मोदी ने मुंह खोला?

आधा चुनाव बीतते-बीतते मोदी को मुंह खोलना पड़ गया। कोई आश्चर्य कर सकता है कि मोदी तो लगातार ही इतना बोलते रहते हैं कि भाजपा के दूसरों को बोलने को नहीं मिलता। और अब तो उन्होंने एक माह में ही 10 से अधिक इंटरव्यू भी दे डाले तब क्यों मोदी के मुंह खोलने की बात हो रही है। दरअसल मोदी ने हिन्दू-मुसलमान, पाकिस्तान-कब्रिस्तान, से आगे बढ़कर पहली बार बेरोजगारी पर कुछ बोला है या यूं कहें कि विपक्षियों ने उन्हें बोलने को मजबूर कर दिया। 
    
बिहार में चुनावी सभा में बेरोजगारी पर जो कुछ मोदी ने बोला उससे यही पता चला कि बाकी मामलों की तरह यहां भी वे ‘फेंकू’ के तमगे के अनुरूप ही बोले। भारत में बढ़ती बेरोजगारी इतना ज्वलंत मुद्दा बन चुका है कि एक सामान्य आदमी तक इसकी असलियत जानता है। युवा तो इसकी भारी पीड़ा झेल ही रहे हैं। पर मोदी अपने बड़बोलेपन से बेरोजगारी की समस्या ही नकारते नजर आये। 
    
मोदी ने बताया कि इतनी सड़कें, रेलवे ट्रैक, कारखाने, फ्लाईओवर बन रहे हैं क्या ये सब रोजगार के बिना संभव हो सकता था। मोदी ने बताया कि बिहार के 1400 किमी. रेलवे ट्रैक, 400 रेलवे फ्लाईओवर, 3300 किमी. राष्ट्रीय राजमार्ग, एक उर्वरक कारखाना, एक थर्मल प्लांट बन रहे हैं और 90 से अधिक रेलवे स्टेशन विकसित किये जा रहे हैं ये सारा विकास रोजगार पैदा कर रहा है। देश में 4 करोड़ गरीबों के घर बने हैं इनसे रोजगार मिला ही होगा। 
    
मोदी की सोच स्पष्ट है कि इतना विकास हो रहा है तो रोजगार पैदा हो ही रहा होगा। चूंकि सरकार खुद बेरोजगारी का हिसाब रखना बंद कर चुकी है इसलिए मोदी के पास गिनाने के लिए पुल-सड़क के अलावा कुछ नहीं था। वे यह तो गिना नहीं सकते थे कि नोटबंदी-जीएसटी से तबाह लघु उद्यमों में उन्होंने लाखों रोजगार छीन लिये। कोरोना में उन्होंने लाकडाउन से सबका काम छीन लिया है। वे यह नहीं कह सकते थे कि 10 सालों में उन्होंने रोजगार देने से ज्यादा छीनने का काम किया था। 
    
कभी मोदी ने युवाओं को पकौड़ा तलने की राह दिखायी थी। आज भी मोदी सड़क-पुल बनाने में रोजगार दिलाने की बात कर रहे हैं। प्रकारान्तर से हकीकत यही है कि मोदी सरकार के पास सुरक्षित-स्थायी रोजगार, सरकारी नौकरियां गिनाने को नहीं हैं। अब वे देश के युवाओं को ठेके की असुरक्षित, कभी भी रखो-कभी भी निकालो वाला पकौड़ा रोजगार ही दे सकते हैं। यह पकौड़ा रोजगार भी सारे बेरोजगारों के लिए नहीं है। 
    
कभी फ्रांसीसी क्रांति के समय फ्रांस की रानी ने भूखी जनता से कहा था कि रोटी नहीं है तो केक खा लो। कुछ उसी तर्ज पर मोदी बेरोजगारों को बता रहे हैं कि इतना विकास हो रहा है तो रोजगार पैदा हो ही रहा होगा। फ्रांसीसी क्रांति ने वहां की रानी को उसके अंजाम तक पहुंचा दिया। देश के बेरोजगार-मजदूर-मेहनतकश मोदी का भी शीघ्र ही यही हश्र करेंगे। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।