रंगा-बिल्ला माफिया गिरोह

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आजकल एक माफिया गिरोह की काफी चर्चा है। इसका कथित सरगना हिन्दू फासीवादियों का नायक बन गया है और उनका प्रचारतंत्र उसके कसीदे गढ़ रहा है। एक क्रूर अपराधी के बदले एक नायक की तरह उसकी कहानियां सुनाई जा रही हैं। 
    
इस गिरोह का कथित सरगना पिछले दस साल से जेल में बंद है, तब से जब अभी वह अपराध की दुनिया में चूजा ही था। जेल में बंद रहते हुए ही उसने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इतना बड़ा गिरोह खड़ा कर लिया कि वह कहीं भी मजे में हत्या करवा सकता है और उसके भाड़े के हत्यारे मजे में पुलिस की मौजूदगी में अपने द्वारा की गयी हत्या को जायज ठहरा सकते हैं। 
    
बुद्धू से बुद्धू आदमी के लिए भी यह समझना मुश्किल नहीं है कि जेल में बंद कोई अपराधी चूजा इतना बड़ा गिरोह नहीं खड़ा कर सकता। यह तो हो सकता है कि गिरोह खड़ा करने के बाद वह जेल चला जाये और वहां से गिरोह को संचालित करे। पर वह जेल से गिरोह नहीं खड़ा कर सकता। इससे यह सहज ही निष्कर्ष निकलता है कि वह किसी और के गिरोह का मुखौटा मात्र है। कोई और उसके नाम पर गिरोह चला रहा है। 
    
असल में यह रंगा-बिल्ला का माफिया गिरोह है। यह यूं ही नहीं है कि यह कथित सरगना एक ऐसे प्रदेश की जेल में बंद है जो पूरे देश में हर तरह की धोखाधड़ी और अपराध के लिए मशहूर है। वहां फर्जी अदालत तक चल रहे हैं। यह भी यूं ही नहीं है कि उसके कहीं और स्थानांतरण पर केन्द्रीय गृह मंत्रालय की ओर से प्रतिबंध है। 
    
इस तरह के माफिया गिरोह को खड़ा करने की रंगा-बिल्ला को जरूरत क्यों पड़ी? इसका जवाब यह है कि इसके माध्यम से बहुत सारे असुविधाजनक लोगों को ठिकाने लगाया जा सकता है। इस मामले में रंगा-बिल्ला का रिकार्ड वैसे भी काफी पुराना है और वे अदालतों की भीरुता की वजह से ही बचे हुए हैं। 
    
पिछले दस सालों में हिन्दू फासीवादियों के राज में अपने प्यारे देश ने जो प्रगति की है, उसका यह भी एक उदाहरण है। पहले अपराध का राजनीतिकरण होता था। फिर राजनीति का अपराधीकरण होने लगा। अब राजनीति के शीर्ष के लोग ही माफिया गिरोह खड़ा कर देश-दुनिया में हत्याएं करवा रहे हैं। इसे छिपाया भी नहीं जा रहा है बल्कि इसका महिमामंडन किया जा रहा है। यह अलग बात है कि साम्राज्यवादियों के सामने सब मिमियाने लगते हैं और अपने को निर्दोष बताने लगते हैं। 
    
पिछले दस सालों के हिन्दू फासीवादियों के राज में भांति-भांति के अपराध न केवल फले-फूले हैं बल्कि अपराधियों का भी साम्प्रदायीकरण हुआ है। हिन्दू माफिया या अपराधी की जय-जयकार की जा रही है जबकि मुसलमान अपराधी को ‘मुठभेड़’ में मारा जा रहा है। हिन्दू फासीवादियों का लक्ष्य है कि अपराध की दुनिया में भी उन्हीं का ही वर्चस्व हो।
    
रंगा-बिल्ला ने अपने प्रचारतंत्र के जरिये अपने माफिया गिरोह को जो शोहरत दिलाई है उसका यह परिणाम निकलेगा कि समाज में अपराधी की स्वीकार्यता बढ़ेगी। इसे सामान्य या यहां तक कि गौरवशाली माना जाने लगेगा यदि वह अपने धर्म का हो। पूंजीवादी व्यवस्था में कानून-व्यवस्था की पहले ही लचर स्थिति को यह और जर्जर करेगा। इससे आम लोगों का जीवन और ज्यादा खतरे में पड़ेगा। 
    
रही बात उस कथित सरगना की तो वह बस मुखौटा है जिसे कभी भी फेंका और पैरों तले रौंदा जा सकता है। जब उसकी उपयोगिता खत्म हो जायेगी या उसके पर निकलने लगेंगे तो उसका भी ‘इनकाउंटर’ हो जायेगा। उसके भस्मासुर बनने के पहले ही रंगा-बिल्ला उसे ठिकाने लगा देंगे। 
    
लाखों या करोड़़ों का सवाल यह है कि आखिर रंगा-बिल्ला अपने अंजाम तक कब पहुंचेंगे?

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