आपका नजरिया - मजदूर मेहनतकश परिवार और पतित पूंजीवादी संस्कृति

आज हम जिस समाज में रह रहे हैं वह सड़ गल रहा है। समाज में नैतिकता, सामूहिकता का पतन हो रहा है। उससे मजदूरों-मेहनतकशों के परिवार भी अछूते नहीं हैं। तथाकथित आधुनिक जीवन शैली के दौर में ‘मैं’ की भावना ने ‘हम’ की भावना को तार-तार कर दिया है। व्यक्ति केवल अपने व्यक्तिगत सुख के बारे में ही सोच रहा है, पैसे का बोल बाला है। ‘खाओ पियो ऐश करो’ की संस्कृति का बोल-बाला है। परिवार टूट रहे हैं। लोग अकेलेपन के शिकार, मनोरोगी, स्वार्थी बनते जा रहे हैं।
    
कहा जाता है कि परिवार नामक संस्था सुखी जीवन का आधार होती है। उसी के साथ संस्कार, मूल्य, प्रथाएं, त्यौहार सब कुछ फलते-फूलते रहे हैं। लेकिन इस पतित पूंजीवादी समाज में बदलाव के बाद वे केवल दिखावा और औपचारिकता रह गए हैं। पिछले समाज में परिवार को एक आदर्श परिवार के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। जिसमें परिवार हर तरह से अपनों के लिए संघर्ष करता आया है, हर समस्या में उनका साथ देता है। लेकिन इस पूंजीवादी समाज में ऐसा नहीं हो रहा है, एकल परिवार परम्परा बढ़ रही है, एकल परिवार भी टूटकर एकाकी व्यक्ति अपना जीवन जी रहा है।
    
इस पूंजीवादी समाज से पहले एक समाज था जहां गैर बराबरी थी, गरीबी थी, लेकिन मेहनतकशों के परिवारों के सदस्य एक-दूसरे के लिए त्याग करने को तत्पर रहते थे। सामूहिकता और समर्पण की भावना सर्वोपरि थी, रिश्तों की कद्र थी, भावनाएं व्यक्ति के लिए महत्त्व रखती थीं। 
    
लेकिन वाआज इस समाज में पैसे का बोल-बाला है। सब कुछ बाजार के हले है और बाजार का केवल एक ही उद्देश्य होता है- अधिक से अधिक पैसा/लाभ कमाना। लाभ कमाने के लिए केवल वस्तुओं का क्रय-विक्रय नहीं होता, अब तो भावनाओं, रिश्तों, संबंधों का भी क्रय-विक्रय होने लगा है, रिश्तों को भी बाजार ही तय करने लगा है। हर चीज बाजार में तैयार माल के रूप में उपस्थित है, सिर्फ जेब में पैसे होने चाहिए। इस पैसे पर आधारित समाज ने सच कर दिखाया कि बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया। दूसरों की मेहनत को हड़पने की मानसिकता तैयार की गई है। इसी मानसिकता ने घर-घर में दूरियां बढ़ा दी हैं, रिश्तों में दरारें डाल दी हैं। लोग आज संपत्ति, जमीन या पैसों के लिए एक-दूसरे की हत्या करने से भी नहीं चूकते। यही कारण है कि आज चारों तरफ समाज में अविश्वास, क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, धोखा, हिंसा, तनाव दिखाई देता है। रिश्तों की बुनियाद केवल पैसों पर आधारित हो गयी है। चाहे बाप-बेटा हो, मां-बेटी हो, सास बहू हो या फिर भाई-भाई। 
    
हम अपने आस-पास ऐसी घटनाएं होते देख रहे हैं। बेटे के नशा करने के लिए अगर मां पैसा नहीं देती है तो बेटे मां को गाली-गलौच के साथ-साथ मारने से भी पीछे नहीं हटते हैं। जबकि बेटा जानता है कि घर की जरूरतें भी मुश्किल से पूरी हो रही हैं लेकिन उसे कोई मतलब नहीं है।
    
अपने व्यक्तिगत सुख के लिए एक मां अपनी तीन नौजवान लड़कियों और पति को छोड़कर अपनी उम्र से छोटे लड़के के साथ घर छोड़ कर चली जाती है इसकी परवाह किए बगैर कि उसके जाने के बाद उसकी बेटियों का क्या होगा? ऐसे ही एक पति अपनी पत्नी और बच्चों के होते हुए पत्नी के सामने ही पत्नी की छोटी बहन (साली) के साथ रहता है। जबकि पत्नी की बहन के भी बच्चे हैं और किसी दुर्घटना में उसके पति की मौत हो गई तो उसे भी अपनी तमाम जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी बहन के पति (जीजा) के साथ रहने में कोई दिक्कत नहीं है और बहन यह सोच कर चुप रहती है कि किसी और औरत के पास जाने से अच्छा मेरी बहन के साथ ही रहे। 
    
ऐसी ही एक घटना एक महिला की है जो अपने पति के शराब पीने, हर रोज गाली-गलौच, मार-पीट से तंग आ गई। जब उसने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो उसके पति और बच्चों ने उसके चरित्र पर आरोप लगाना शुरू कर दिया जिसके कारण वह उसी गांव में अलग किराए पर रहने लगी। कुछ समय बाद जो लड़की अपनी मां के चरित्र पर सवाल उठा रही थी जब घर में उसके साथ वही व्यवहार हुआ तो वह अपनी मां के पास आकर रहने लगी। मां ने किसी तरह उसकी जरूरतों को पूरा किया। कुछ समय बाद जब उसको लगा कि मेरी जरूरत पूरी हो गई और उसने शादी करने की सोच ली। तब वह फिर से अपनी मां पर वही इल्जाम लगाने लगी जो पहले लगाए थे। जब मां ने कहा कि वह कहीं काम करे, कमरे पर खाली न बैठे तो मां को डराने के लिए रेलवे स्टेशन पर मरने चली जाती है। अब उस लड़की को शादी भी अपनी पसंद किये लड़के से करनी है लेकिन अभी नहीं कुछ समय बाद करनी है। काम भी नहीं करना और जब तक शादी नहीं करेगी तब तक रहना भी मां के साथ ही है। सब कुछ अपनी खुशी के हिसाब से। मां ने कैसे किया कैसे करेगी उसको कोई मतलब नहीं है। 
    
ऐसे ही एक मजदूर जो शहर में आकर किसी तरह अपनी रोज की जरूरतों को पूरा कर गुजर-बसर करता है वह इस दिखावे की दुनिया में महंगा फोन किस्तों पर खरीद कर शानो-शौकत दिखाने की कोशिश करता है।
    
ये घटनाएं तो केवल नमूना भर हैं। कितना बिखर गया है आपसी रिश्तों का ताना-बाना। खाओ पियो ऐश करो और पतित पूंजीवादी संस्कृति व्यक्तियों में इतनी हावी है कि वह सिर्फ आज में जीता है। उसके लिए दिखावा, स्टेटस और ऐशो-आराम, केवल अपनी खुशी, दूसरों की मेहनत को हड़पना बहुत जरूरी हो गया है फिर इसकी कीमत भले ही उसका परिवार, उसकी मां, उसके बच्चे ही क्यों न झेलें। 
    
ऐसा हो भी क्यों नहीं क्योंकि आज के इस पतित पूंजीवादी समाज में ऊपर से नीचे तक ऐसी ही संस्कृति का बोल-बाला है। जहां गैर बराबरी मौजूद है। जहां देश की दौलत चंद लोगों के हाथ में है। वह अपनी दौलत को और ज्यादा बढ़ाने के लिए दूसरों की मेहनत को लूटते हैं। और दूसरों की मेहनत को लूटना न्याय संगत ठहराते हैं। उनके लिए किसी तरह की कोई नैतिकता नहीं है। वह केवल अपने लिए, अपनी खुशी के लिए जीते हैं। इसके लिए चाहे लोगों की जान भी जाए उनको कोई फर्क नहीं पड़ता है। पूंजीपतियों से लेकर नेता-मंत्री तक यही करते हैं। 
    
ये असल में पूंजीपतियों की पूंजीवादी संस्कृति है जिसमें पैसे वाले लोग तो मौज करते हैं और इसका असर मजदूरों-मेहनतकशों के परिवारों पर पड़ता है। क्योंकि मजदूर मेहनतकश जनता इसको अपनी संस्कृति समझ अपनाने की कोशिश करती है लेकिन उनकी परिस्थितियां इसकी इजाजत नहीं देती हैं।
    
मजदूरों-मेहनतकशों को इस पूंजीवादी संस्कृति के खिलाफ संघर्ष करना होगा और अपनी सामूहिकता, एकता, संघर्ष और बराबरी की संस्कृति को कायम करना होगा।   -नीता, हरिद्वार

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।