को हल्द्वानी का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने प्रशासन की मौजूदगी में विवादित जगह का दौरा किया। साथ ही आम लोगों को 22 फरवरी को सर्किट हाउस, काठगोदाम में मिलने का समय दिया गया। सर्किट हाउस में जिलाधिकारी सहित जिला एवं पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में आम लोगों की बात सुनी। इस दौरान लोगों ने मीडियाकर्मियों को बाहर करने के साथ किसी भी तरह की वीडियोग्राफी का विरोध किया। अध्यक्ष महोदय से उन्होंने वायदा लिया कि उनकी यहां कही जा रही बातों की वजह से प्रशासन उनके ऊपर किसी तरह की कानूनी या दमन की कार्यवाही न करे। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष के सामने आम लोगों का यह संकोच गौर करने लायक है। इसको समझते हुए यह बेहतर होता कि अध्यक्ष जी आम लोगों से अलग से मिलते और जिला प्रशासन से अलग। जिससे वे सभी की भावनाओं और तथ्यों से सही से परिचित होते। अपनी राय और रिपार्ट को अधिक सही से बना पाते। 
    
राज्य महिला आयोग की अध्यक्षा श्रीमती कुसुम कंडवाल जी ने 27 फरवरी को हल्द्वानी का दौरा किया। अपने दौरे में वे 8 फरवरी के उपद्रव में घायल महिला पुलिसकर्मियों से मिलीं, लेकिन कर्फ्यू में रहीं बनभूलपुरा की आम महिलाओं से वे नहीं मिलीं। अगर वे उनसे भी मिलतीं तो हिंसा और उपद्रव का महिलाओं पर पड़े दुष्प्रभाव को ज्यादा सही से अपनी रिपोर्ट में दर्ज कर पातीं। जो सत्य की खोज और न्याय को प्राप्त करने में मददगार होती।   (अगले अंक में जारी)
 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को

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7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक

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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।