बांग्लादेश में आरक्षण विरोधी आंदोलन

200 से अधिक लोगों की मौत

बांग्लादेश में आरक्षण विरोधी आंदोलन यूनिवर्सिटी और कालेज की सीमाओं को लांघकर सड़क पर आ चुका है। इस आंदोलन में अब तक 200 लोगों (बड़ी संख्या छात्रों की) की मौत हो चुकी है और हजार से अधिक लोग घायल हो चुके हैं। अधिकारियों ने बताया कि 300 से अधिक पुलिसकर्मी घायल हुए हैं।
    
निरन्तर फैल रहे आन्दोलन का सरकार और अधिक दमन करने की तरफ बढ़ रही है। सरकार द्वारा पहले पूरे देश में कर्फ्यू लगा दिया गया। राजधानी में सेना को लगा दिया गया। 
    
पूरे देश में इंटरनेट सेवाएं बन्द कर दी गयीं। समाचार चैनलों का काम भी बुरी तरह से प्रभावित हो गया है। विदेशों में रहने वाले बांग्लादेशी प्रवासी मजदूर अपने परिवारजनों का हाल नहीं ले पा रहे हैं।
    
आंदोलनरत छात्र आरक्षण कोटा में मौजूद विसंगतियों को दूर करने की मांग कर रहे हैं और मांगें न माने जाने तक आंदोलन तेज करने की बात कह रहे हैं।
    
दरअसल मामला 30 प्रतिशत उस आरक्षण कोटे का है जो उन लोगों के परिवार और सम्बन्धियों को मिलता है जो 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश की आजादी के आंदोलन के दौरान मारे गये थे। 1971 में आजादी के बाद बांग्लादेश के तब के प्रधानमंत्री शेख मुजीबर रहमान ने 1972 में यह कोटा लागू किया था। 
    
इसके अलावा महिलाओं को 10 प्रतिशत, 10 प्रतिशत जिला कोटा (पिछड़े जिले के छात्रों को), 5 प्रतिशत इथनिक (नृजातीय) समूह को और 1 प्रतिशत विकलांग लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। इस तरह 56 प्रतिशत आरक्षण लागू है और शेष 44 प्रतिशत अन्य के लिए बचता है।
    
आंदोलनरत छात्रों को आपत्ति है उस 30 प्रतिशत आरक्षण पर जो 1971 के युद्ध में मारे गये सगे-सम्बन्धियों को मिलता है। वे इसी आरक्षण को खत्म करने की मांग कर रहे हैं। 
    
दरअसल इस आरक्षण को 2018 में उस समय ख़त्म कर दिया गया था जब इसके खिलाफ आंदोलन चला था। लेकिन इस साल 5 जून को हाईकोर्ट ने इसे पुनः लागू करने का आदेश दे दिया। तभी से छात्रों का आंदोलन शुरू हो गया। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस आदेश पर रोक लगा दी और छात्रों को वापिस क्लास में जाने को कहा लेकिन छात्र जब तक समस्या का पूर्ण हल नहीं निकलता तब तक जाने को तैयार नहीं थे। सुप्रीम कोर्ट ने नयी आरक्षण व्यवस्था के तहत 7 प्रतिशत आरक्षण (5 प्रतिशत स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों हेतु व 2 प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यक व विकलांग श्रेणी हेतु) की व्यवस्था दी है।
     
15 जुलाई से यह आंदोलन हिंसक हो गया। बांग्लादेश छात्र लीग जो कि वर्तमान में सरकार में मौजूद पार्टी (आवामी लीग) की छात्र शाखा है, ने आंदोलनरत छात्रों पर पुलिस की सहायता से हमला किया। पुलिस ने लाठी-डंडों से आंदोलनरत छात्रों को पीटा और उन पर रबर बुलेट की गोलियां दागीं। 
    
वर्तमान में बांग्लादेश में आवामी लीग से शेख हसीना की सरकार है जो शेख मुजीबर रहमान की बेटी हैं। ये पिछले चार बार से लगातार सत्ता में हैं। इनका जोर इस बात में था कि 30 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था को फिर से लागू किया जाये। इसको इन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया है ‘‘क्या 30 प्रतिशत आरक्षण उन लोगों के परिवारवालों को नहीं मिलना चाहिए जिन लोगों ने अपने परिवार, बच्चों और माता-पिता की परवाह न करते हुए आजादी की लड़ाई में बलिदान किया। या उन लोगों (रजाकारों) को मिलना चाहिए जिन्होंने पाकिस्तान का साथ दिया।’’ 
    
रजाकार शब्द का अर्थ गद्दार है और ये उन लोगों के लिए प्रयोग किया जाता है जिन्होंने आजादी के लिए लड़ने वाले लोगों के खिलाफ गद्दारी कर पाकिस्तान का साथ दिया था। यह बांग्लादेश में एक गाली की तरह प्रयोग किया जाता है। शेख हसीना के द्वारा आंदोलनरत छात्रों के लिए रजाकार शब्द के प्रयोग ने आंदोलनरत छात्रों को और भड़का दिया है। हालांकि बाद में दबाव में सरकार को पीछे हटना पड़ा और शेख हसीना को आरक्षण खात्मे का वायदा करना पड़ा। बाद में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के जरिये इसे 7 प्रतिशत पर सीमित किया गया। बाद में जीत के बाद छात्रों ने संघर्ष वापस ले लिया था पर सरकार आंदोलनकारी छात्रों की धरपकड़ में लग गयी। छात्र नेताओं की गिरफ्तारी से आंदोलन ने फिर हिंसक रूप ले लिया। सरकार नेताओं को रिहा करने को तैयार नहीं है और छात्र संगठन नेताओं की रिहाई तक संघर्ष चलाने की मांग कर रहे हैं। 
    
इस संघर्ष में स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों के आरक्षण के खात्मे की मांग प्रमुख थी व प्रदर्शनकारी समस्त आरक्षण 5 प्रतिशत तक सीमित करने की मांग कर रहे थे। यह दिखलाता है कि प्रदर्शनकारी छात्र महिला-नृजातीय समूह या अन्य वंचितों समूहों को मिलने वाले आरक्षण को भी सीमित करना चाहते थे। इस तरह प्रदर्शनरत समूह वंचित समूह-तबकों के लिए भी आरक्षण को सकारात्मक ढंग से पूर्णतया नहीं ले रहे थे। यह इस संघर्ष का नकारात्मक पहलू था। 
    
आज बांग्लादेश में आरक्षण को लेकर जो हंगामा खड़ा हुआ है वह समाज में रोजगार के संकट को दिखाता है। उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों ने लगातार स्थायी रोजगार पर हमला बोला है। सरकारी विभागों में भी स्थायी नौकरियां नाम मात्र की बची हैं। जो बची हैं उनके लिए गलाकाटू प्रतियोगिता है। ऐसे में आरक्षण व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के बजाय उक्त नीतियों के खात्मे और नये रोजगार हेतु संघर्ष जरूरी है। बांग्लादेश की हसीना सरकार इस मौके पर भी फूट डालो राज करो की नीति पर चल रही है।
    
बेरोजगारी और खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के कारणों से उपजे छात्रों के आंदोलन को यह खून में डुबोकर खत्म करना चाह रही है। फिलहाल आंदोलन और उसका दमन दोनों जारी है।

आलेख

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को

/philistini-pratirodha-sangharsh-ek-saal-baada

7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक

/bhaarat-men-punjipati-aur-varn-vyavasthaa

अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।