श्रम करना इंसान का एक स्वाभाविक गुण है। लेकिन, पूंजीवाद में यह उसके लिए तनाव और यंत्रणा का कारण बन जाता है। मजदूर का श्रम पूंजीपति के लिए मुनाफे का जरिया होता है। मजदूर को पूंजीपति द्वारा निर्धारित परिस्थितियों और शर्तों पर काम करना होता है। मजदूर से अधिकाधिक काम लेने के लिए पूंजीपति उसके ऊपर नौकरी से हटाये जाने का डर बना कर रखता है। मजदूर का न तो अपने श्रम की प्रक्रिया पर कोई नियंत्रण होता है और न अपने श्रम के उत्पाद पर। कुछ कुछ यही स्थिति निचले स्तर पर काम करने वाले अन्य कामगारों की भी होती है।
एडीबी रिसर्च इंस्टीट्यूट की पीपुल एट वर्क 2024 रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में कुल कामगारों में से आधे नौकरी में तनाव महसूस करते हैं। तनाव का गहरा संबंध खराब मानसिक स्वास्थ्य से होता है। अत्यधिक तनावग्रस्त कामगार यह महसूस करते हैं कि वे अपना काम अपनी सबसे बेहतर क्षमता के साथ नहीं कर पाते। कम तनाव वाले कामगार भी ज्यादा अवकाश लेने की जरूरत महसूस करते हैं।
इसी रिपोर्ट के अनुसार तनाव कामगार की संतुष्टि को घटाता है। ज्यादा तनावग्रस्त कामगार कम तनाव वाले कामगार की तुलना में नौकरी बदलने की फिराक में ज्यादा रहता है। दुनिया के स्तर पर 16 प्रतिशत कामगार हर रोज तनाव का अनुभव करते हैं। उत्तर अमेरिका की स्थिति ज्यादा बुरी है जहां 20 प्रतिशत कामगार हर रोज तनाव का अनुभव करते हैं। सभी उम्र की महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा तनाव का अनुभव करती हैं। कामगार की उम्र जैसे-जैसे बढ़ती है उसका तनाव भी बढ़ता है। यह क्रम सेवानिवृत्ति के करीब पहुंचने पर ही उलटता है। सबसे ज्यादा तनाव का शिकार प्रशिक्षु और निचले स्तर के कामगारों को होता है।
रिपोर्ट कहती है कि ज्यादातर कामगार मानते हैं कि नियोक्ता उनके तनाव को कम करने के लिए कुछ नहीं करता। महामारी के समय जो थोड़ा कुछ हुआ भी था उसे हटा दिया गया है। सिर्फ 21 प्रतिशत कामगार मानते हैं कि उनका नियोक्ता उनके मानसिक स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए मददगार है।
जाहिर सी बात है कि वास्तविक स्थिति रिपोर्ट द्वारा बताये गये आंकड़ों की तुलना में ज्यादा बुरी होगी। किसी पूंजीवादी संस्था द्वारा तैयार रिपोर्ट की पक्षधरता मजदूरों के साथ नहीं हो सकती। इसलिए ऐसी रिपोर्ट किसी न किसी हद तक मजदूरों की खुशनुमा स्थिति की तरफ ही झुकी होगी।
आज दुनिया के स्तर पर मजदूरों के संगठनों की कमजोर स्थिति मजदूरों के लिए कार्यस्थल पर तनाव को बढ़ा रही है। जैसे-जैसे मजदूर अपने संगठनों में संगठित होते जायेंगे, वैसे-वैसे अपने कष्ट और पीड़ा को आपस में बांटते हुए ज्यादा संतुष्टि और सुकून की स्थिति हासिल करेंगे। कार्यस्थल से संबंधित तनाव के पूरी तरह खात्मे के लिए तो पूंजीवाद को ही समाप्त करना होगा।
कार्यस्थल पर तनाव
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इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।