1 जुलाई 2024 से देश में नये अपराधिक कानून लागू हो जायेंगे। बीते वर्ष अगस्त 23 में जब गृहमंत्री अमित शाह ने इनसे जुड़े तीन विधेयक संसद में पेश किये थे तो कहा था कि इन नये कानूनों से ‘‘गुलामी के सभी चिन्ह समाप्त हो जायेंगे’’। साथ ही उन्होंने दावा किया था कि तीनों नये कानून नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करेंगे व उनका उद्देश्य दण्ड देना नहीं न्याय देना होगा। ये कानून कितना नागरिक अधिकारों की रक्षा से प्रेरित थे इसका अंदाजा देश की जनता को तभी लग गया जबकि दिसम्बर 23 में इन्हें संसद से पास किया गया था। तब संसद में सैकड़ों सांसद निलम्बित थे और इन कानूनों पर संसद में बहस तक नहीं हुई। अब ये करिश्मा मोदी-शाह कंपनी ही कर सकती है कि जिन कानूनों को पास करते समय सांसदों के भी अधिकारों को ठेंगा दिखा दिया गया, उन्हें नागरिक अधिकारों की रक्षा वाला प्रचारित किया जाए। कहने की बात नहीं कि जब देश में आजादी के बाद अपराधिक कानून लागू हुए तो उनमें ज्यादातर बातें ब्रिटिश कानून की जस की तस रख दी गयी थी। जाहिर है कि भारत के नये शासकों, भारत के पूंजीपति वर्ग को दमन की पुरानी मशीनरी के साथ-साथ पुराने कानून अपने शासन को चलाने के लिए मुफीद लगे थे। राज्य की संरचना से लेकर कानूनों तक में कुछ बदलाव करके ज्यादातर चीजें जस की तस अपना ली गयीं। इसके बाद अगले 75 वर्षों में शासक वर्ग इन कानूनों में अपनी जरूरत के अनुरूप वक्त-वक्त पर बदलाव करता रहा। अपराधिक प्रक्रिया से जुड़े कानूनों में भी ढेरों बदलाव होते रहे।
इन अपराधिक कानूनों के चलते आजादी के बाद भी देश की बहुलांश जनता को पुलिस, कोर्ट-कचहरी के संबंध में आजादी पूर्व की तुलना में कुछ खास बदलाव नजर नहीं आता था। मजदूर-मेहनतकश जनता के लिए पुलिस, कोर्ट, जेल हमेशा ही भय पैदा करने वाले अंग ही महसूस होते रहे। इनमें होने वाला ‘न्याय’ जनता के लिए हमेशा ही कष्ट व पीड़ा देने वाला ही रहा।
एक ऐसी व्यवस्था में जहां समाज वर्गों में बंटा हो, इससे अलग कुछ हो भी नहीं सकता कि शासन, न्याय के तंत्र के साथ कानून भी शासक वर्ग द्वारा उत्पीड़ित वर्गों के दमन का औजार हो। पर बीते 200-300 वर्षों में दुनिया भर में शोषित-उत्पीड़ित वर्गों के संघर्षों, उनकी क्रांतियों, समाजवादी समाजों इत्यादि के दबाव में पूंजीपति वर्ग को ढेरों किस्म के जनवादी अधिकारों को कानूनी तौर पर स्वीकारना पड़ा। उसे एक व्यक्ति एक वोट के साथ-साथ कुछ औपचारिक समानताओं की घोषणा करनी पड़ी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता, संगठित होने के अधिकार से लेकर चुनाव लड़ने का अधिकार लोगों को हासिल हुए।
भारत में आजादी के वक्त बने संविधान-कानूनों में इन अधिकारों को उद्घोषित तो किया गया पर इन्हें छीनने या रद्द करने की शक्ति भी शासक वर्ग ने अपने हाथ में बनाये रखी। मसलन लोगों को इकट्ठा होकर सरकार या प्रशासन के विरोध का अधिकार प्राप्त हुआ पर प्रशासन धारा 144 लगाकर लोगों के इस अधिकार को छीन सकती है। यही चीज बाकी जनवादी अधिकारों के मामले में भी सच थी। यानी भारत में उतने भी जनवादी अधिकार पूंजीवादी व्यवस्था में जनता को हासिल नहीं हुए जितने यूरोप-अमेरिका के पूंजीवादी देशों में जनता को हासिल थे।
पुलिस-प्रशासन की मशीनरी के मामले में हमारे ‘देश का हाल और बुरा था। कानून को लागू करने वाले खुद को अक्सर ही कानून से ऊपर मानते रहे हैं। एक अदना सा सिपाही भी कानून अपनी जेब में रखकर चलता है। सड़क पर बेवजह फड़-खोखे वालों-रिक्शावालों पर बरसते डंडे, पुलिस द्वारा गैरकानूनी तरीके से लोगों को उठा लाकअप में बंद करना, पुलिस थानों में पिटाई आदि ऐसी बातें हैं जो आज हर कोई जानता है। ऐसी परिस्थितियों में समझा जा सकता है कि अपने जनवादी अधिकारों से लेकर कानूनों में उल्लखित न्याय भी हासिल करना बगैर संघर्ष के मजदूर-मेहनतकश जन को हासिल नहीं हो पाता है।
भारत में कानून लागू करने वाली मशीनरी, अपराधिक कानूनों, जनवादी अधिकारों की इस बुरी स्थिति के चलते ही अक्सर इन्हें अंग्रेजों के जमाने के कानून-मशीनरी कहकर प्रचारित किया जाता रहा है। इन्हें अंग्रेजों के जमाने का इसलिए भी कहा जाता रहा है क्योंकि कई कानून मसलन् राजद्रोह का कानून अब तक चले आते रहे हैं।
इन परिस्थितियों में मोदी-शाह कम्पनी अगर वास्तव में इन कानूनों से ‘गुलामी के चिन्ह’ खत्म करने की ओर बढ़ती जैसा कि वो दावा करती है तो निश्चय ही यह एक बेहतर कदम होता। पर क्या वास्तव में मोदी-शाह ‘गुलामी के चिन्ह’ मिटाना चाहते हैं? या उनका लक्ष्य कुछ और है।
दरअसल मोदी-शाह व उनकी संघ-भाजपा जिस हिन्दू राष्ट्र को कायम करने का लक्ष्य लिये हुए हैं उसमें जनवादी अधिकारों की कोई जगह ही नहीं है। यह हिन्दू राष्ट्र सामंती जमाने की राजशाही या फासीवादी तानाशाही से प्रेरित रहा है। यहां समस्त नागरिकों खासकर मेहनतकश जनता को राज्य के सामने अपने सारे अधिकार कुर्बान कर देने होंगे या राज्य उन्हें जबरन छीन लेगा। बीते 10 वर्षों से मोदी सरकार इसी दिशा में प्रयासरत है। वह राज्य के दमनकारी अंगों को अधिक मजबूत बनाने में जुटी है। वह राज्य के, प्रशासनिक मशीनरी के, पुलिस के अधिकार बढ़ाने व जनता के अधिकार छीनने में जुटी है। इसे ही सरकार व उसकी भक्ति में लीन मीडिया ‘मजबूत राष्ट्र’ के बतौर पेश करते रहे हैं।
निश्चय ही मोदी काल में भारतीय राज्य ‘मजबूत’ बनाया जा रहा है। पर यह सारी मजबूती कमजोर अधिकार विहीन कर दिये गये जन को कुचलने से प्रेरित है। इसीलिए ऐसी मजबूती जन विरोधी व प्रतिक्रियावादी है। यह ‘मजबूती’ पड़ोसी कमजोर देशों पर धौंसपट्टी के लिए है इसीलिए ये प्रतिक्रियावादी है। यह ‘मजबूती’ कहीं से भी लुटेरी साम्राज्यवादी ताकतों मसलन अमेरिकी साम्राज्यवादियों के खिलाफ संघर्ष करने, या उसके हमलों की शिकार जनता की मदद से प्रेरित नहीं है। इसीलिए यह ‘मजबूती’ भारत ही नहीं दुनिया भर की जनता के हितों के खिलाफ है।
तंत्र को ‘मजबूत’ बनाती मोदी एण्ड कम्पनी को भारत के असली शासक एकाधिकारी पूंजीपतियों का पूर्ण समर्थन हासिल है। बीते 10 वर्षों में इस समर्थन में कोई कमी नहीं आयी है। भारत के पूंजीपतियों को इसका लाभ इसी रूप में हुआ है कि एक ओर बड़े पूंजीपतियों की दौलत बढ़ी है दूसरी ओर मजदूरों-मेहनतकशों के संघर्ष कुचलने, उन्हें साम्प्रदायिक वैमनस्य से बांटने, श्रम कानूनों को पूंजीपरस्त बनाने, राज्य के संसाधन खुले हाथ से पूंजीपतियों को लुटाने का काम मोदी सरकार ने किया है।
जो सरकार बीते 10 वर्षों से तंत्र को मजबूत व जन को कमजोर करती रही हो उससे यह उम्मीद ही नहीं की जा सकती कि वो ‘गुलामी के चिन्ह’ मिटायेगी। दरअसल शाह ने अंग्रेजी शब्दों की जगह हिन्दी शब्दों का इस्तेमाल कर उसे ही ‘गुलामी के चिन्ह हटाना’ घोषित कर दिया। अन्यथा तो नये कानून हर तरह से तंत्र को मजबूत करते हुए जन के हाथों से एक-एक कर अधिकार छीनने वाले हैं। ये पुलिस के अधिकार बढ़ाने वाले हैं। ये अंग्रेजों की गुलामी को भी कई मायनों में शर्मिन्दा करने वाली ‘नई गुलामी’ के दस्तावेज हैं।
नये कानूनों के तहत अभी तक प्रचलित आईपीसी (इंडियन पीनल कोड) की जगह भारतीय न्याय (द्वितीय) संहिता लागू हो जायेगी। बीते दिनों राजद्रोह की बदनाम हो चुकी धारा को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। अब यह नयी संहिता यद्यपि राजद्रोह की धारा खत्म कर देती है पर उसकी जगह आतंकवाद से संदर्भित और भारत की एकता-अखण्डता-सुरक्षा-आर्थिक सुरक्षा को खतरे की नयी, अधिक दमनकारी धाराएं जोड़ देती है।
नयी संहिता आतंकवाद को एक ऐसे कृत्य के रूप में परिभाषित करती है जिसका उद्देश्य देश की एकता, अखण्डता, सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा को खतरा पहुंचाना हो या किसी वर्ग, लोगों में आतंक कायम करना हो।
राजद्रोह की जगह जोड़ी धारा अलगाव, सशस्त्र विद्रोह विध्वंसक गतिविधियों को करने, भड़काने अलगाववाद की भावना प्रोत्साहित करने, इनसे संदर्भी बातों-संकेतों, इलेक्ट्रोनिक संचार या वित्तीय मदद को अपराध मानती है।
इस तरह आतंकवाद के दायरे को काफी व्यापक बना दिया गया है। अब कोई लेखक, भाषण देने वाला, कोई वीडियो, कोई सोशल मीडिया पोस्ट ही व्यक्ति पर आतंकवाद संदर्भी धारा चलाने के लिए काफी हो सकता है। यू ए पी ए के तहत पहले एक उच्च अधिकारी ही इन मुकदमों की जांच करता था अब हर थानेदार-इंस्पेक्टर इन अपराधों में लोगों को गिरफ्तार कर सकेंगे। पुलिस की मौजूदा कार्यप्रणाली देखते हुए कहा जा सकता है कि जैसे चाकू बरामदगी या कच्ची शराब बरामदगी के मुकदमे हर रोज पुलिस निर्दोषों पर लादती है वैसे ही अब हर रोज थानों में आतंकवाद के मुकदमे लिखे जायेंगे। जाहिर है यह सब पुलिस निरंकुशता को बढ़ावा देगा।
संगठित अपराध की एक नई धारा इस संहिता में जोड़ी गयी है। कहने को यह किसी गिरोह द्वारा अपहरण, वसूली, जमीन हड़पना, साइबर अपराध को अधिक गम्भीर अपराध मानती है। पर संगठित अपराध की इस धारा को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है उससे इसके एजेण्डे पर व्यक्तियों के संगठित समूह की कार्यवाहियां भी अपराधिक श्रेणी में आ सकती हैं। संगठित होना लोगों का जनवादी अधिकार है। इसी अधिकार के तहत ढेरों एनजीओ, संगठन, सोसाइटी समाज में सक्रिय हैं। अब नई धारा इनकी गतिविधियों को भी अपराध घोषित करने में मददगार बन सकती है।
महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में यह कानून पूर्ववत ही ज्यादातर आईपीसी के प्रावधानों पर खड़ा है। लम्बे समय से महिला संगठन वैवाहिक बलात्कार को बलात्कार माने जाने की मांग करते रहे हैं पर इस मांग को न मानते हुए इस संहिता में भी इसे बलात्कार नहीं माना गया है।
सीआरपीसी (दंड प्रक्रिया संहिता) की जगह भारतीय नागरिक सुरक्षा (द्वितीय) संहिता लागू की गयी है। यह मुख्यतया गिरफ्तारी, जांच, जमानत आदि से जुड़े प्रावधान तय करती है।
यह नई संहिता पुलिस के अधिकारों को बढ़ाने व अभियुक्त के अधिकारों को कम करने का काम करती है। पहले किसी अभियुक्त को पुलिस अधिकतम 15 दिन की पुलिस रिमांड पर ले सकती थी। अब नये प्रावधानों के तहत किसी अभियुक्त को पुलिस हिरासत के 90 दिनों में कई टुकड़ों में कुल 15 दिन के लिए रिमांड पर ले सकती है। यानी अब एक अभियुक्त को पुलिस 3 माह तक बार-बार रिमांड पर ले सकती है व अगर 15 दिन की रिमांड पूरी नहीं हुई है तो उसकी जमानत से इंकार कर सकती है। यानी अभियुक्त की जमानत अब अधिक कठिन हो जायेगी।
यह संहिता प्रथम सूचना रिपोर्ट के संदर्भ में पुलिस को यह अधिकार देती है कि 3-7 वर्ष की सजा वाले अपराध के मामले में अब पुलिस 15 दिन की जांच के बाद एक एफ आई आर लिख सकती थी। पहले पुलिस को कुछ ही मामलों में जांच का अधिकार था ज्यादातर मामलों में उसे एफ आई आर लिखनी होती थी। हालांकि व्यवहार में पुलिस इसका पालन नहीं करती थी पर संघर्ष कर पुलिस को एफ आई आर दर्ज करने को मजबूर किया जा सकता था। अब पुलिस इस प्रावधान का हवाला दे एफ आई आर लिखने से इंकार कर सकती है।
इसी तरह सी आर पी सी में ऐसे आरोपी के लिए जमानत का प्रावधान था जिसने अपराध के लिए तय सजा की आधी अवधि हिरासत में बिता ली हो। नयी संहिता में ऐसी जमानत के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है।
नई संहिता कई अपराधों में पुलिस को आरोपियों को हथकड़ी में बांधने की छूट देती है। यद्यपि सुप्रीम कोर्ट हथकड़ी लगाने का विरोध कर चुका है।
इसके अतिरिक्त 7 वर्ष से अधिक की सजा वाले केसों में फारेंसिक जांच, डिजिटल साक्ष्य की मान्यता का प्रावधान किया गया है। पुलिस किसी मामले की जांच में गिरफ्तार व्यक्ति के साथ गिरफ्तार नहीं किये व्यक्ति के हस्ताक्षर, हस्तलेख, उंगलियों के निशान, आवाज के नमूने ले सकती है।
जाहिर है उपरोक्त प्रावधान पुलिस की शक्तियों को काफी बढ़ा देंगे व ढेरों मामले में पुलिस इन प्रावधानों का इस्तेमाल कर आम जन के निजता के अधिकार को ध्वस्त करेगी।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह अबसे भारतीय साक्ष्य (द्वितीय) कानून लागू हो जायेगा। यह कानून साक्ष्यों-तथ्यों से संदर्भित हैं जिनके आधार पर कोई न्यायधीश सजा सुनाता है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह माने जाने के बावजूद कि इलेक्ट्रोनिक रिकार्ड के साथ छेड़छाड़ हो सकती है, नया कानून उसे साक्ष्य के बतौर मान्यता देता है। साथ ही जांच के दौरान रिकार्ड से छेड़छाड़ रोकने के कोई प्रावधान नहीं करता है। यानी पुलिस अब किसी आडियो-वीडियो को सबूत बतौर पेश कर सकती है।
पुलिस हिरासत में यंत्रणा-मारपीट को रोकने के लिए न्यायालय व कई आयोग सुझाव दे चुके हैं। पर इस मामले में नई संहिता पुराने कानून पर ही खड़ी है। पुलिस हिरासत में आरोपी से प्राप्त तथ्य को पुलिस बतौर साक्ष्य रख सकती है। इसी तरह पुलिस हिरासत में आरोपी के घायल होने, आदि के संदर्भ में पुलिस को दोषी ठहराये जाने के सुझावों को भी नई संहिता में शामिल नहीं किया गया है।
1 जुलाई से इन नये कानूनों के लागू होने से कुछ पेचींदगिया भी पैदा होनी हैं। इनके मद्देनजर कई राज्यों के मुख्यमंत्री केन्द्र सरकार से इन्हें स्थगित करने की मांग कर चुके हैं। पर मोदी सरकार इन्हें लागू करने पर उतारू है।
दरअसल 1 जुलाई के बाद दर्ज केसों को नये कानूनों के तहत देखा जायेगा जबकि पुराने केसों को पुराने कानूनों के तहत। इस तरह पुलिस-वकील-जज सबको अगले 15-20 वर्षों तक दोनों कानूनों को ध्यान में रखना होगा जब तक पुराने कानूनों के केसों का पूरी तरह निपटारा न हो जाए।
इसके अतिरिक्त मोदी सरकार झटपट प्रशिक्षण देकर इन कानूनों को लागू करने पर आमादा है। जबकि कानूनों की विवादास्पद मामलों की व्याख्या शीर्ष अदालत के निर्णयों से स्थापित होती रही है। अतः भविष्य में शीर्ष न्यायालय एक लम्बी प्रक्रिया में इनकी व्याख्यायें करेगा। ऐसे में लाखों लम्बित केस पहले से ढो रही भारतीय न्याय प्रणाली पर नये केसों का और भारी बोझ लद जायेगा। क्योंकि नये केसों के निपटारे की गति सुस्त होने की अधिक संभावना है। यह इसके बावजूद है कि सरकार ने सुनवाई-जांच-सजा को एक समय सीमा में पूरा करने के प्रावधान किये हैं।
यह सब कुछ नये कानूनों को मोदी सरकार की नोटबंदी सरीखे तुगलकी हश्र की ओर ले जा सकता है।
पर कड़े निर्णय लेने की आदी सरकार को इस सबकी परवाह नहीं। वह संसद से सांसदों को बाहर निकाल नये कानून पारित करवा सकती है। बगैर न्यायधीशों-वकीलों की राय लिये नये कानून लिख सकती है। ऐसे में तंत्र के कारिंदों की परेशानी के साथ जनता की परेशानी की उसे भला क्या चिंता हो सकती है। फासीवादी हिन्दू राष्ट्र के लिए उसे ‘मजबूत भारत’ का ‘कठोर कानून’ और उसे लागू करता ‘पुलिस राज’ चाहिए। नये कानूनों की दिशा कठोर कानूनों व पुलिस राज की ओर है। ये कठोर कानून व्यक्ति के अधिकारों को कठोरता से छीन लेते हैं और पुलिस के हाथों में ढेरों नये अधिकार दे देते हैं।
नये कानून देश की मेहनतकश जनता को ‘पुरानी गुलामी’ की जगह ‘नयी गुलामी’ की ओर ले जायेंगे। देर सबेर नयी गुलाम बनाने वाली मोदी-शाह मण्डली के साथ जनता वैसे ही संघर्ष की ओर बढ़ेगी जैसा उसने ब्रिटिश शासकों के साथ किया था। पिछली बार उसने देशी पूंजीवादी लुटेरों को निशाने पर नहीं लिया था। इस बार वह यह गलती नहीं करेगी।
नये अपराधिक कानून : जन पर तंत्र का नया हमला
राष्ट्रीय
आलेख
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को
7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक
अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।