मैं और मेरा दस लखिया सूट

    खाकी नेकर, सफेद कमीज और लाठी को अपनी वेशभूषा बनाकर नौजवानों को सादगी और देशभक्ति का पाठ पढ़ाने वाले संघ के नंबर एक स्वयंसेवक, जो गर्व से स्वयं को पूंजीपतियों का प्रधान सेवक कहते हैं, ने सारे देश के सामने अपनी सादगी का एक ऐसा नमूना पेश किया है जो लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है। सादगी का यह नमूना है उनका दस लाख रुपये का सूट जो उन्होंने बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान पहना हुआ था। <br />
    इस सूट के प्रदर्शन के अगले दिन यह खबर फैली कि सूट में दूर से नजर आने वाली सफेद धारी असल में धारी नहीं थी बल्कि वह अंगे्रजी अक्षरों में <span style="font-size: 13px; line-height: 20.7999992370605px;">नरेंद्र</span> मोदी का पूरा नाम था। बारीक अक्षर एक के नीचे एक होने के कारण दूर से सफेद धारी का भ्रम पैदा कर रहे थे। यह भी खबर आई कि इस तरह के कपड़े का निर्माण दुनिया की एक ही कंपनी विशेष आदेश पर करती है और इससे बने सूट की कीमत दस लाख रुपये होगी। <br />
    अब सवाल यह नहीं है कि <span style="font-size: 13px; line-height: 20.7999992370605px;">नरेंद्र</span> मोदी ने यह सूट अपने पैसे से बनवाया या सरकारी पैसे से बना। अथवा कि यह उन्हें संघ परिवार ने भेंट किया या अंबानी-अदानी प्रजाति के किसी जीव ने। सवाल यह है कि यह भूतपूर्व संघी स्वयंसेवक, जो अपनी इस उत्पत्ति को लगातार रेखांकित करता रहता है, वह इस सूट में क्या देखता है जो वह इसकी नुमाइश करता है?<br />
    मनोवैज्ञानिक किस्म के लोग इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने में लगे हैं। वे इसे मोदी की भयंकर ‘स्वपूजा’ का परिणाम बता रहे हैं। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि यह उस हीनभावना से उपजता है जो उनकी पृष्ठभूमि के कारण उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है और जिसे वे गा-गाकर सबको सुनाते रहे हैं। यह बराक ओबामा जैसे दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के सामने थोड़ा बराबरी महसूस करने की आकांक्षा के तौर पर देखा जा रहा है। संक्षेप में यह कि यह एक नौदौलतिये की भदेश छटपटाहट है। <br />
    व्यक्तिगत तौर पर ऐसा कुछ भी हो सकता है। पर व्यक्तिगत मनोगत विज्ञान से अलग इस दस लखिये सूट का क्या राजनीतिक मतलब है? यह मोदी और मोदी सरकार की किस राजनीतिक दिशा की ओर संकेत करता है?<br />
    नरेंद्र मोदी अपनी विशेषताओं को गिनाते हुए यह भी कहते हैं कि वे ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जो आजादी के बाद पैदा हुए हैं। यह सच भी है लेकिन इसका एक ऐसा अर्थ भी है जो मोदी कभी नहीं बताना चाहेंगे। <br />
    अभी तक के प्रधानमंत्रियों की विशेषता थी कि वे पूंजीपति वर्ग की सेवा करते हुए भी यह जताने में ऐड़ी-चोटी एक कर देते थे कि उनकी सरकार देश के गरीबों की सरकार है। नेहरू ने खुद को समाजवादी बताया तो इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दे दिया। वाजपेयी ने 1980 में भाजपा बनते समय उसके संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को पार्टी का लक्ष्य घोषित करवा दिया जो अभी भी भाजपा संविधान की शोभा बढ़ा रहा है भले ही आज भाजपाई नेता भारत के संविधान से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के शब्द को निकलवाने की बहस चला रहे हों। नरसिंहराव और मनमोहन सिंह ने मध्यम वर्ग की बात तो की पर वे उसी सांस में गरीबों की भी बात करते रहे। <br />
    अब मोदी जैसे नेता स्वयं को इस बंधन से मुक्त मानते हैं। मोदी खुलेआम पूंजीपतियों की संगत में देखे जाते हैं और वे इसे अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित करते हैं। अंबानी-अदानी से सांठ-गांठ के आरोप पर न तो वे पीछे हटते हैं और न ही कोई सफाई देते हैं। बल्कि पूरी बेशर्मी के साथ वे भारतीय स्टेट बैंक के चैयरमैन को सामने बैठाकर अदानी को बासठ सौ करोड़ रुपये का कर्ज भी दिला देते हैं। <br />
    याराना पूंजीवाद को आगे बढ़ाते हुए पूंजीपतियों का यह यार इस पर शर्मसार नहीं है। बल्कि वह अपनी इस यारी पर इतराता है और पूरी शान के साथ उस मध्यम वर्ग में इसे अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित करता है जो स्वयं भी पूंजीपतियों से इस यारी के सपने देखता है। मध्यम वर्ग के इस सपने को मोदी स्वयं में फलीभूत होते दिखाते हैं और उसमें यह उम्मीद जताते हैं कि उनमें से भी कोई अंबानी-अदानी के बगलगीर हो सकता है। मध्यम वर्ग इस हसीन सपने पर पुलकित होता है और इसीलिए मोदी के दस लखिया सूट पर नाक-भौं सिकोड़ने के बदले वह उसे हसरत भरी नजरों से देखता है। मोदी ने तो उसकी उपभोक्तावादी आकांक्षाओं को ही चरम पर पहुंचाया होता है। <br />
    रही मजदूर-मेहनतकश जनता तो वह जाये भाड़ में। उसको मिलने वाली सरकरी राहत में हर संभव तरीके से कटौती की जानी चाहिए जिससे अपने आका पूंजीपति वर्ग के मुनाफे को बढ़ाकर उसे और खुश किया जा सके। 

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