छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में छिंदवाड़ा गांव की कुल आबादी 6,450 है। इन 6,450 लोगों में छह हजार लोग आदिवासी समुदाय के हैं। साढ़े चार सौ लोग माहरा समुदाय के हैं। गांव में लगभग सौ लोग ईसाई समुदाय के हैं जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया। यहां पहले ईसाई मिशनरी आए तो बस्तर में कई आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपना लिया था। अब यहां पर हिंदुत्ववादी संगठनों का प्रभाव बढ़ा जो मूलतः आदिवासियों को हिंदू मानते हैं।
बस्तर जिले के छिंदवाड़ा गांव में सुभाष बघेल नाम के ईसाई समुदाय के व्यक्ति थे। इनकी मृत्यु 7 जनवरी को हो गई थी। वहां उनका पैतृक गांव है, घर है, जमीन है लेकिन वहां उनका अंतिम संस्कार नहीं हो सका क्योंकि वह ईसाई थे। जिस गांव में सुभाष बघेल के पिता ने जन्म लिया और मरने के बाद उनको दफनाया गया, मरने के बाद उनकी भाभी को वहीं दफनाया गया। जिस गांव में सुभाष बघेल ने जन्म लिया, जीवन बिताया, उसी गांव में पादरी रहे उसी गांव में उनको दफनाने के लिए दो गज जमीन भी नहीं मिली।
देश में पैतृक गांव में अंतिम संस्कार करने के लिए स्थानीय प्रशासन, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़े और उसके बाद भी उसका अंतिम संस्कार उस गांव में न हो सके। यह कोई सामान्य घटना नहीं है।
इस घटना को सुनकर मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की याद आ गई जो हिंदुस्तान के अंतिम बादशाह थे। जिन्होंने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाया था। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम विफल होने पर अंग्रेजों ने उनको सजा देकर रंगून भेज दिया, वहीं उनकी मृत्यु हो गई और उनको दफनाने के लिए हिंदुस्तान में दो गज जमीन भी नहीं मिली थी। यह काम गुलाम भारत में अंग्रेजों ने किया था। उनको अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने की सजा मिली थी।
आज स्वतंत्र, सर्व धर्म समभाव वाले भारत में एक धर्म विशेष के लोगों को उन्हीं के पैतृक गांव में अंतिम संस्कार की मंजूरी मांगना और सर्वोच्च न्यायालय का भी 20-25 किमी दूर दफनाने का फैसला अपने आप में दिखाता है कि देश किस ओर जा रहा है। वैसे सर्वोच्च न्यायालय के फैसला सुनाने वाली बैंच के न्यायधीशों ने टिप्पणी की, ‘‘हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि न तो पंचायत और न ही राज्य सरकार और न ही उच्च न्यायालय इस समस्या का समाधान कर पाए हैं’’। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने जो समाधान दिया वह यह कि गांव से 20-25 किमी दूर ईसाइयों के लिए बने कब्रिस्तान में सुभाष का अंतिम संस्कार किया जाए।
स्वतंत्र भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति के सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार का अधिकार भी शामिल है। इसके बावजूद भी न तो उच्च न्यायालय और न ही सर्वोच्च न्यायालय सुभाष बघेल का उसी के पैतृक गांव में अंतिम संस्कार करा सके।
यह दिखाता है कि नफरत की राजनीति का असर देश के कोने-कोने में फैल रहा है। देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के नाम पर जनता में मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ नफरत भरी जा रही है। लोगों की भावनाओं को भड़काकर आपस में लड़ाया जा रहा है। बस्तर में पिछले कुछ समय से इस तरह की घटनाएं बढ़ी हैं। आदिवासियों को हिन्दू और ईसाई के नाम पर लड़ाया जा रहा है। आदिवासियों में पहले ईसाई मिशनरी आईं तो बस्तर में कई आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपना लिया था। फिर यहां पर आर एस एस जैसे हिंदुत्ववादी संगठन आए जो मूलतः आदिवासियों को हिंदू मानते हैं। उन्होंने आदिवासियों के बीच नफरत को बढ़ाया जिसके कारण अब ऐसी कई घटनाएं देखने को मिल रही हैं।
लगभग तीन चार सालों से ये घटनाएं बढ़ रही हैं। कभी चर्च पर हमले करना, कभी गांव से ईसाई आदिवासियों का बहिष्कार करना तो कभी मरने के बाद उनका अंतिम संस्कार नहीं करने देना ये सब दिखाता है कि नफरत को किस हद तक परोसा जा रहा है।
देश के आदिवासी गांवों की एक परंपरा रही है। इसमें आपस में बैठकर हमेशा समस्या का समाधान निकालने की कोशिश करते थे। ऐसे मामलों में ज्यादातर तो गांव में आपस में सहमति बनाकर काम कर लेते थे। अब ऐसा नहीं है। अब आदिवासी समाज और ईसाई आदिवासियों दोनों ही लोगों को भड़काया जा रहा है। अब नफरत इतनी ज्यादा बढ़ा दी गई है कि कई बार ऐसा हुआ कि स्थानीय विरोध के बाद भी अगर ईसाई समुदाय के लोगों ने अंतिम संस्कार किया है तो उसके बाद विरोधियों ने कब्र खोदकर शव को निकालने तक का प्रयास किया है। इसके अलावा कई बार हिंसा की स्थिति भी पैदा हुई है। ऐसे कई मामलों में ईसाई आदिवासी समुदाय के लोगों को शव कहीं और ले जाकर दफनाना पड़ता है।
आर एस एस जैसे हिन्दूवादी संगठन जिस तरह से देश में नफरत भरी राजनीति कर रहे हैं। उन्हें जनता के जीवन की समस्याओं से कोई मतलब नहीं है। समाज में महंगाई, बेरोजगारी, महिला हिंसा, अपराध बढ़ रहे हैं जिससे हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई सभी परेशान हैं। इससे हिन्दू भी अछूते नहीं हैं।
हिंदूवादी संगठनों की इस राजनीति को समझने की जरूरत है कि हिन्दू राष्ट्र के नाम पर ये जनता के जनवादी अधिकारों को खत्म करना चाहते हैं, देश में तानाशाही थोपना चाहते हैं। सबको एकजुट होकर इनके खिलाफ लड़ने की जरूरत है। -एक पाठक
दो गज जमीन भी न मिली
राष्ट्रीय
आलेख
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आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।
ट्रम्प ने घोषणा की है कि कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य बन जाना चाहिए। अपने निवास मार-ए-लागो में मजाकिया अंदाज में उन्होंने कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को गवर्नर कह कर संबोधित किया। ट्रम्प के अनुसार, कनाडा अमरीका के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे अमरीका के साथ मिल जाना चाहिए। इससे कनाडा की जनता को फायदा होगा और यह अमरीका के राष्ट्रीय हित में है। इसका पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने विरोध किया। इसे उन्होंने अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता के खिलाफ कदम घोषित किया है। इस पर ट्रम्प ने अपना तटकर बढ़ाने का हथियार इस्तेमाल करने की धमकी दी है।
आज भारत एक जनतांत्रिक गणतंत्र है। पर यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को पांच किलो मुफ्त राशन, हजार-दो हजार रुपये की माहवार सहायता इत्यादि से लुभाया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को एक-दूसरे से डरा कर वोट हासिल किया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें जातियों, उप-जातियों की गोलबंदी जनतांत्रिक राज-काज का अहं हिस्सा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें गुण्डों और प्रशासन में या संघी-लम्पटों और राज्य-सत्ता में फर्क करना मुश्किल हो गया है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिक प्रजा में रूपान्तरित हो रहे हैं?
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।