रामराज्य : न्यायपालिका और न्यायाधीश

रामराज्य के बारे में हिन्दू फासीवादी बताते हैं कि यह सुशासन और सुराज की व्यवस्था है जिसमें राजा और रंक में कोई भेद नहीं है। यह समग्र राजनीतिक व्यवस्था है जिसमें सामाजिक जीवन का प्रत्येक कोना धर्म के चार चरणों- सत्य, सोच, दया और दान पर आधारित होता है। इसमें सबको योग्य बनने के मौके और योग्यता के हिसाब से सब कुछ हासिल करने का अधिकार है। यहां न्याय और धर्म के तराजू पर राजा और रंक यानी शासक और शासित लोगों के बीच विशेषाधिकारों का भेद नहीं था। संघी फिर यह भी बताते हैं कि महात्मा गांधी के लिए रामराज्य सच्चे लोकतंत्र में से एक है जो राजा और निर्धन दोनों के अधिकारों की रक्षा करता है।
    
इसी रामराज को कायम करने की जद्दोजहद में मोदी और शाह की अगुवाई में भाजपा और संघी संगठन लगे हुए हैं। राजा और रंक की व्यवस्था संघियों को बेहद पसंद है जहां न्याय भी राजा करता है या फिर राजा के इशारे पर ही होता है। लोकतंत्र आम नागरिकों के मत यानी वोट से तय नहीं होता हो बल्कि कथित राजा की इच्छा पर निर्भर हो। संघियों के रामराज रूपी लोकतंत्र का इसीलिए मौजूदा पूंजीवादी लोकतंत्र से एक विरोध या द्वंद्व स्वाभाविक तौर पर बन जाता है इसका समाधान  तमाम तरीके से फकीर मोदी और उनकी सरकार करने में लगी हुई है। 
    
पिछले साल मई में नई संसद के उद्घाटन के जरिए भी मोदी और मोदी सरकार इसी अंतर्विरोध को हल कर रही थी तब सेंगोल यानि राजदंड को स्थापित किया गया और मोदी ने परोक्ष रूप से अपना राज्याभिषेक भी करवा लिया। फिर इस साल 22 जनवरी को भी राम प्राण प्रतिष्ठा कर व्यवहार में राम राज की घोषणा मोदी जी ने कर ही डाली। 
    
रामराज में राजा और रंक दोनों को ही अपनी-अपनी हैसियत के अनुरूप आचरण करना है। अमीर व गरीब और मालिक व मजदूर, शासक व शासित, स्त्री और पुरुष, अलग-अलग वर्णों यानी हर किसी को अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करना है और करते रहना है। तभी समाज में संघी समरसता बहेगी। इस समरसता की राह में जो भी रुकावट बनेगा, रामराज के न्याय में उसका खात्मा ही धर्म है इस काम को अंजाम देना ही राजा का धर्म है यही राज धर्म है। यही रामराज के न्याय का आधार है। 
    
रामराज का सार है शासक की सेवा करना। यह सेवा भी परम भक्तिभाव से करना। जो कोई भी इसमें खलल डाले उसे अलग-थलग करना, उसे दंडित करना और कारागार में कैद कर देना। आखिरकार इस सेवा की एवज में मेवा तो मिलता ही है। पहले भी और बाद में भी। इसीलिए फकीर मोदी जी ने खुद को प्रधान सेवक कहा। महान फकीर की भक्तिभाव रूपी इसी सेवा में अरबपति अंबानी के बेटे की शादी से पूर्व के कार्यक्रम के आयोजन के लिए जामनगर के सामान्य एयरपोर्ट को अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट में रातों रात बदल देने का रहस्य छिपा हुआ है। इसी में अरबपति गौतम अडाणी के लिए दिन-रात एक करके सारे नियम कायदों को ताक पर रख देने का मर्म छुपा हुआ है।
    
मोदी और उनकी सरकार के इसी भक्तिभाव को न्यायपालिका ने भी एहसास किया है या फिर इन्हें एहसास कराया गया है। न्यायपालिका रामराज के अनुरूप काफी हद तक ढल चुकी है। कई न्यायाधीश इस रामराज में मालिक की सेवा के लिए बेचैन हैं। कई तो पहले ही सेवा की नुमाइश कर चुके हैं। भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और यू पी के एडिशनल सेशन जज कुमार दिवाकर से लेकर कलकत्ता हाइकोर्ट के न्यायाधीश अभिजीत गंगोपाध्याय तक। इस सेवा भाव के जरिए मेवा के रूप में बहुत कुछ हासिल किया जाता है। 
    
रंजन गोगोई को राज्य सभा के लिए भाजपा द्वारा नामित किया गया था। गोगोई रामराज्य की राह को सुगम करने वालों में थे। राम मंदिर मामले में संघियों के पक्ष में फैसला सुनाने वाली टीम का हिस्सा रंजन गोगोई भी थे। यही नहीं, राफेल भ्रष्टाचार मामले में भी मोदी और उनकी सरकार को बचाने वालों में गोगोई महोदय ही थे। सुप्रीम कोर्ट के जज एम आर शाह ने प्रधान सेवक मोदी को दूरदर्शी और जीवंत कहा। सुप्रीम कोर्ट के ही एक अन्य जज अरुण मिश्रा ने प्रधान सेवक को जीनियस बताया। उन्होंने कई मामलों में प्रधान सेवक की सरकार के काम को आसान किया, बदले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मुखिया का पद उन्हें मेवा के रूप में हासिल हुआ। इधर गंगोपाध्याय भी इस्तीफा देकर भाजपा की ओर से लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले हैं। 
    
इसी तरह ज्ञानवापी मामले में पुरातात्विक विभाग को सर्वे का आदेश वाराणसी के डिस्ट्रिक और सेशन जज अजय कृष्ण विश्वेश ने दिया। बाद में इन्हीं महोदय ने ज्ञानवापी मस्जिद को हिन्दू पक्ष को सौंपने व वहां पूजा करने का फैसला सुनाया था। यह सब 1991 के पूजा स्थल अधिनियम को किनारे रखकर किया गया, न तो सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगाई न ही निचली कोर्ट ने। रिटायर होने पर जज अजय कृष्ण को शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति बना दिया गया। 
    
आखिरकार रामराज में सामाजिक राजनीतिक जीवन को धर्म से ही शासित होना है। इसलिए धार्मिक स्थलों को रामराज के अनुरूप ढालने के काम में न्यायपालिका शिद्दत से लगी हुई है।     
    
कुछ न्यायाधीश तो प्रधान सेवक के दौर से पहले ही रामराज की सेवा में तत्पर थे। कई प्रधान सेवक के दौर में उनके जरिए इस काम में जुट गए हैं। हालांकि अभी भी कई हैं, जो रामराज की महिमा नहीं समझते। इसलिए वे धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते हैं। उन्हें शायद नहीं मालूम कि प्रधान सेवक के प्रधान मालिक अडाणी-अंबानी की चाहत ही यही है। 
    
अभी सुप्रीम कोर्ट के जज अभय एस कोका ने कहा कि अदालती कार्यक्रमों में पूजा अर्चना नहीं करनी चाहिए बल्कि कार्यक्रम की शुरुआत से पहले संविधान की प्रस्तावना की एक प्रति के सामने झुककर धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देना चाहिए। मगर समझदार धार्मिक भक्त जजों की कमी नहीं है एडिशनल सेशन जज कुमार दिवाकर ने कह दिया कि सत्ता का मुखिया एक धार्मिक व्यक्ति को होना चाहिए, धार्मिक व्यक्ति का जीवन भोग नहीं बल्कि त्याग और समर्पण का होता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ में उन्हें दार्शनिक राजा नजर आता है क्योंकि वो एक धार्मिक व्यक्ति हैं। 
    
न्यायाधीश इस कदर भक्ति में लीन हों तो न्यायपालिका की स्थिति समझ में आ सकती है हालांकि कुछ मामलों में इसकी एक वजह जस्टिस लोया वाली घटना भी हो सकती है। जस्टिस लोया रामराज लाने वाले मोदी और शाह की राह में रुकावट बन रहे थे, इसलिए उनको रास्ते से ही हटा दिया गया। सर्वोच्च न्यायपालिका में यह मामला जांच के लिए गया मगर कहा जाता है कि जस्टिस अरुण मिश्रा ने इस मामले को भी जस्टिस लोया की ही तरह ही निपटा दिया। ऐसे में रामराज में सेवा भाव से विरत होने का खतरा कौन न्यायाधीश मोल लेगा! 
    
न्याय की अवधारणा को भी पलट कर हिन्दू फासीवादी अपने इसी रामराज के हिसाब से ढाल चुके हैं। आम तौर पर ये लोग; किसी पर आतंकवादी, भ्रष्टाचारी या फिर देश विरोधी होने का आरोप लगाते हैं। पहले आम तौर पर लंबी कानूनी प्रक्रिया में सबूतों और तर्कों के बाद किसी आरोपी पर जब आरोप साबित हो जाते थे, तभी आरोपी को अपराधी कहा व माना जाता था। मगर आज तो आरोपी का मतलब अपराधी है। न्यायपालिका आम तौर पर ही, संघियों के रामराज्य ने, जिन पर राजद्रोह (देश द्रोह) या आतंकवाद का मुकदमा दर्ज कर दिया है उनके साथ अपराधियों की ही तरह का बर्ताव करती है। सालों साल सुनवाई को टालकर, पुलिस को चार्जशीट में तमाम छूट देकर तमाम बहानों से जेल से बाहर निकलने देने के, जमानत के रास्ते पर भी कुंडली जमाए रहती है। 
    
रामराज्य के पैरोकारों के ‘‘बुलडोजर न्याय’’ ने तो, न्यायपालिका की जरूरत पर भी सवालिया निशान लगाए हैं। शायद इसीलिए न्यायपालिका भी अवैध अतिक्रमण के नाम पर आम लोगों विशेषकर मुस्लिमों के रिहायशी इलाकों और धार्मिक स्थलों को बुलडोजर से ध्वस्त कर देने का आदेश देते रहती है। यह इस हद तक है कि जब संघी सरकार आजादी के बाद बने भूमि सुधार कानून और जमींदारी उन्मूलन कानून को ठेंगा दिखाकर, ब्रिटिश सरकार के जमाने की जमीन और जंगल की स्थिति का हवाला देकर भी लोगों के रिहायश व खेतों को जंगल घोषित कर देती है और कई दशकों से वहां रह रहे लोगों को अवैध कब्जाकारी घोषित कर देती है तब न्यायपालिका भी इस पर अपनी मोहर लगा देती है।
    
न्यायपालिका को, इसीलिए नागरिकता संशोधन कानून के घोर साम्प्रदायिक रुख पर कोई खामी नजर नहीं आई। पहले प्रधान सेवक की सरकार को प्रजा के एक हिस्से के सड़कों पर उमड़ आने से पीछे हटना पड़ा था। अब एक बार फिर से एन.आर.सी. और एन.पी.आर. पर चुप्पी के साथ मोदी सरकार तीन पड़ोसी देशों के कथित उत्पीड़ित गैरमुस्लिम अल्पसंख्यकों को नागरिकता देकर स्वागत करेगी। न्यायपालिका इस बार भी चुप रहेगी। कुछ गिने-चुने मामलों में जरूर अभी न्यायपालिका संघी सरकार से दूरी बनाने की कोशिश करती है हालांकि यह संघियों के रामराज से कोई दूरी नहीं है। 
    
कुल मिलाकर संघी रामराज का अधिकतर न्यायाधीश लुत्फ उठा रहे हैं कुछ ही इससे बचे हैं। न्यायपालिका भी संघी रामराज को कायम करने में जुटी हुई है। प्रधान सेवक अपने मालिकों की सेवा में, जिन आम नागरिकों को अपनी प्रजा बना देने में दिन-रात एक कर रहे हैं जो उनकी दया और दान पर जिएगी। न्यायपालिका इसी मन्तव्य को आगे बढ़ा रही है।  

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