जूठन

भारतीय समाज में वैसे तो अनाज को ईश्वर का दर्जा मिला हुआ है। अनाज को लेकर समाज में दो तरह के विचार मौजूद हैं, पहला यह कि अनाज को बर्बाद करना पाप है और दूसरा कि बचा हुआ अनाज किसी पशु को देना पुण्य का काम है। अक्सर बचा हुआ अनाज पशु के आगे डाल दिया जाता है। ऐसा करने से एक तो लोग पाप करने से बच जाते हैं दूसरा पुण्य के भागीदार भी बन जाते हैं। मगर इससे इतर यह भी सच है कि बचा हुआ खाना जूठन कहलाता है, और यह बची हुई जूठन समाज में विशेष तरह से इंसानों के चरित्र निर्माण में खास भूमिका निभाती आई है जो पाप और पुण्य के विचार से कहीं ज्यादा मारक है, कहीं ज्यादा ताकतवर है।
    
गंगादीन के परिवार को सरकारी सूत मिल में काम करते हुए एक लंबा समय हो गया था। इसी दौरान 400 वर्ग फीट का आवास विकास कालोनी में घर भी ले लिया था। गंगादीन जब तक जीवित रहे जीवन सुखी था। परंतु जीवन कभी एक रंग में रंगा हुआ नहीं होता। अचानक हुए हृदयघात ने गंगादीन के जीवन का दिया बुझा दिया। घर में दो बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी अब माता के हिस्से आ गई। सूत मिल सरकारी थी तो वहीं आया की नौकरी भी मिल गई। परिवार यदि बहुत सम्पन्न नहीं था तो दरिद्र भी नहीं था। इसी दौरान बालिग होते-होते बड़े बेटे का विवाह भी हो गया था। जब तक सूत मिल सरकारी रही तब तक बड़े बेटे को भी सरकारी मिल में काम करने का सौभाग्य मिला, फिर सूत मिल बंद हो गई।
    
लोहे के पुर्जों को छीलने वाली 10 लेथ मशीनें लाइन से लगी हुई हैं। गंगादीन का बड़ा बेटा श्याम अब नई कंपनी में काम करने लगा है। बाकी मजदूरों के साथ वो भी रात की शिफ्ट में अपना काम खत्म कर सोया हुआ है। सिर्फ एक मजदूर जिसका थोड़ा सा काम रह गया है मशीन पर काम कर रहा है। अरे सोनू सो जा, पास में लेटे मजदूर ने आवाज दी। बस थोड़ा सा काम रह गया है, निपटाकर आता हूं। सोनू ने जवाब दिया। आज रात में मजदूरों की निगरानी के लिए राम सिंह फोरमैन की ड्यूटी लगी हुई है। जो खुद अपने आफिस में सोया हुआ है। तभी जिस मशीन में सोनू काम कर रहा है उसमें कुछ खराबी आ जाती है जिसे ठीक करने के लिए फोरमैन को जगाना जरूरी था। और इसी घटनाक्रम में सोनू और राम सिंह के बीच विवाद हो जाता है जिसकी परिणति अगले दिन के संघर्ष में हुई।
    
एक जैसी काम की परिस्थिति, लगभग समान वेतन, एक समान वेतन बढ़ोत्तरी, एक समान इंसेंटिव, समान प्रकृति का काम। ऐसा बहुत कुछ था जिसने इन मजदूरों को एकता के सूत्र में पिरो रखा था। इनके मध्य भाषा, क्षेत्र, रूप-रंग की भिन्नता जरूर थी लेकिन मन में कोई भेद न था कोई प्रतियोगिता न थी। सब के सब मेहनतकश कुनबे के लोग थे। फोरमैन का थप्पड़ बेशक सोनू के गाल पर पड़ा था लेकिन उस पीड़ा को न सिर्फ उन 9 बाकी मजदूरों ने महसूस किया जो रात के साथी थे, वरन अगली शिफ्ट के मजदूरों के दिलों में भी आहत होने के दर्द को महसूस किया जा सकता था। आहत स्वाभिमान अब अपनी बारी में विद्रोह को लालायित था, रात की खामोशी में जो गीदड़ चिल्ला रहा था यह समय उस कायर गीदड़ के मुंह में बारूद भरने का था। जब तक फोरमैन को सबक न सिखा दें कोई काम नहीं करेगा। ये पहला मौका था जब श्याम बिना किसी चुनाव के इस विद्रोही जमात का अगुवा था, सेनापति था। रात और सुबह की संयुक्त कार्यवाही विजय के उद्घोष के साथ खत्म हुई। लतियाया हुआ, दुत्कारा हुआ गीदड़ तिरस्कृत किया गया।
    
बहेलिया कोई प्राकृतिक शिकारी नहीं होता कि शिकार करना उसकी मजबूरी हो। उसके पुरखों ने उसे जानवरों की हरकतों के बारे में बताया होता है। उसके पुरखों का संयुक्त ज्ञान बहेलिए के लिए बड़ा हितकारी होता है। निरीह पशु बहेलिए की होशियारी से अनजान होते हैं। महज कुछ दानों के लालच में जाल में फंस जाते हैं और अपना जीवन गंवा बैठते हैं। फैक्टरी में दो तरह के लोग होते हैं। एक वह जो परिश्रम करते हैं, दूसरे वे जो शारीरिक श्रम नहीं करते। जिनकी एक महीने की मासिक आय श्याम जैसे मजदूरों के दो साल के कुल वेतन से भी ज्यादा होती है। ये लोग एसी कमरों में बैठकर फैक्टरी में घटने वाली हर घटना के बारे में मंथन कर सकते हैं। भविष्य के नायकों, विद्रोहों को सूंघने की काबिलियत इनके भीतर होती है। इन्हें श्रम नहीं करना पड़ता ताकि ये दिमाग चला सकें, सोच सकें अपने पुरखों के सिंचित ज्ञान के साथ। नए वी पी भी ऐसे ही लोगों में से एक थे। जो जर्मनी जैसे देश घूम कर आए थे। श्याम मेहनती था, पुराना, निडर और साहसी मजदूर था। मजदूरों की हर लामबंदी में उसकी भूमिका थी। एक भावी यूनियन लीडर के गुणों को नए वी पी ने परख लिया था।
    
एक आम मजदूर की सोचने-समझने की सामान्य सी सीमाएं होती हैं। उसके पास जीवन को बेहतर बनाने के लिए सिर्फ वार्षिक वेतन वृद्धि की आस ही होती है। वो ताउम्र इसी बात का हिसाब लगाता रह जाता है कि उसने कितने मासिक में कंपनी ज्वाइन की थी और आज उसकी तनख्वाह कितनी है। मुड़े हुए 200 रुपए को श्याम के हाथ में चुपके से पकड़ाते हुए वी पी ने श्याम से कहा, मैं तेरे काम से बहुत खुश हूं, ऐसे ही मन लगाकर काम कर। मैं चाहता हूं तू आगे बढ़े, ये रख शाम को बीयर पी लेना। तेरा इंक्रीमेंट बाकी मजदूरों से 500 रुपए ज्यादा करूंगा। 
    
फैक्टरी में वेतन बढ़ोत्तरी का समय चल रहा है। 200 रुपए वाली घटना को बीते हुए कई साल हो चुके हैं, अब इस फैक्टरी में सिर्फ सुगबुगाहट होती है। पुराने वीपी जा चुके हैं लेकिन मुड़े हुए 200 रुपए पाने वाले कुछ नए हाथ बढ़ गए हैं। एक थप्पड़ पर खड़ा होने वाला विद्रोह अब अतीत की सुखद कहानी बन चुकी है। अब यहां मृत्यु पर सिर्फ मातमी खामोशी रहती है जो तत्काल मशीनों के शोर में गुम हो जाती है। अतीत के नायकों ने अब मुखबिरों का किरदार निभाना सीख लिया है। इस बार वेतन बढ़ोत्तरी 2 साल में हुई है, साधारण मजदूरों के भीतर कुल 1000 रुपए वेतन बढ़ोत्तरी की पीड़ा है। वो आस भरी निगाहों से पुराने मजदूरों की तरफ देखते हैं कि कहीं से विद्रोह का शंखनाद हो। तेरे 4000 रुपए बढ़ा दिए हैं और मोहन के 2500। एसी कमरे में खड़े श्याम को नए मैनेजर ने बताया। ऐसे ही मेहनत से काम कर। देखना कहां तक तरक्की होती है तेरी। गदगद भाव से श्याम ने नए मैनेजर की तरफ देखा। तश्तरी में थोड़ी नमकीन बची हुई है। प्लेट को श्याम के हाथ में खाली करते हुए मैनेजर ने कहा, ‘‘ले ये नमकीन खा ले, बच गई है!“ 
        

-आफताब, भारतीय
 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।