पत्रकारों पर बढ़ते हमले

भारत में पत्रकारों पर हमले अब आए दिन की बात बन गए हैं। राइट्स एंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप के हालिया आंकड़े इस बात को और भी स्पष्ट करते हैं। इस ग्रुप ने आंकड़ों को इकट्ठा कर यह बताया है कि 2022 में भारत में कम से कम 194 पत्रकार हमले का शिकार बने हैं। 
    
पत्रकारों पर हमला करने में सरकारी एजेंसियां और गैर सरकारी संगठन सबसे आगे रहे हैं। 194 में से 103 पत्रकारों को पिछले वर्ष में सरकारी एजेंसियों और 91 पत्रकारों को गैर सरकारी संगठनों द्वारा निशाना बनाया गया है। गैर सरकारी संगठनों में राजनीतिक पार्टियां या उसके नेता भी शामिल हैं जो पत्रकारों पर हमले के दोषी हैं। सरकारी एजेंसियो के हमलों में 70 पत्रकार गिरफ्तार किये गये, 14 पर एफआईआर दर्ज हुई, 4 को पूछताछ हेतु सम्मन भेजा गया व 15 पर पुलिस व अधिकारियों ने हमला/मारपीट की। 
    
सरकारी एजेंसियों के हमले का शिकार सबसे ज्यादा जम्मू और कश्मीर के पत्रकार हुए हैं। पत्रकारों पर यह हमले पुलिस द्वारा उनको गिरफ्तार करने, नजर बंद करने, अदालती मामलों में फंसाने आदि आदि के रहे हैं। अकेले जम्मू और कश्मीर में ही पुलिस द्वारा गिरफ्तारी, नजरबंदी, अदालती मामलों में फंसाने या उन पर जानलेवा हमले के शिकार 48 पत्रकार हुए हैं। 
    
जम्मू और कश्मीर के बाद तेलंगाना राज्य है जिसने 40 पत्रकारों पर हमले करने के रूप में दूसरा स्थान हासिल किया। उसके बाद उड़ीसा 14, उत्तर प्रदेश 13, दिल्ली 12 और पश्चिम बंगाल में 11 पत्रकार किसी ना किसी तरह हिंसा या उत्पीड़न का शिकार बनाए गए। इस तरह पत्रकारों पर हमला बोलने और असहमति को कुचलने में जहां भाजपा सरकारें अग्रणी हैं वहीं अन्य पार्टियां भी समान व्यवहार कर रही हैं। 
    
यह आंकड़े भारत में पत्रकारिता की स्थिति को स्पष्ट कर देते हैं। यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि कोरोना काल में सरकार की बदइंतजामी की पोल खोलने वाले पत्रकारों को बड़ी संख्या में निशाना बनाया गया था।
    गैर सरकारी संगठनों (नान स्टेट एक्टर) द्वारा 91 पत्रकारों पर गत वर्ष हमले बोले गये। इनमें अलग-अलग घटनाओं में 8 पत्रकार मारे गये। पत्रकारों पर हमले बोलने में संघी लम्पट संगठन अग्रणी रहे हैं।  
    जम्मू और कश्मीर में सबसे बड़े इंटरनेट प्रतिबंध और धारा 370 की समाप्ति के बाद आक्रोश को दबाने की प्रक्रिया में कई पत्रकारों को जेल में डाला गया। उन पर आतंकवाद विरोधी और राजद्रोह कानूनों के तहत मुकदमा चलाया गया। धारा 370 को हटाकर और जम्मू कश्मीर के विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करने के बाद वहां कई पत्रकारों को अपनी रिपोर्टिंग के कारण सरकारी हमले का शिकार होना पड़ा। इसमें पुलिस द्वारा उनसे पूछताछ करने, उनके घरों पर छापे मारने, उनको धमकाने, उनके इधर-उधर आने-जाने पर प्रतिबंध लगाने या फर्जी मुकदमा दर्ज करने आदि दमन के मुख्य रूप थे। पत्रकारों पर जम्मू और कश्मीर का जन सुरक्षा कानून भी कहर बरपा रहा है। 2022 में सरकार ने जन सुरक्षा कानून के तहत फहद शाह, आसिफ सुल्तान, सज्जाद गुल को तब दोबारा गिरफ्तार कर लिया जब उन्हें एक अन्य मामले में जमानत मिल गई थी। यह जनसुरक्षा कानून बिना सबूत और पूरी न्यायिक समीक्षा के लोगों को मनमाने ढंग से हिरासत में रखने की शक्ति सरकार को देता है। दमन का यह औजार आम कश्मीरियों के साथ-साथ पत्रकारों पर भी बराबर हमलावर है। 
    
उत्तर प्रदेश में योगी राज में सरकार की आलोचना करने या सरकारी तंत्र की पोल खोलने वाले पत्रकारों को बड़ी संख्या में निशाना बनाया गया था। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद वर्ष 2017 से 2022 तक 66 पत्रकारों पर आपराधिक मामले दर्ज किए गए। कमेटी अगेंस्ट असाल्ट आन जर्नलिस्ट की फरवरी 2022 की रिपोर्ट के अनुसार 48 पत्रकारों पर हमले किए गए। 
    
आज केंद्र की मोदी सरकार अपने हिंदू फासीवादी एजेंडे को तेजी से आगे बढ़ा रही है। वह अपने अनुषंगी संगठनों के साथ पूरे समाज पर हमलावर है। यह हमला आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैचारिक सभी रूपों में हो रहा है। इसी हमले में पत्रकार भी उनका शिकार बन रहे हैं। पत्रकारिता और पत्रकारों पर हमले की फेहरिस्त मोदी राज में लंबी होती जा रही है। पेगासस प्रोजेक्ट में 40 भारतीय पत्रकारों के नाम थे जिनकी निगरानी की गई या की जानी थी। इसी तरह आनलाइन प्लेटफार्म पर खबरों को देने वाले समूहों या व्यक्तियों को नियंत्रित करने के लिए मोदी सरकार सूचना प्रौद्योगिकी नियमावली लेकर आई। अब सरकार बिना किसी न्यायिक जांच पड़ताल के आनलाइन सामग्री को हटाने के लिए इन समूहों व व्यक्तियों को तुरंत मजबूर कर सकती है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पत्रकारिता को और भी कमजोर करने का एक कदम है। 
    
मुख्यधारा के टीवी चैनलों और अखबारों को अपने प्रचार में लगा देने वाली मोदी सरकार अपने आलोचकों से इन हमलों के जरिए निपटना चाहती है। वे सरकार की किसी भी तरह की आलोचना बंद कर देना चाहते हैं। पत्रकारों पर यह हमले उसी खौफ को बढ़ाने के लिए किए जा रहे हैं।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

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आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

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यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।