राखीगढ़ी से फिर उभरा सच : आर्य भारत के मूल निवासी नहीं

    आर्यों को भारत का मूल निवासी साबित करने की संघ परिवार व हिन्दुत्ववादियों की मुहिम को एक बार फिर मुंह की खानी पड़ी है। हरियाणा के हिसार के राखीगढ़ी में एक प्राचीन नगर सभ्यता के अवशेष मिले हैं। इन अवशेषों के साथ कुछ कब्रें भी मिली हैं। इनमें से एक कब्र की उम्र 4500 वर्ष आंकी गयी है। <br />
    वैसे इस नगर सभ्यता का पता चलते ही हिन्दुत्ववादी प्रचार माध्यमों व भगवा रंग में रंग चुके चैनलों ने आनन-फानन में इस नगर सभ्यता को महाभारत कालीन बताते हुए इसे महाभारत की ऐतिहासिक सत्यता का प्रमाण व सरस्वती सभ्यता का नाम देते हुए इस नगर सभ्यता के माध्यम से मिथकीय सरस्वती की वास्तविकता को प्रमाणित करने का प्रयास किया। <br />
    लेकिन विज्ञान बहुत ही हठी होता है। वह विश्वासों से नहीं प्रमाण या साक्ष्य के आधार पर चलता है। जैसे-जैसे राखीगढ़ी के उत्खनन से प्राप्त सामग्री को वैज्ञानिक पद्धति से परखा गया, संघी सूरमाओं व भगवाकृत प्रचार माध्यमों के होश उड़ गये। राखीगढ़ी का सच इनके लिए इस कदर कड़वा था कि इन्होंने चुपचाप खामोशी ओढ़ना बेहतर समझा। राखीगढ़ी को महाभारत कालीन सभ्यता का साक्ष्य बताने वाले भगवा चैनलों को भी सांप सूंघ गया। इक्का-दुक्का माध्यमों व मुख्यतः सोशल मीडिया के अलावा राखीगढ़ी का जिक्र भूले से भी प्रचार माध्यमों में नहीं आया। <br />
    आखिर क्या छुपा था राखीगढ़ी के उत्खनन से प्राप्त नगर सभ्यता के अवशेषों व अन्य सामग्री में जिस पर भगवा ब्रिगेड की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी और प्राचीन भारत का गुणगान करने वाले संघी भारत में अब तक प्राप्त सबसे प्राचीन नगर सभ्यता से आंखें चुराने लगे। इतिहास को अपने नस्लीय श्रेष्ठताबोध के पूर्वाग्रहों से देखने की कोशिश करने वालों को इतिहास में सदा झूठ का सहारा लेना पड़ता है लेकिन खुद इतिहास इस झूठ को बार-बार बेपर्दा कर देता है। कुछ ऐसा ही राखीगढ़ी में हुआ।<img alt="" src="/newsImages/180916-061821-2.bmp" style="border-width: 1px; border-style: solid; width: 314px; height: 182px; margin: 1px; float: right;" /><br />
    राखीगढ़ी में नगर सभ्यता की खोज व उसके उत्खनन से प्राप्त अवशेषों व सामग्री ने एक बार फिर आर्यों से पूर्व भारत में एक विकसित सभ्यता होने की बात  प्रमाणित कर दी है। साथ ही इस खोज ने भारत के मूल निवासी के रूप में द्रविड़ लोगों के दावे को मजबूती प्रदान की है। <br />
    सर्वप्रथम 1963 में हरियाणा के हिसार में सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेष मिले थे। इसे हड़प्पा नगर सभ्यता के विस्तार के रूप में मान्यता मिली। 1998 से 2001 के बीच यहां खुदाई हुई उसमें भी कुछ अवशेष मिले। इसके पश्चात 2014 से एक बार फिर यहां उत्खनन किया गया। 2015 से टीला नम्बर 7 में व्यापक खुदाई शुरू हुई। इसका परिणाम यह निकला कि यहां पर हड़प्पा सभ्यता के अवशेष ही नहीं बल्कि भरी-पूरी नगर सभ्यता प्रकट हो गयी। जो अपने क्षेत्रफल में हड़प्पा व मोहनजोदड़ों से आकार में बड़ी बतायी जा रही है। <br />
    हड़प्पा सभ्यता की तरह राखीगढ़ी में एक सुव्यवस्थित नगर प्रणाली थी। इस नगर सभ्यता में हड़प्पा की तरह पक्के ईंटों से बने घर, धातुकर्म के साक्ष्य, अनाज के कोठार, एक-दूसरे को लम्बवत काटते हुए मार्ग व मार्गों के किनारे नालियां बड़े भवन, कलाकृतियां आदि मिली हैं। ईंटों के आकार व टैराकोटो पेन्टिंग व मृदभांडों से इस सभ्यता की हड़प्पा सभ्यता से बहुत करीबी समानता दिखाई दी है। <br />
    राखीगढ़ी में उत्खनन के दौरान कब्रें भी मिली हैं। इनमें से एक कब्र 4500 साल पुरानी बताई गई है।<br />
    इन कब्रों के कंकालों का डीएनए परीक्षण कर इनकी जैविक कड़ी का पता लगाने के लिए पुणे के डेक्कन कालेज के प्रोफेसर बसंत शिंदे व उनकी टीम राखीगढ़ी पहुंची इसके अलावा दक्षिण कोरिया व हैदराबाद के वैज्ञानिकों का दल भी पहुंचा। इन वैज्ञानिक दलों ने 4500 साल पुराने कंकाल के डीएनए परीक्षण में पाया कि उसमें आर-वन ए-वन (R1A1) जीन नहीं है।<br />
    आर-वन ए-वन जीन आर्य नस्ल के लोगों में पाया जाता है। आज भी उत्तर भारतीयों में 15 से 17 प्रतिशत आर-वन ए-वन जीन पाया जाता है। इससे यह बात साबित हुई कि राखीगढ़ी सभ्यता के लोग आर्य नहीं थे। राखीगढ़ी के कंकालों में मौजूद जीन दक्षिण भारतीयों के जीन से काफी कुछ समानता लिए पाए जाते हैं। यानी इससे यह बात साबित होती है कि राखीगढ़ी सभ्यता के लोगों का निकट सम्बन्ध दक्षिण भारतीय लोगों से है।<br />
    द्रविड़ मूल के लोग यह मानते रहे हैं कि आर्य आक्रमणकारियों ने उन्हें बलपूर्वक विन्ध्य के पार दक्षिण में धकेला था। राखीगढ़ी के अवशेष दक्षिण भारतीयों के दावे की पुष्टि करते हुए लगते हैं।<br />
    संघ परिवार भले ही न माने लेकिन यह स्थापित बात रही है कि आर्य भारत में ई.पूर्व 1800 से आना शुरू हुए। आज से लगभग 3800 साल पहले। आर्य कैस्पियन सागर व मध्य एशिया के स्तेपी प्रदेशों से आये थे। जिनके ऐतिहासिक प्रतीक उनके घोड़े (अश्व) व रथ थे। जिस समय आर्यों का भारत में आगमन हुआ उस समय सिंधु नदी सभ्यता अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी। आर्यों से उसका मुकाबला हुआ या नहीं यह अभी स्पष्ट नहीं है। लेकिन क्योंकि अभी तक सिंधु सभ्यता की लिपि पढ़ी नहीं जा सकी है। लेकिन वेदों से लेकर अन्य आर्य साहित्य से यह पता चलता है कि आर्यों का भारत में पहले से बसी आबादी से टकराव हुआ जिन्हें आर्य दस्यु, दास या असुर-दैत्य आदि कहते थे।<br />
    हिन्दू पुनरुत्थानवादियों के लिए आर्यों के बाहर से आने की बात कभी स्वीकार्य नहीं रही क्योंकि इससे उनकी लाखों वर्ष पुरानी सभ्यता होने, वेदों की रचना सृष्टि के साथ होने यानी अपनी आर्य सभ्यता के आदि-अनादि-सनातन होने का मिथक ध्वस्त हो जाता है। साथ ही मुसलमानों, ईसाईयों को विदेशी मूल का बताकर उनके खिलाफ विदेशी होने के पूर्वाग्रह भी ध्वस्त हो जाते हैं।<br />
    इसलिए हिन्दू पुनरुत्थानवादियों ने आर्यों की उत्पत्ति की हमेशा मनमानी व्याख्या की है। स्वामी दयानंद मानते थे कि आर्य भारत में सनातन रूप से रहे हैं। 10,000 साल पहले तिब्बत से भारत में आये थे। बाल गंगाधर तिलक मानते थे कि आर्य आर्कटिक से भारत में आये। इसी तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख्य सिद्धांतकार गोलवलकर भी तिलक की तरह मानते थे कि आर्य आर्कटिक से आये थे लेकिन उनके अनुसार तब आर्कटिक भारत का हिस्सा था। लेकिन विज्ञान के आगे इस तरह की मनगढ़न्त व पूर्वाग्रहों द्वारा कल्पित बातों की कुछ नहीं चलती है। झूठ को सच बनाने का जो भी उपक्रम किया जाता है वह हास्यास्पद साबित होता है। जैसा कि एक संघी इतिहासकार ने सिंधु सभ्यता के एक बैल के सिर को घोड़े का रूप देकर सिंधु सभ्यता को आर्य सभ्यता साबित करने की हास्यास्पद कोशिश की थी। बहरहाल राखीगढ़ी के उत्खनन से प्राप्त साक्ष्यों ने एक बार फिर आर्यों को मूल निवासी बताने के संघी व हिन्दुत्ववादी तत्वों के प्रयासों को हास्यास्पद साबित किया है।

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