नारी आंदोलन के इतिहास के बारे में चंद बातें

    नारी आंदोलन समाज की कार्यसूची <span style="font-size: 13px; line-height: 20.7999992370605px;">में</span> पूंजीवाद के साथ आया। शुरूआती दौर में समाज की पढ़ी और सम्पत्तिवान महिलाओं का उद्देश्य जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के बराबरी करने का था। तब से अब तक नारी आंदोलन लम्बा सफर तय कर चुका है। <br />
    प्रबोधन काल में शुरू करके शिक्षित वर्ग की महिलाओं ने शिक्षा, काम और अन्य अधिकारों में बराबरी की मांग की थी। उदाहरण के लिए मेरी वोलसन क्राफ्ट ने अपनी पुस्तक ‘महिलाओं के अधिकारों की सच्चाई’ 1792 में इंग्लैण्ड में प्रकाशित की थी। इसी प्रकार कहा ये जाता है कि हैरियट टेलर ने ‘औरतों की गुलामी’ नाम की पुस्तक लिखी थी जो उनके पति जाॅन स्टुअर्ट मिल के नाम से प्रकाशित हुई थी। ऐसे ही नारी मुक्ति पर हरवर्ट स्पेंसर के लेखों की असली लेखिका जार्ज इलियट थीं। इस काल में नारी मुक्ति की धारणाएं उस समय उभर रहे काल्पनिक समाजवादी आंदोलन के साथ अक्सर जुड़ी होती थीं। <br />
    दूसरे इंटरनेशनल में और यूरोप व अमेरिका में मजदूर वर्ग के बढ़ते संगठन के दौर में कई महिलाओं को नेतृत्वकारी भूूमिका निभाने की ओर ले गया। इनमें सबसे प्रसिद्ध क्लारा जेटकिन थीं। वे उस समय अपनी यूनियन की नेता बनी थीं जब जर्मन कानून के अंतर्गत कोई भी महिला यूनियन सदस्य नहीं बन सकती थी। इसके बाद दूसरे इंटरनेशनल ने अपने झंडे पर नारी की समानता को अंकित किया। यह आंदोलन जो माक्र्सवादी आंदोलन के भीतर शुरू हुआ था वह शताब्दी के दो दशकों में उस समय तक अपनी शीर्ष ऊंचाई तक पहुंचा था। इस बात को अगस्त बेवल ने अपनी पुस्तक ‘नारी और समाजवाद’ में विस्तार से चर्चा की है। <br />
    19 वीं शताब्दी के अंत तक विभिन्न देशों में काम कर रही अनेक महिलायें सामाजिक जीवन में सक्रिय भूमिका निभा रही थीं। यह बात विशेष तौर पर नये बसे उपनिवेशों के लिए सही थी, जहां आबादी में लिंग असंतुलन बहुत अधिक था जिसमें महिलाओं को अपनी भूमिका बढ़ाने के केन्द्रीय संस्था के बतौर संसदीय जनतंत्र उभरा और सभी बालिग पुरुषों को मत देने का अधिकार मिल गया वैसे-वैसे महिलाओं का मताधिकार आंदोलन उभरकर आया। 19 वीं सदी के अंत तक न्यूजीलैण्ड और आस्ट्रेलियाई उपनिवेशों में महिलाओं को मताधिकार मिल चुका था। अमेरिका और यूरोप में इस अधिकार को हासिल करने के लिए लेकिन बड़े-बड़े प्रदर्शनों और पुलिस से टकराव का सामना करना पड़ा था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही आम तौर पर महिलाओं को मताधिकार कुछ देशों में मिला था। 1914 और 1939 के बीच 28 देशों में महिलाओं को मतदान का अधिकार मिला था। महिलाओं के मताधिकार की सबसे प्रसिद्ध प्रचारक सिलविया और अडेला पैंक हस्र्ट दोनों मार्क्सवादी थीं। रूस की क्रांति ने महिलाओें को मताधिकार दिया। लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि स्विटजरलैण्ड में महिलाओं को मतदान का अधिकार 1917 तक नहीं मिला था।<br />
    रूसी क्रांति ने महिलाओं के आंदोलन में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। रूस की फरवरी क्रांति अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के प्रदर्शन के साथ शुरू हुई थी। रूस में बोल्शेविकों की केंद्रीय कमेटी में कई महिला क्रांतिकारी थीं। रूसी क्रांति ने नारी आंदोलन को नारी मुक्ति आंदोलन की दिशा में एक बड़ी गति दी थी। इसने नारी मुक्ति के सवाल को समाज में पूंजीवादी शोषण से मुक्ति के साथ घनिष्ठता से जोड़ा और यहां से स्पष्ट तौर पर नारी मुक्ति आंदोलन मजदूर आंदोलन के साथ घनिष्ठ रिश्ते से जुड़ गया। यहां से दुनियाभर में पूंजीवादी, नारीवादी आंदोलन और नारी मुक्ति आंदोलन स्पष्टतः दो खेमों में बंट गया। <br />
    आज हमारे देश सहित समूची दुनिया में नारी आंदोलन बुनियादी तौर पर इन दो परस्पर विरोधी खेमों में बंटा हुआ है। हमारे देश में पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन भी कई खेमों में बंटा हुआ हैं लेकिन ये सभी खेमे पूंजीवादी शोषण से समाज की मुक्ति नहीं चाहते। यह इनकी बुनियादी एकता है। हालांकि सांप्रदायिकता पर, जाति पर और अन्य मुद्दों पर ये एक-दूसरे के खिलाफ खड़े नजर आते हैं। वहीं दूसरी तरफ नारी मुक्ति आंदोलन में लगे ऐसे लोग या संगठन हैं जो नारी मुक्ति के सवाल को मजदूर आंदोलन के साथ तथा मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के साथ नाभिनालबद्ध मानते हैं। ऐसे संगठन ही नारी मुक्ति को सही अंजाम तक पहुंचा सकते हैं। ऐसे संगठन सांप्रदायिकता, जातिवाद, राष्ट्रीयता, जनजातीय समस्या और साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये एन.जी.ओ. मार्का संगठनों के विरुद्ध दृढ़ सुसंगत नजरिया अपनाते हैं। ये रूसी क्रांति से प्राप्त अनुभवों को आगे बढ़ाना चाहते हैं। <br />
    संक्षेप में नारी आंदोलन के इतिहास में हमें यही मिलता है। 

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