चन्दन विष व्यापत नहीं...

    पूंजीवादी राजनीति में यह आम चलन है कि खुद को चन्दन और दूसरों को भुजंग बताया जाये। लेकिन मामला तब रोचक हो जाता है जब चन्दन के भुजंग से लिपटने की बात आती है।<br />
    चन्दन और भुजंग का यह प्रसंग अपने ताजे रूप में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने छेड़ा जो पूंजीवादी प्रचारतंत्र की कृपा से ईमानदार व्यक्ति माने जाते हैं। पूंजीवादी प्रचारतंत्र से प्रभावित एक व्यक्ति ने नीतिश कुमार से ट्विटर पर पूछ लिया कि आप लालू प्रसाद यादव जैसे भ्रष्ट व्यक्ति के साथ कैसे गठजोड़ में आ गये? इस पर नीतिश कुमार ने रहीम का वह दोहा जड़ दिया जिसकी दूसरी पंक्ति इस प्रकार हैः ‘‘चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग’’। रहीम ने तो यह दोहा संतों के लिए कहा था पर नीतिश कुमार ने मान लिया कि यह उन पर भी लागू होता है। हो सकता है कि वे खुद को भारत की पतित पूंजीवादी राजनीति का संत मानते हों। पूंजीवादी प्रचारतंत्र की कृपा से उन्हें भी स्वयं के संत होेने का गुमान हो गया हो।<br />
    जो भी हो, नितीश कुमार चाहे खुद को संत मानें या न मानें, इस दोहे से लालू प्रसाद जरूर भुजंग यानी काला नाग बन गये। इससे कुछ न कुछ बवाल मचना ही था और मचा। ऐसे में लालू और नीतिश दोनों एक दूसरे के बचाव में उतर आये। नीतिश ने बताया कि उन्होंने भुजंग शब्द का प्रयोग भाजपा के लिए किया था जिसके साथ सत्रह सालों तक गठबंधन में रहने के बावजूद उसके साम्प्रदायिकता के जहर का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। <br />
    नितीश कुमार ने चाहे-अनचाहे उन पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों का बहुत भला किया जो अतीत या वर्तमान में भाजपा के संगी-सहयोगी होने के बावजूद स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहते रहे हैं। इसमें मायावती, ममता से लेकर जयललिता और करूणा निधि तक शामिल हैं। वे सभी दावा कर सकते हैं कि भाजपा जैसे साम्प्रदायिक काले नाग की साम्प्रदायिकता का जहर उन्हें जरा भी प्रभावित नहीं कर पाया है। इस सूत्र को हासिल कर मुलायम सिंह भी नरेन्द्र मोदी के बगलगीर हो सकते हैं। सुषमा स्वराज के इस्तीफे के मामले में उन्होंने इसके कुछ संकेत भी दिये हैं। <br />
    पतित पूंजीवादी राजनीति के इस जमाने में जहर केवल साम्प्रदायिकता का नहीं है। जहर भ्रष्टाचार का भी है। मूलतः नितीश कुमार ने भुजंग की बात लालू के भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में ही कही थी। अब इस स्वर्णिम सूत्र को हासिल कर लेने के बाद ‘ईमानदार’ और ‘बेईमान’ दिल खोलकर एक-दूसरे से लिपट सकते हैं। वैसे ‘ईमानदारी’ के पुतले केजरीवाल एण्ड कम्पनी ने ‘बेईमानी’ के प्रतीक कांग्रेस के साथ मिलकर डेढ़ साल पहले दिल्ली में सरकार बनाई थी। उस कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर जिसके खिलाफ उन्होंने उसके पहले तीन साल से भ्रष्टाचार विरोधी अभियान छेड़ रखा था। वैसे केजरीवाल एण्ड कंपनी कह सकते हैं कि उन्होंने भुजंग को न्यौता नहीं दिया बल्कि वह स्वयं ही आकर उनसे लिपट गया। आखिर चंदन तो भुजंग के पास नहीं जाता। पर भुजंग के इस लिपटने का यह परिणाम निकला कि चंदन सत्ता में पहुंच गया। पूंजीवादी राजनीति में छल-बल किसी भी तरह से सत्ता हासिल करना भ्रष्टाचार नहीं माना जाता। इसीलिए यदि चन्दन भुजंग से लिपट कर सत्ता तक पहुंचता है तो इसे भुजंग का प्रभाव हरगिज नहीं माना जाना चाहिए।<br />
    भारत की पूंजीवादी राजनीति में चन्दन और भुजंग के और भी किस्से हैं। एक किस्सा सरकारी कम्युनिस्टों का भी है। कभी ये मानते थे कि पूंजीवादी संसदीय व्यवस्था भुजंग है जो मजदूर-मेहनतकश जनता को अपनी कुण्डली में लपेट कर बैठा हुआ है। मजदूर-मेहनतकश जनता को इसके पाश से मुक्त करने के बदले ये कम्युनिस्ट जाकर स्वयं भुजंग से लिपट गये और सरकारी कम्युनिस्टों में तब्दील हो गये। ये अब भी कहते हैं कि भुजंग का इन पर कोई असर नहीं हुआ है। यह तो मरदूद जनता ही है कि भुजंग के पाश से बाहर नहीं आना चाहती। मजबूरी में वे भी भुजंग से लिपटे हुए हैं। यदि जनता स्वयं को इस भुजंग से मुक्त कर ले तो वे भी भुजंग से लिपटना बंद कर देंगे। <br />
    इन्हें यह नहीं पता कि मजदूर-मेहनतकश जनता अपने अनुभव से समझ चुकी है कि इनमें भुजंग का विष पूरी तरह व्याप्त हो चुका है और वक्त आने पर इनके साथ भी वह वही व्यवहार करेगी जो भुजंग के साथ। 

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