बहुतेरे बहुत अधिक हुआ करते हैं
वे गायब हो जाएं, बेहतर होगा।
लेकिन वह ग़ायब हो जाये,
तो उसकी कमी खलती है।
वह संगठित करता है अपना संघर्ष
मजूरी, चाय-पानी
और राज्यसत्ता की ख़ातिर।
वह पूछता है सम्पत्ति से:
कहां से आई तुम?
वह पूछता है विचारों से:
किसके फ़ायदे में हो तुम?
जहां भी ख़ामोशी हो
वह बोलेगा
और जहां शोषण का राज हो और
किस्मत की बात की जाती हो
वह उंगली उठाएगा।
जहां वह मेज़ पर बैठता है
छा जाता है असन्तोष उस मेज पर
जायका बिगड़ जाता है
और कमरा तंग लगने लगता है।
उसे जहां भी भगाया जाता है,
विद्रोह साथ जाता है और जहां से
उसे भगाया जाता है
असन्तोष रह जाता है।
साभार: कविता कोश