साम्प्रदायिक हिंसा बढ़ाकर चुनावी नुकसान की भरपाई करते संघी

जब मोदी सरकार फिर से सत्ता में आयी तो यह पूर्व की भांति भाजपा के एकछत्र बहुमत वाली सरकार नहीं थी। एनडीए गठबंधन के सहयोगियों के कंधों पर टिकी इस सरकार से तमाम लोगों को उम्मीद थी कि अब यह पूर्व की भांति हिन्दुत्व के एजेण्डे पर तेज गति से नहीं बढ़ेगी। पर संघ-भाजपा के बीते 1 माह के कारनामों ने दिखाया है कि संघ-भाजपा मण्डली आसानी से अपना एजेण्डा नहीं छोड़ेगी। 
    
साम्प्रदायिकता संघ-भाजपा का समाज में स्थापित होने के मामले में मुख्य मुद्दा रहा है। अब चुनावों में घटे मत प्रतिशत से इस मण्डली ने यही सबक निकाला है कि लोगों को अपने पाले में लाने के लिए उसे बढ़ चढ़कर साम्प्रदायिकता का सहारा लेना होगा। चुनाव के नतीजे आने के तुरंत बाद संघी लंपट मण्डली देश में जगह-जगह साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने के अभियान में जुट गयी है। कहने की बात नहीं कि मुस्लिम इनके निशाने पर हैं। 
    
7 जून को छत्तीसगढ़ के रायपुर में गौरक्षकों ने तीन मुस्लिम युवकों को पीट पीट कर तब मार डाला जब वे एक ट्रक में भैंसों को उ.प्र. से उड़ीसा ले जा रहे थे। इनमें दो युवकों की घटनास्थल पर ही मौत हो गयी व एक ने अस्पताल में दम तोड़ दिया। 
    
उ.प्र. के अलीगढ़ में एक मुस्लिम व्यक्ति को चोरी का आरोप लगाकर भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला। कुछ लोगों ने उक्त व्यक्ति को एक कपड़ा व्यापारी के घर से बाहर निकलते देखा व चोरी की अफवाह फैला भीड़ एकत्र कर व्यक्ति को पीट-पीट कर मार डाला। 
    
हिमाचल प्रदेश में एक रेहड़ी लगाने वाले मुस्लिम विक्रेता से बजरंग दल व विहिप के लंपटों ने न केवल मारपीट की बल्कि उससे पैसे लूट उससे जबरन जय श्री राम भी बुलवाया। पुलिस ने पीड़ित व्यक्ति की एफ आई आर तक दर्ज नहीं की। 
    
तेलंगाना में बकरीद के मौके पर एक हिन्दूवादी संगठन के सदस्यों ने मदरसे के लोगों द्वारा मवेशी खरीदने पर मदरसे पर हमला बोल कई मुस्लिम लोगों को घायल कर दिया। जब घायलों को अस्पताल में भर्ती कराया गया तो भीड़ ने अस्पताल पर भी पथराव कर दिया। 
    
म.प्र. में पुलिस ने 11 लोगों के घरों में गौमांस मिलने का आरोप लगा कर सभी लोगों के घरों को बुलडोजर से जमींदोज कर दिया। 
    
हिमाचल में 19 जून को बकरीद की पशु बलि की तस्वीर व्हाट्सएप पर पोस्ट करने का आरोप लगा हिन्दूवादी भीड़ ने मुस्लिम कपड़े की दुकान पर हमला बोल दिया। पुलिस की मौजूदगी में भीड़ ने दुकान में तोड़-फोड़ व लूटपाट की। भीड़ जय श्रीराम के नारे लगाते हुए यह लूटपाट कर रही थी। 
    
प.बंगाल में 17 जून को ईद के दिन बीरहूम जिले के एक गांव में एक मुस्लिम युवक पर मंदिर के पास मांस फेंकने का आरोप लगा भीड़ ने खंभे से बांध बेरहमी से पीटा। 
    
चुनाव उपरान्त घटित होती उपरोक्त घटनायें बताती हैं कि संघी लम्पट वाहिनी समाज को साम्प्रदायिक हिंसा के आगोश में ढकेलने के लिए देश के हर कोने में सक्रिय हो उठी है। चुनाव में अपने घटते आधार से संघी वाहिनी बौखला उठी है। उसे साम्प्रदायिक हिंसा की नयी लहर से फिर से अपना खोया आधार वापस पाने की उम्मीद है। 
    
बीते 2-3 दशकों में इस लम्पट वाहिनी ने समाज में मुस्लिमों के खिलाफ नफरत की जो आंधी फैलायी है उसने बड़ी आबादी को प्रभावित किया है। समाज में बहुसंख्यक आबादी में मुस्लिम विरोधी भावना गहरे तक पैठ चुकी है। ऐसे में भाजपा को वोट न देने वाली आबादी का एक बड़ा हिस्सा भी दरअसल साम्प्रदायिकता के मसले पर भाजपा के ही साथ खड़ा है। इस हिस्से को फिर से अपने पाले में लाने के लिए ही संघी लम्पट यह हिंसक अभियान छेड़े हुए हैं। 
    
समाज में कायम इस साम्प्रदायिक भावना के लिए संघ-भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल कम जिम्मेदार नहीं हैं। अपने चुनावी लाभ के लिए ये न केवल ऐसी घटनाओं के वक्त चुप्पी साध लेते रहे हैं बल्कि ढेरों दफा तो खुद को मोदी-योगी से बड़ा हिन्दू साबित करने के अभियान में जुट जाते रहे हैं। राहुल गांधी मंदिरों का चक्कर काटते नजर आते हैं। स्पष्ट है कि बीते दशक भर के संघी शासन में समूची भारतीय पूंजीवादी राजनीति ही दक्षिणपंथ की ओर ढुलकती गयी है। 
    
संसद में संविधान की पुस्तक के साथ तस्वीरें खिंचवाने में तो विपक्षी इंडिया गठबंधन व्यस्त रहा पर उसने भूलकर एक बार भी मुस्लिमों के प्रति बढ़ती हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश तक नहीं की। 
    
यह सब दिखलाता है कि संघ-भाजपा द्वारा बोये जा रहे साम्प्रदायिक जहर का मुकाबला संविधान के कसीदे पढ़ने वाले विपक्षी नहीं कर सकते। इसका मुकाबला तो वास्तविक धर्मनिरपेक्षता की जमीन पर खड़ी हिन्दू-मुस्लिम मेहनतकश जनता ही कर सकती है। 

आलेख

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को

/philistini-pratirodha-sangharsh-ek-saal-baada

7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक

/bhaarat-men-punjipati-aur-varn-vyavasthaa

अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।