चुनाव परिणाम : ‘‘कोउ नृप होउ हमहिं का हानि’’..?

चुनाव परिणाम 4 जून को आयेंगे। उससे पहले ‘नागरिक’ का अंक प्रकाशित हो चुका होगा। सभी की उत्सुकता इस बात में स्वाभाविक रूप से होगी कि आम चुनाव का परिणाम क्या होगा। और उस चुनाव परिणाम से क्या भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के जीवन पर कोई फर्क पड़ेगा? 
    
क्या इस बात से कोई फर्क पड़ने वाला है कि मोदी सरकार वापस आ जाये या फिर इण्डिया गठबंधन की सरकार कायम हो जाये।
    
मंथरा की भाषा में कहें तो ‘‘कोउ नृप होउ हमहिं का हानि, चेरी छाड़ि अब होब कि रानी’’।
    
तुलसीदास रचित रामचरित मानस में मंथरा कैकेई से कहती है कि इस बात से उसे क्या फर्क पड़ता है कि कौन अयोध्या का राजा होगा। वह तो दासी है दासी ही रहेगी। वह कौन सी रानी बन जायेगी।
    
मंथरा की बात कुछ अर्थों में भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के लिए भी ठीक है कि इस बात से उन्हें क्या फर्क पड़ता है कि कौन भारत का राजा बनता है। उन्हें तो वही दो जून की रोटी का जुगाड़ करना है और रोटी के जुगाड़ में रात-दिन मेहनत-मजूरी करनी है। बहुत हुआ तो कोई पांच किलो राशन दे देगा तो कोई दूसरा दस किलो दे देगा। पांच-दस किलो से जीवन बसर नहीं होना है और फिर मंथरा के शब्दों में दास तो दास ही रहेंगे, वे कोई राजा तो हो नहीं जायेंगे।
    
मजदूरों-मेहनतकशों ही नहीं बल्कि कई अन्यों को भी लगता है कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन सा दल या गठबंधन जीतता है। इसकी एक अभिव्यक्ति इस रूप में होती है कि कहीं तीस तो कहीं पचास फीसदी से भी ज्यादा मतदाता मतदान करने नहीं जाते हैं। 
    
और चुनाव परिणाम की दृष्टि से देखा जाये तो जो भी दल या उसका उम्मीदवार जीतता है, उसे कुल मतदाताओं के एक बेहद अल्प हिस्से का ही समर्थन मिला होता है। जीते मतदाता के खिलाफ पड़े मतों और न पड़े मतों को जोड़ दिया जाये तो पाया जायेगा कि जीता प्रत्याशी एक अल्प आबादी का ही चहेता है और मतदाताओं की विवशता ये है कि उन्हें पांच साल तक उसी सांसद या विधायक को बर्दाश्त करना है जो जीत गया है। यही बात चुनी हुयी सरकार पर भी लागू हो जाती है।     
    
पूंजीवादी लोकतंत्र में मतदाताओं के पास प्रत्याशी को चुने जाने का अधिकार तो है परन्तु वापस बुलाने का अधिकार नहीं है। यह न्यूनतम जनवाद का तकाजा है कि मतदाताओं के पास वापस बुलाने का अधिकार भी होना चाहिए। 
    
यह भी पूंजीवादी लोकतंत्र की खासियत है कि जनता के तथाकथित प्रतिनिधियों सांसद-विधायकों और आम मजदूरों-मेहनतकशों के जीवन स्तर में जमीन-आसमान का अंतर है। अपने को फकीर कहने वाले देश के वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी की घोषित सम्पत्ति ही कई करोड़ रुपये की है। उनके मुख्य विरोधी की भी सम्पत्ति करोड़ों में है। और भारत के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति व अन्य गणमान्य जिस ठाट-बाट के साथ रहते हैं, उसके सामने तो अतीत के राजा-महाराजाओं के ठाठ-बाट कहीं भी नहीं टिकेंगे। 
    
हार-जीत इन धूर्त नेताओं के लिए मायने, बहुत मायने रखती है। इनके लिए हार-जीत जीवन-मरण का सा सवाल बन जाती है। जीत का मतलब करोड़ों के वारे-न्यारे, ठाट-बाट और रुतबा अलग से है। परन्तु हार का मतलब करोड़ों का वर्तमान और भावी नुकसान है। 
    
इस लिहाज से भी देखा जाए तो भारत के मजदूर-मेहनतकश तो दास हैं, दास ही रहेंगे। उनके हिस्से तो वही हाड़-तोड़ मेहनत और वही रोजी-रोटी का संकट। वही महंगाई, वही बेरोजगारी, वही गरीबी आने वाली है। 
    
तुलसीदास की यह पंक्ति की कि ‘‘कोऊ नृप होउ हमहिं का हानि...’’ भारत के जनमानस की सनातन भावना की अभिव्यक्ति है। भारत के सैकड़ों साल के इतिहास में यह बात बार-बार सामने आती रही है। भारत का सामाजिक-आर्थिक जीवन अंग्रेजों के आने के पहले लगभग स्थिर सा दिखायी देता है हालांकि राजनैतिक जीवन में, सत्ता के शीर्ष में खूब हलचल दिखायी देती है। एक के बाद एक राजा सिंहासन पर बैठते रहते हैं और उतारे या उतरते रहते हैं। नृप बदल जाता था परन्तु भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन में कोई खास अंतर नहीं पड़ता। कई दफा तो दासों को पता ही नहीं चलता था कि उनका नृप कौन है। और फिर दासों को, कौन सा राजा बनना था। 
    
क्या यह बात सही है कि चुनाव परिणाम से भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के ‘‘आधुनिक दासों’’ के जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ना है। निःसंदेह पड़ना है। मोदी की जीत का मतलब होगा कि हिन्दू फासीवादियों की सत्ता में वापसी हो रही होगी। इसका मतलब होगा कि काले कृषि कानून, सीएए जैसे कानूनों का नयी श्रंखला जनता के ऊपर थोपी जायेगी। मोदी-योगी के बुलडोजर मुस्लिम-ईसाईयों के आशियाने पर ही नहीं मजदूरों-मेहनतकशों की झुग्गियों पर और तेजी से अपना कहर बरसायेंगे। अम्बानी-अडाणी-टाटा-मित्तल-बिड़ला आदि की दौलत में और पंख लगेंगे। शेयर बाजार नाच उठेगा। और दुनिया भर के दक्षिणपंथी, फासीवादी मोदी की जीत पर खूब शोर मचायेंगे। इसके उलट यदि इण्डिया गठबंधन या कोई मिली-जुली सरकार बनती है तो और कुछ भी न होगा पर कम से कम हिन्दू फासीवादियों के सरकारी आतंक से कुछ राहत मिलेगी। कुछ राहत मेहनतकश, अल्पसंख्यक आदि उत्पीड़ित फौरी तौर पर महसूस करेंगे। 
    
हालांकि यह एकदम साफ है कि हार की हालत में हिन्दू फासीवादी शांत नहीं बैठेंगे। वे जख्मी पशु की तरह और आक्रामक हो जायेंगे। वे चाहेंगे कि नई सरकार एक दिन भी काम न कर सके और वे जितनी जल्दी हो सके सत्ता में वापस आ जायें। 
    
इस रूप में देखें तो हिन्दू फासीवाद का भारत पर जो खतरा मंडरा रहा है वह इनकी हार-जीत से कम नहीं होगा। हिन्दू फासीवादी आंदोलन का जब तक समूल नाश नहीं होगा तब तक यह भारत पर एक भयावह आतंक की तरह मंडराता ही रहेगा। 2004 की इनकी हार ने हिन्दू फासीवाद को तात्कालिक तौर पर कुछ नुकसान पहुंचाया परन्तु दस साल बाद जब ये वापस लौटे तो पहले से और तैयार और जहरीले बन चुके थे।
    
इसलिए ‘‘कोउ नृप होउ ..हानि’’ की मानसिकता से भारत के ‘‘आधुनिक दासों’’ को हर हालत में उबरना होगा। कोई भी हमारा नृप कैसे हो सकता है। हिन्दू फासीवादी जैसे नृप तो भारत के मेहनतकशों को रक्तहीन ही कर देंगे। 
    
बात उससे भी आगे जाती है कि कोई क्यों नृप हो और कोई क्यों दास हो। क्या ऐसा समाज नहीं बनाया जा सकता है जहां न कोई राजा हो न कोई दास हो। न कोई पूंजीपति और न कोई मजदूर हो। न कोई शासक हो और न कोई शासित हो। 
    
ऐसा समाज अवश्य ही बनाया जा सकता है। पहले पेरिस कम्यून (1871) में और फिर रूस में (1917) और फिर चीन में (1949) में एक-एक बार ऐसा करिश्मा किया जा चुका है। और यह करिश्मा फिर-फिर, बार-बार दुहराया जा सकता है। मजदूर, किसान जब-जब अपनी दासता के खिलाफ सचेत होंगे और उसको खत्म करने के लिए आगे आयेंगे तब-तब यह करिश्मा होता रहेगा। मजदूर, किसान घोषणा करेंगे न कोई हमारा ‘नृप’ होगा और न हम किसी के ‘चेरी’ होंगे। 
    
और आज की लड़ाई एक ऐसे समाज को जहां न कोई नृप हो और न कोई ‘दास’ हो की मुख्य लड़ाई को ध्यान में रखते हुए लड़ी और जीती जा सकती है। 

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