
मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के किसानों के विद्रोह ने भारत के शासकों को दिन में तारे दिखा दिये। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के अहंकारी मुख्यमंत्री एकदम सीधे हो गये। एक तो अपने सिंहासन से जमीन पर बैठ गया तो दूसरा घोषणा करने लगा कि किसानों के सारे कर्ज माफ। <br />
ये अच्छा हुआ कि किसानों ने आत्महत्या के बजाय संघर्ष की राह चुनी। ये अच्छा हुआ कि उन्होंने शासकों की मीठी बातों में आने से इंकार कर दिया। ये अच्छा हुआ कि उन्होंने शासकों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया। ये अच्छा हुआ कि बहुत उपदेश झाड़ने वालों, बहुत जिद करने वाले एक महाशय की बोलती बंद करा दी। ये अच्छा हुआ कि रात-दिन राग दरबारी गाने वाले किसानों के दुःख, तकलीफ और संघर्ष की बात करने लगे। और ये अच्छा हुआ कि पूरे देश से मालवा के किसानों के संघर्ष और बलिदान को सराहा गया और मजदूरों, किसानों ने उनके समर्थन में जुलूस, प्रदर्शन किये। <br />
पचास साल पहले बिल्कुल अन्जान जगह से किसानों का विद्रोह शुरू हुआ और उसके पचास साल बाद ऐसी जगह से किसानों का विद्रोह फूटा जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। मालवा ने नक्सलबाड़ी को अच्छी सलामी दी। <br />
भारत के शासकों की यह खास बात है कि ये सिर्फ बोलते हैं सुनते नहीं। शिवराज सिंह चौहान भी ऐसे ही हैं। किसानों की आवाज उन्होंने नहीं सुनी। जब किसान सड़कों पर उतर आये तो धमकाने लगे कि ‘‘मैं भी किसान हूं’’। यही हाल महाराष्ट्र के फड़नवीस का है। और यही हाल योगी और मोदी का है। चुनाव के समय वायदे करो बाद में कह दो वह चुनावी जुमला था। कई किसानों के कत्ल के बाद एक भेड़िया भेड़ बनकर उपवास करने लगा। मानो उसके उपवास से किसान उसे माफ कर फिर से चुनाव जीतने में मदद करने लगेंगे। उपवास की रात इस भेड़िये ने स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट पढ़ी जिसे प्रकाशित हुए सालों हो गये हैं। <br />
भारत के किसान बुरे हाल में हैं। वे कैसे इस बात को कहें। कैसे अपनी पीड़ा को व्यक्त करें। तमिलनाडु के किसानों ने कई दिनों तक ठीक दिल्ली की छाती में प्रदर्शन किये। मृत किसानों की खोपड़ियां तक दिखलायीं। अर्धनग्न होकर भी प्रदर्शन किये लेकिन दिल्ली की सत्ता में बैठे लोगों के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। जो काम महीनों में नहीं हो सका वह मालवा के किसानों ने चंद घण्टों में कर दिया। <br />
भारत के किसान खासकर छोटे और मझौले किसान भारी मुसीबत में जी रहे हैं। जिन्दा रहना, जीवन यापन करना मुश्किल होता जा रहा है। खेती की लागत बढ़ती जा रही है। और फसलों का उचित दाम नहीं मिलता है। कर्ज के जाल में फंसे किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा पिछले 20 सालों में दो लाख के करीब जा पहुंचा है। तबाह-बर्बाद किसान परिवारों की संख्या करोड़ों में है। <br />
मालवा के किसानों का आंदोलन उस समय फूटा जब खेती अच्छी हुयी। अरहर, प्याज आदि की फसल भरपूर हुयी। भारी कर्ज से परेशान किसानों को उम्मीद थी कि अच्छी फसल उन्हें संकट से उबार लेगी और हालात कुछ ठीक होंगे। हुआ ठीक उल्टा। फसलों की कीमत काफी नीचे गिर गयी। प्याज का एक रुपये किलो भाव मिला। लागत निकलना भी मुश्किल हो गया। केन्द्र व राज्य सरकारों ने जब बेरुखी दिखायी तब किसान सड़कों पर उतरने को मजबूर हो गया। <br />
छोटे, मझोले किसानों का नेतृत्व धनी किसानों ने किया। धनी किसान मोटा लाभ चाहते थे जोकि मिल नहीं रहा था। इस तरह धनी से लेकर गरीब किसान तक सड़कों पर था। सरकारी योजनाओं से लेकर कर्जमाफी तक फायदा पहले भी धनी किसानों को मिलता रहा है। इस बार के संघर्ष से भी वही सबसे ज्यादा फायदे में रहने वाला है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि सरकारों द्वारा इस संघर्ष के बाद की घोषणाओं का लाभ धनी किसानों को ही मूल रूप से मिलना है। छोटे, मझौले, गरीब किसान फिर अपने को छला, ठगा पायेंगे। वे धनी किसानों की मांगों को पूरा करने का जरिया बन गये।<br />
इस पूंजीवादी समाज में गरीब किसान दोनों ही हाल में बुरे फंसते हैं। जब फसल बुरी होती है तब भी, अच्छी होती है तब भी। पहले में जहां उसे दाने के भी लाले पड़ जाते हैं तो दूसरी स्थिति में वह अपनी सारी मेहनत के बाद भी अपनी फसल का ठीक व उचित दाम नहीं पा पाता है। सूदखोर, जमाखोर, व्यापारी और यहां तक कि सरकार सभी उसे लूट लेते हैं। <br />
लाखों-करोड़ों रुपये की सब्सिडी भारत के पूंजीपतियों खासकर अम्बानी, अदाणी जैसों को दी जाती है। इन्हें लाखों-करोड़़ों रुपये के कर्ज सरकारी बैंकों द्वारा दिये जाते हैं। ये सब्सिडी का लाभ उठाते हैं और बैंकों का कर्ज पी जाते हैं। सरकारें चुप, मीडिया चुप, बैंक चुप, और अदालतें भी चुप। पूंजीपतियों को दी जाने वाली सब्सिडी, टैक्स छूट, कर्ज सभी उद्योगों को प्रोत्साहन हैं परन्तु किसानों या आमजन को दी जाने वाली सब्सिडी गलत है। उन्हें परजीवी बनाती है। कर्ज माफी उन्हें कर्जखोर बनाती है। सरकारों पर बोझ बढ़ता है। सही आदमी को राहत नहीं मिलती आदि तरह तरह के बहाने और तर्क गढ़े जाते हैं। मुकेश अम्बानी कर्जखोर नहीं है जो लगभग 2 लाख करोड़ रुपये बैंकों का कर्ज लेकर बैठा हुआ है। वह महान उद्योगपति है। प्रधानमंत्री की पीठ पर उसका हाथ है। और प्रधानमंत्री मुकेश-नीता अम्बानी के सामने नतमस्तक हैं। और जब अपना ही आदमी सत्ता के शीर्ष पर बैठा हो तो कोई सब्सिडी पर क्यों शर्माये और क्यों कर्ज को लौटाने की फिक्र करे। आखिर सरकारी खजाना किसके लिये है। <br />
मालवा, महाराष्ट्र के किसानों ने थोड़ी उंगली टेढ़ी की तो थोड़ा घी निकल आया। जरूरत इस बात की है कि किसानों खासकर गरीब किसानों को और आगे जाना होगा। उन्हें समझाना होगा कि उनकी दुर्गति का मूल कारण वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था है। इसके नियामक शासक हैं। उनके जीवन में बुनियादी परिवर्तन तभी आयेगा जब वे सौ साल पहले घटी रूसी क्रांति की तरह क्रांति का बिगुल फूकेंगे। महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति ने जैसे रूस के किसानों को आमूल चूल बदला वैसी ही क्रांति भारत के किसानां को बदल सकती है। नहीं तो फ्रांस की महारानी की तरह जिसने कहा था कि लोगों को रोटी नहीं मिलती तो केक खा लें उसी तरह भारत का कृषि मंत्री उन्हें उपदेश देता रहेगा कि योग करो सब ठीक हो जायेगा।