
बिहार विधानसभा के चुनाव परिणामों ने दिल्ली चुनाव के बाद एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी और उनके संघी अभिभावकों को हतप्रभ कर दिया। वे अपने सारे जोड़-तोड़ के बावजूद उतनी भी सीटें नहीं पा सके जितनी उनके पास पहले थी। घमण्डी अमित शाह ने मतदान सम्पन्न होने के बाद बड़े ही दम्भ से कहा था ‘‘मैं आठ तारीख के बाद बोलूंगा’’। परन्तु चुनाव परिणामों ने उनकी जुबान में ताला लगा दिया। मोदी और शाह ने पूरे चुनाव की कमान संभाली हुयी थी इसलिए बिहार चुनाव की हार इन दोनों की हार भी है। <br />
लालू-नितीश-कांग्रेस गठबंधन को दो-तिहाई बहुमत मिल गया हालांकि कई एक्जिट पोल इसकी उल्टी भविष्यवाणी कर रहे थे। बिहार विधानसभा चुनाव में मोदी-शाह-जेटली की तिकड़ी ने चुनाव जीतने के लिए एक से बढ़कर एक घृणित तरीके अपनाये। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो सके इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी ने हरचंद कोशिश की। प्रधानमंत्री के स्वयं इस स्तर पर उतर आने की व्यापक प्रतिक्रिया हुयी। <br />
लालू-नितीश ने मोदी-शाह-जेटली की रणनीति के जवाब में जो समीकरण बनाये वह यह देखने के लिए पर्याप्त हैं कि भारत की पूंजीवादी राजनीति में एक तरफ कुंआ और दूसरी तरफ खाई की स्थिति है। अखबार, इलेक्ट्रोनिक मीडिया इस चुनाव का जो भी विश्लेषण करें यह एक सच्चाई है कि करीब चालीस फीसदी मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग ही नहीं किया। मत नहीं डालने वालों की संख्या किसी भी पार्टी को मिले कुल मतों से बहुत-बहुत ज्यादा है। और जिन मतदाताओं ने नोटा(उपरोक्त में कोई नहीं) का बटन दबाया उनकी संख्या कई चुनावबाज पार्टियों को मिले मतों से भी ज्यादा है। करीब 9 लाख मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया। जब तक कोई विश्लेषण इन दो तथ्यों को अपने सामने नहीं रखेगा वह चुनाव परिणाम की असलियत को कैसे उजागर कर सकता है।<br />
इस चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें राष्ट्रीय जनता दल(80) को प्राप्त हुयीं। जनता दल (यू) को 71, भाजपा को 53 तथा कांग्रेस को 27 सीटें मिलीं। संसदीय वामपंथी गठबंधन जिसे तीन वामपंथी पार्टियों सीपीआई, सीपीआई(एम) व सीपीआई(एमएल) लिबरेशन ने मिलकर बनाया था उसमें सिर्फ लिबरेशन को ही तीन सीटें मिलीं। भाजपा की सहयोगी पार्टियों की सबसे ज्यादा दुर्गति हुयी। एलजेपी को 2, आरएलएसपी को 2 व हम को 1 सीट मिली। विभिन्न पार्टियों को मिली सीटें व मत प्रतिशत को साथ दी गयी तालिका में देखा जा <img alt="" src="/newsImages/151116-054709-untitled 2.bmp" style="width: 261px; height: 296px; border-width: 3px; border-style: solid; margin: 3px; float: right;" />सकता है। <br />
तालिका से स्पष्ट है कि एक बड़ी हार के बावजूद यदि सिर्फ मत प्रतिशत के आधार पर देखें तो सबसे ज्यादा मत भारतीय जनता पार्टी को मिले हैं। यदि राजद, जद (यू) और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव नहीं लड़ा होता तो सबसे बड़ी पार्टी के रूप में भाजपा उभरी होती और ऐसी स्थिति में मोदी, अमित शाह और एक्जिट पोल के नतीजे एकदम सटीक और सही साबित हो गये होते। ऐसी स्थिति में जीतने वाली पार्टियों की लगभग वही स्थिति होती जो लोकसभा चुनाव के समय इनकी बिहार में स्थिति थी। इस मायने में देखा जाए तो हिन्दू फासीवादी संगठन संघ और उसके द्वारा संचालित पार्टी भारतीय जनता पार्टी का बिहार में जनाधार और मत प्रतिशत पिछले चुनाव से अब तक करीब-करीब वैसा ही बना हुआ है। हुआ बस यह है जिस गणित ने लोकसभा चुनाव में भाजपा को प्रचण्ड बहुमत दिलाया था, ठीक उसी गणित ने इस चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया। <br />
मोदी, शाह और संघ उनके समर्थक मीडिया ने इस चुनाव को लेकर जिस तरह का माहौल बनाया था ठीक उन्हीं कारणों ने भाजपा की हार को इतना बड़ा बना दिया। बिहार को राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय महत्व का घोषित व प्रचार करने वालों को इस हार के बाद बहुत शर्मिंदगी उठानी पड़ी। एक एक्जिट पोल करने वाली संस्था को अपने एकदम वाहियात आकलन के लिए माफी तक मांगनी पड़ी। <br />
बिहार चुनाव में भाजपा की हार का एक अपेक्षित परिणाम शेयर बाजार के गिरने के रूप में होना ही था और वह हुआ। बाम्बे स्टाॅक एक्सचेंज का संवेदी सूचकांक चुनाव परिणाम आने के अगले दिन 26 हजार से भी नीचे चला गया। यही हालत रुपये की भी हुयी। हालांकि शेयर बाजार और रुपये की गिरावट में इस कारण के साथ एक और बड़ा कारण संयुक्त राज्य अमेरिका में ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी का पूर्वानुमान भी था। इस गिरावट में मूल कारण मोदी सरकार के आर्थिक सुधारों में राज्य सभा में उसके अल्पमत में बने रहने की स्थिति में लगने वाले अडंगों की आशंका का ही है। <br />
बिहार विधान सभा के परिणामों से यह आशा करना फिजूल होगा कि इससे बिहार अथवा देश की जनता को कुछ हासिल होने वाला है। आर्थिक नीतियों के मामले में देश की संसद में बैठने वाली पार्टियों में लगभग आम सहमति है। यह 1991 के बाद से अब तक विभिन्न पार्टियों और गठबंधन की सरकारों के काम काज से सुस्पष्ट है। जिन विधेयकों को कांग्रेस नीत संप्रग गठबंधन अपने कार्यकाल में नहीं पास करवा सका लगभग उन्हीं विधेयकों (जिसमें आर्थिक, श्रम, टैक्स सुधार शामिल<span style="font-size: 13px; line-height: 20.8px;"> हैं</span>) भाजपा नीत राजग गठबंधन संसद में शीघ्र अति शीघ्र पास करवाना चाहता रहा है। <br />
इन चुनावी नतीजों से देश में जारी नीतियों के निर्माण और क्रियान्वयन में कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है। देश के मजदूरों, किसानों, शोषित-उत्पीडि़तों के जीवन पर छाया गहरा संकट बरकरार रहना है। बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसी समस्यायें जस की तस रहनी हैं। और इसी तरह देश पर मंडरा रहे हिन्दू फासीवादी खतरा भी जस का तस रहना है। हिन्दू फासीवादी संघी अपने करतूतों और घृणित षड्यंत्रों से भारतीय समाज में उसी तरह से जहर घोलते रहेंगे जैसे घोलते रहे हैं। बिहार की हार के गम को मिटाने के लिए वे असम, पंजाब, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अपने घृणित साम्प्रदायिक प्रचार को और जोर-शोर से करेंगे। और ये हर चुनाव, हर दिन ऐसा तब तक करेंगे जब तक इनको निर्णायक शिकस्त नहीं दे दी जाती। हिन्दू फासिस्ट खतरे को भारत की जमीन से हमेशा के लिए नहीं मिटा दिया जाता।