अभी भी अनुत्तरित हैं कोविड से पैदा हुए प्रश्न

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इस 7 मई को सरकार ने वर्ष 2021 में देश में हुई मौतों के मेडिकल सर्टिफिकेट की रिपोर्ट जारी की। इससे पहले वर्ष 2020 की रिपोर्ट 25 मई 2022 को जारी हुई थी। इस आधार पर वर्ष 2021 की रिपोर्ट दो वर्ष की देरी से जारी की गयी है। रिपोर्ट जारी करने में दो वर्ष की यह देरी इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि सरकार पर कोविड-19 से हुई मौतों को छिपाने का आरोप कई संस्थाओं द्वारा लगाया गया था। दो वर्ष देरी से आयी इस रिपोर्ट ने भी सरकार पर लगे आरोपों को पुष्ट ही किया है। 
    
7 मई को जारी यह रिपोर्ट देश में हुई मौतों के राज्य सरकारों द्वारा किए गये पंजीकरण के आधार पर तैयार की गयी है। हर वर्ष ऐसी रिपोर्ट तैयार करने की जिम्मेदारी भारत सरकार के रजिस्ट्रार जनरल एंड सेंसस कमिश्नर की है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश में वर्ष 2021 में वर्ष 2020 की तुलना में 21 लाख अधिक मौतें हुई हैं। सरकारी स्वीकारोक्ति के अनुसार देश में कोविड से मात्र 5 लाख मौतें ही हुई हैं। 
    
वर्ष 2022 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी वर्ष 2020 और वर्ष 2021 में सामान्य से 47 लाख अधिक मौतों का दावा किया था। यह सरकार द्वारा इन दो वर्षों के लिए 4.8 लाख अतिरिक्त मौतों के अनुमान से 10 गुना ज्यादा था। उस वक्त सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों को यह कहकर खारिज कर दिया था कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की मौतों की गणना की पद्धति त्रुटिपूर्ण है। लेकिन अब 2021 में हुई मौतों के पंजीकरण के आंकड़ों से जब 2021 में हुई मौतों में 26 प्रतिशत की वृद्धि दिखाई दे रही है तब इसकी कोई व्याख्या सरकार ने अब तक नहीं की है। 
    
कोविड महामारी के समाप्त हो जाने के बाद भी सरकार इस महामारी के दौरान देश द्वारा चुकायी गयी कीमत को छिपाने की हर कोशिश कर रही है। इस सबके बावजूद इन मौतों से पैदा होने वाले सवालों से यह नहीं बच सकती। 

आलेख

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भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

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आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

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युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

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हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

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अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।