मोदी सरकार ने अगस्त, 2023 के संसद सत्र में आपराधिक कानूनों से संदर्भित तीन विधेयकों को पास किया था। गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में इन विधेयकों को पास कराते समय बोला था कि इन संहिताओं से गुलामी के पुराने चिह्न मिट जाएंगे तथा इन संहिताओं को लाने का मकसद लोगों को न्याय दिलाना है। यह तीनों विधेयक अब कानून बनकर 1 जुलाई 2024 से लागू हो चुके हैं। अब 1 जुलाई 2024 से भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम पुराने कानूनों की जगह ले चुके हैं।
मोदी सरकार ने इसी तरह मजदूरों के 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को खत्म कर चार श्रम संहिताओं में समेटकर मजदूर वर्ग पर बहुत बड़ा हमला बोला था। वर्ष 2019 में वेतन संहिता व वर्ष 2020 में औद्योगिक संबंध संहिता, 2020, व्यावसायिक संरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य दशा संबंधी संहिता, 2020 एवं सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 पारित हो कानून बन चुके हैं। लेकिन मोदी सरकार सीधे-सीधे इन्हें लागू करने के बजाय फैक्टरी मालिकों को छिपे तौर पर लागू करने की मंजूरी दे चुकी है। फैक्टरी मालिक छिपे तौर पर इन श्रम संहिताओं को लागू कर स्थाई नौकरियों की छंटनी करने पर आमादा हैं। इन श्रम संहिताओं के लागू होते ही मजदूरों को काफी पीछे धकेल दिया जाएगा। इन श्रम संहिताओं में मजदूर हड़तालों पर प्रतिबंध लगाने से लेकर, जुर्माने व जेल तक के प्रावधान शामिल किए गए हैं। यहां तक कि मजदूरों की हड़ताल का मौखिक व आर्थिक समर्थन करने वाले व्यक्ति या संगठन पर भी जुर्माने या जेल तक के प्रावधान शामिल किए गए हैं। सीधे-सीधे यह श्रम संहिताएं मजदूरों को संगठनबद्ध होने से रोकने व ट्रेड यूनियन का अपराधिकरण करने की साजिश हैं।
ये दोनों मामले आपस में जुड़े हुए मामले हैं। इन दोनों मामलों को हमें जोड़ कर देखना चाहिए। उदारीकरण के पिछले तीन-चार दशक के इतिहास को देखने पर पता चलता है कि मोदी सरकार ने उदारीकरण की पूंजीपरस्त नीतियों को अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है। मोदी सरकार एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की सेवा में इस कदर लीन है कि निजी क्षेत्र से लेकर सार्वजनिक क्षेत्रों में मजदूरों की स्थाई नौकरियों पर बुलडोजर चलाया जा रहा है। श्रम संहितायें लाकर पूंजीपति वर्ग को ‘‘रखो या निकालो’’ की खुली छूट दे दी गई है, वहीं दूसरी ओर सार्वजनिक उद्यमों को कौड़ियों के भाव पूंजीपति वर्ग को बेचा जा रहा है तथा बचे-खुचे उद्यमों में ठेकाकरण की प्रक्रिया को तेज किया जा रहा है।
मोदी सरकार द्वारा तेजी से लागू की जा रही इन पूंजीपरस्त नीतियों का ही परिणाम है कि आज बेरोजगारी अपनी चरम पर है। स्थिति इतनी ज्यादा भयावह हो चुकी है कि ठेका मजदूरों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम वेतन तक नहीं दिया जा रहा है। पूंजीपति वर्ग के हौंसले इतने बुलंद हो चुके हैं कि वह फैक्टरियों में श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। स्थाई कार्य पर ठेके व नीम ट्रेनी मजदूरों से बड़े पैमाने पर उत्पादन कार्य कराया जा रहा है। सुरक्षा मापदंडों को ताक पर रखे जाने के चलते आए दिन मजदूरों को कीड़े-मकौड़ों की तरह फैक्टरियों में दुर्घटनाओं का शिकार होना पड़ रहा है।
मजदूरों-मेहनतकशों की स्थिति बहुत दयनीय हो चुकी है। महंगाई-बेरोजगारी-भुखमरी अपनी चरम सीमा पार कर चुकी है। मोदी सरकार भली-भांति जानती है कि उदारीकरण-निजीकरण की जिन पूंजीपरस्त नीतियों को वह तेजी से लागू कर रही है, उससे वह मजदूर-मेहनतकश जनता की कमर तोड़, उसे अपने खिलाफ खड़ा कर रही है। इन पूंजीपरस्त नीतियों से मजदूर वर्ग से लेकर हर तबके के लोगों के अंदर गुस्सा पनप रहा है। इसलिए वह अपने तंत्र को मजबूत करने के लिए तीन नए आपराधिक कानूनों को ‘दण्ड की जगह न्याय’ का नाम देकर लेकर आए हैं। ये नए आपराधिक कानून इस पूंजीवादी व्यवस्था को मजबूत करने के साथ-साथ जनता के जनांदोलनों को शीघ्रता से कुचलने का काम करेंगे। असल में मोदी सरकार ने नए आपराधिक कानूनों में पुलिस को ज्यादा शक्तियां देकर, जन संघर्षों को तत्काल कुचलने के लिए यह सब किया है। मोदी सरकार ने किसान आंदोलन से यह सबक जरूर निकाला होगा कि इतना बड़ा आदोलन नहीं खड़ा हो पाता अगर इसको स्थानीय स्तर पर कुचल दिया जाता।
मोदी सरकार द्वारा लागू किए गए इन तीन आपराधिक कानूनों ने पुलिस को ज्यादा शक्तियां दे दी हैं। यहां तक कि जन आंदोलनों को कुचलने के लिए उसे आतंकवाद से जोड़ना व पुलिस द्वारा आतंकवाद की धाराओं में संगठनों व व्यक्तियों पर कार्यवाही करने के अधिकार देना, यह भविष्य में उठने वाले जनांदोलनों की सुगबुगाहट के कारण ही है। जिस तरह से मजदूर-मेहनतकश जनता को उदारीकरण-निजीकरण की पूंजीपरस्त नीतियों की चक्की में पीस कर उसका शोषण किया जा रहा है, उससे यह साफ है कि मजदूर-मेहनतकश जनता के जनांदोलनों की सुगबुगाहट मोदी सरकार को दिखाई देने लगी है। इससे पहले भी मोदी सरकार UAPA लगाकर दर्जनों सामाजिक कार्यकर्ताओं को आतंकवादी गतिविधियों में घसीट चुकी है। इसलिए भारतीय राजसत्ता जनता के आक्रोश को स्थानीय स्तर पर ही कुचलने की तैयारी करती नजर आ रही है।
दुनिया के स्तर पर मजदूरों-मेहनतकशों के संघर्ष फूट कर विद्रोह का रूप ले ले रहे हैं। पिछले वर्ष श्रीलंका में एक बड़ा विद्रोह जनता में फूटा था। और लाखों-लाख जनता श्रीलंका सरकार की मजदूरों-मेहनतकशों के खिलाफ नीतियों के विरोध में सड़कों पर उतर आई थी तथा राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया था।
हाल-फिलहाल केन्या की मजदूर-मेहनतकश जनता करों की वृद्धि के खिलाफ सड़कों पर है। केन्या की जनता ने तो इससे भी आगे बढ़कर संसद के एक हिस्से में आग तक लगा दी थी। दुनिया भर में शासकों की नीतियों के खिलाफ जनता में आक्रोश पैदा हो रहा है। देश-दुनिया में उठ रहे मजदूरों-मेहनतकशों के आंदोलन इशारा कर रहे हैं कि मजदूर-मेहनतकश जनता की संगठित ताकत शासक वर्ग के कड़े से कड़े कानूनों को उखाड़ फेंकने के लिए अपनी तैयारी कर रही है।
तीन नए आपराधिक कानूनः मजदूरों-मेहनतकशों के संघर्षों को रोकने की कवायद
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।