मलयाना नरसंहार के दोषी रिहा

एक लम्बे इंतज़ार के बाद 1 अप्रैल को मेरठ के मलयाना नरसंहार का फैसला आ गया और इस फैसले में 39 दोषियों को साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिया गया। इस नरसंहार में 93 लोगों को दोषी बनाया गया था। इसमें से 23 लोगों की मौत हो चुकी है। 31 लोगों की पहचान नहीं हो पायी। इस फैसले के बाद यह साबित हो गया है कि न्याय अब देर से मिलने के बजाय मिलना ही बंद होने लगा है।

दरअसल 1987 में अप्रैल-मई में मेरठ में सम्प्रदायिक दंगे हुए थे। इसकी शुरुवात 14 अप्रैल को शब ए बारात कार्यक्रम के दौरान हुई थी। इस दंगे में हिन्दू और मुस्लिम दोनों पक्षों के 12 लोग मारे गये थे। इसके बाद कुछ दिनों तक सांप्रदायिक दंगों की छोटी-छोटी घटनाएं होती रहीं। बाद में पी ए सी और हिंदूवादी संगठनों द्वारा सीधे-सीधे मुस्लिमों को निशाना बनाकर उनका नरसंहार किया गया। कहीं न कहीं इसमें सरकार की भी संलिप्तता थी।

इन नरसंहारों में हाशिमपुरा और मलयाना नरसंहार कुख्यात रहे। दरअसल मामला कुछ यूं रहा कि 21 मई 1987 को प्रशांत कौशिक जो मेजर सतीश चंद्र कौशिक का भाई था, की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। ये दोनों शकुंतला शर्मा जो भाजपा की फायर ब्रांड नेता थी, के भतीजे थे। इसके अगले दिन यानी 22 मई को पी ए सी हाशिमपुरा में घुसी और सैकड़ों मुसलमानों को गिरफ्तार किया। इनमें से 50 लोगों को पी ए सी के एक ट्रक में भरकर लाया गया और उनको गोली मारकर गंगनहर में डाल दिया गया। 42 लोगों की लाशें मिल गयीं। बाकी लोग किसी तरह जिंदा बच गये जिन्होंने बाद में इस नरसंहार के बारे में बताया। कहा जाता है कि इसमें मेजर सतीश चंद्र कौशिक का हाथ था बल्कि वही एक तरह से टुकड़ी का नेतृत्व कर रहा था।

इसके अगले दिन 23 मई को हाशिमपुरा के पास ही एक गांव मलयाना का नरसंहार हुआ। पी ए सी और आस-पास के गांव के लोग नशे में धुत होकर हथियारों के साथ मलयाना में घुसे और मुस्लिमों को मारने लगे। पी ए सी ने गांव के सभी रास्तों की नाकेबंदी कर रखी थी। कुछ पी ए सी वाले छतों से गोलियां चला रहे थे। इस नरसंहार में 72 मुस्लिमों को मार दिया गया। छोटे बच्चों को आग में फेंक दिया गया।

हाशिमपुरा कांड में तो तब भी 16 पी ए सी वालों को दोषी ठहराया गया था और मृतकों को कुछ मुआवजा भी मिला लेकिन मलयाना कांड में यह सब भी नहीं हुआ। यहां मृतकों को मात्र 40-40 हज़ार का मुआवजा दिया गया था। इस कांड के बाद पुलिस ने याक़ूब के नाम से एफ आई आर दर्ज़ करवाई और पी ए सी के किसी भी सिपाही का नाम इसमें नहीं था। कुछ लोगों के खिलाफ एफ आई आर थी। यह बात खुद याक़ूब ने बताई थी। इस एफ आई आर के फ़र्ज़ी होने का संकेत इससे भी मिलता है कि इसमें एक ऐसे व्यक्ति का भी नाम था जिसकी मौत कई साल पहले हो चुकी थी।

जब मलयाना कांड पर अदालत में केस चला तो न तो गवाहों की गवाही ही करवाई गयी और न ही पोस्टमार्टम की रिपोर्ट का संज्ञान लिया गया। 34 सालों में इस केस में 800 तारीखें पड़ीं। 35 में से मात्र 3 गवाहों की ही गवाही हुई। 36 शवों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश की गयी थीं जिन पर गोलियों के निशान थे। ये गोलियों के निशान पी ए सी की गोलियों के थे। क्योंकि स्थानीय हमलावरों के पास ऐसे हथियार नहीं थे।

कुल मिलाकर एफ आई आर से लेकर गवाहों और सुबूतों को इस तरह पेश किया गया कि न्याय की गुंजाईश ही ख़त्म हो जाती। मलयाना नरसंहार की जांच के लिए जस्टिस जी एल श्रीवास्तव के नेतृत्व में एक कमेटी बनी थी। इसने अपनी रिपोर्ट भी सौंपी थी लेकिन इस रिपोर्ट को कभी नहीं खोला गया। इस रिपोर्ट में संभवतः पी ए सी के शामिल होने की बात थी।

मेरठ के इन नरसंहारों की पृष्ठभूमि को देखा जाये तो इससे एक साल पहले ही राजीव गांधी की केंद्र की सरकार ने बाबरी मस्जिद का ताला खोला था और रामजन्म भूमि आंदोलन तेज हो गया था। अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर के निर्माण की आवाज विश्व हिन्दू परिषद ने तेज कर दी थी जिसके कारण मुसलमानों में भी आक्रोश व भय का माहौल बन गया था। राज्य और केंद्र दोनों में कांग्रेस की सरकार थी। जब मेरठ में ये सांप्रदायिक दंगे और नरसंहार हुए उसी समय मेरठ और फतेहगढ़ की जेल में 12 मुसलमान कैदियों की हत्या कर दी गयी थी। एक जगह जब मुस्लिम इंस्पेक्टर ने पी ए सी के अधिकारियों द्वारा मुस्लिम कैदियों के साथ मारपीट का विरोध किया गया तो उसको भी जान से मारने की कोशिश की गयी। इस तरह देखा जाये तो देश के उत्तरी हिस्से में बाकायदा सांप्रदायिक तनाव का माहौल पैदा किया गया। राज्य मशीनरी में बैठे लोग हिंदू मानसिकता का ही पक्ष पोषण कर रहे थे।

फिलहाल मलयाना नरसंहार में मेरठ के सेशन कोर्ट के फैसले को इलाहाबाद कोर्ट में चुनौती दी जा रही है।

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