महाकुम्भ का आयोजन : एक तीर से दो निशाने

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने इस बार महाकुम्भ के आयोजन के लिए पूरी ताकत और पैसा (करीब 7000 करोड़ से ज्यादा) झोंक रखा है। परीक्षाओं को बिना पेपर लीक करवाने में अक्षम सरकार महाकुम्भ के सफल आयोजन में जी जान से जुटी है। इससे उत्तर प्रदेश की प्राथमिकताओं को समझा जा सकता है। 

इस बार के 45 दिनों के महाकुंभ में 45 करोड़ लोगों यानी प्रतिदिन 1 करोड़ लोगों के आने की बात कही जा रही है। 2013 और 2019 के आंकड़ों के आधार पर ये दावे किये जा रहे हैं। अब यह आंकड़े भले ही अतिश्योक्तिपूर्ण हों लेकिन यह बात सच है कि सरकार द्वारा प्रायोजित इन आयोजनों में भाग लेने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। 

ऐसे धार्मिक आयोजनों के द्वारा सरकार एक तीर से दो निशाने साधना चाहती है। पहला निशाना ऐसे धार्मिक आयोजनों से होने वाली मोटी कमाई है। इस महाकुम्भ के आयोजन से उत्तर प्रदेश सरकार को 25,000 करोड़ की कमाई की उम्मीद है। ऐसा सिर्फ योगी सरकार ही नहीं कर रही है वरन जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था तब अंग्रेज भी इस महाकुम्भ को आयोजित कर भारी कमाई कर लगाकर किया करते थे। और महाकुम्भ को आयोजित करने के लिए ब्रिटेन से अफसरों को बुलाया करते थे। 

उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने पर्यटन मंत्रालय को जहाँ लग्जरी टेंट (जिनका किराया 40,000 रुपया प्रति रात तक है) बनाने की अनुमति दी है वहीं निजी पूंजीपतियों ने ऐसे लग्जरी टेंट बनाये जिनका एक रात का किराया 1 लाख से भी ज्यादा है। वहीं उत्तर प्रदेश सरकार ने मेले में लगने वाले स्टालों जैसे नाश्ते, चाय, प्रसाद आदि से भारी रकम वसूल की है। जो कोई भी कुम्भ मेले में रोजगार के लिए आया है सरकार उन सभी पर कर लगाकर अपना खजाना भर रही है। 

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार महाकुम्भ जैसे धार्मिक आयोजन करके दूसरा निशाना अपने आपको हिन्दुओं का रहनुमा साबित करना चाहती है। महाकुंभ के जरिये उसने आम जनता को धार्मिक कूपमँडूकता के सागर में डुबकी लगाने की व्यवस्था कर दी है। महाकुम्भ के जरिये उसने अपने संप्रदायिकता के एजेंडे को भी आगे बढ़ाने की कोशिश की है। मुसलमानों को दुकान न लगाने से लेकर उनको ड्राइवर तक के रूप में न आने के फरमान संघ भाजपा के संगठनों और अखाड़ों ने सुनाकर यह साबित कर दिया है कि बिना मुसलमानों से घृणा किये इनके धार्मिक आयोजन पूरे नहीं हो सकते। 

जनता को रोजी-रोटी न देकर आज संघ-भाजपा उसको धर्म की चाशनी में लपेटना चाहते हैं। उसे धर्म की अफीम चटाकर उसका ध्यान उसकी मूल समस्याओं से भटकाना चाहते हैं। इलाहाबाद में हो रहा महाकुम्भ इलाहाबाद में छात्रों पर किये गये लाठी चार्ज की बुरी यादों को नहीं मिटा सकता। इलाहाबाद का अलफ्रेड पार्क लोगों को चंद्रशेखर जैसे क्रांतिकारियों की भी याद दिलाता है जो भारत को न केवल अंग्रेजों बल्कि काले अंग्रेजों से जनता को आज़ादी दिलाना चाहते थे। एक दिन आएगा जब महाकुम्भ जैसे धार्मिक आयोजन जनता को मूर्ख बनाने में कामयाब नहीं हो पाएंगे।

आलेख

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो। 

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ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

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आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।