हिन्दू फासीवादियों की आने वाली फिल्म

देश के संघी प्रधानमंत्री ने खुलेआम मंच से घोषित कर दिया है कि उनका दस साल का शासन तो महज फिल्म का ट्रेलर था, असल फिल्म तो अभी आने वाली है। यह फिल्म कब आयेगी, लोक सभा के वर्तमान चुनावों के बाद जिसमें भाजपा को 370 से ऊपर तथा राजग को 400 से ज्यादा सीटें मिलेंगीं। 
    
मोदी की इस घोषणा के बाद ही चारों ओर दहशत फैल गई। लोग भयभीत हो गये कि यदि ट्रेलर ऐसा है तो फिल्म कैसी होगी? क्या सभी पढ़े-लिखे नौजवान बेरोजगार रह जायेंगे? क्या सरकारी भर्तियां बिल्कुल बंद हो जायेंगी? क्या सारी सरकारी कंपनियां और बैंक बिना किसी दाम के अंबानी-अडाणी या टाटा-बिड़ला को सौंप दिये जायेंगे? क्या बैंकों में जमा लोगों का पैसा पूंजीपतियों को दे दिया जायेगा? क्या सारी राहत केवल पूंजीपतियों को मिलेगी? क्या किसानों की जमीनें जबर्दस्ती छीन ली जायेंगी? क्या सभी मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी मिलनी बंद हो जायेगी? क्या अस्सी करोड़ के बदले एक सौ तीस करोड़ लोग पांच किलो मुफ्त राशन पर जिन्दा रहेंगे?
    
कुछ ज्यादा राजनीतिक लोगों में यह आशंका घर कर गयी कि मोदी एण्ड कंपनी संविधान बदलना चाहती है। यह आशंका होना वाजिब भी है। संघ परिवार की हमेशा से ऐसी मंशा रही है। पिछले कुछ सालों में तो अक्सर ही ऐसी बातें भाजपाई नेताओं के मुंह से निकलती रही हैं। यहां तक कि एक सरकारी सलाहकार ने भी ऐसी बात कह डाली। 
    
संघ परिवार तथा मोदी सरकार के पिछले दस साल के रिकार्ड को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त भय और आशंका निराधार नहीं हैं। उनमें दम है। लेकिन बात इससे भी बड़ी है। 
    
पिछले दिनों यह बहस होती रही है कि मोदी शासन काल को कैसे परिभाषित किया जाये? उदारवादी दायरों में इसे ‘चुनावी एकतंत्र’, ‘सीमित जनतंत्र’ इत्यादि कहा जाता रहा है। वाम-उदारवादी कभी-कभी फासीवाद शब्द का भी उच्चारण करते रहे हैं हालांकि ज्यादातर नहीं मानते कि मोदी शासन फासीवादी शासन है। क्रांतिकारी दायरों में कभी-कभी छिटपुट बातें होती हैं कि वर्तमान मोदी शासन को फासीवादी शासन कहा जाना चाहिए। 
    
अब ऐसा लगता है कि मोदी ने स्वयं ही इस बहस में हस्तक्षेप किया है। उन्होंने स्वयं ही अपनी ओर से मामले को स्पष्ट करने की कोशिश की है। अपने दस साल के शासन को आने वाली फिल्म का ट्रेलर घोषित कर उन्होंने बता दिया है कि उनका असल इरादा फासीवादी निजाम कायम करने का है पर अभी वह निजाम नहीं है। अभी बस उस निजाम की झलकियां हैं। 
    
सच्चाई भी यही है। मोदी का दस साल का शासन फासीवादी निजाम का शासन नहीं है। फासीवादी या ज्यादा सही कहें तो हिन्दू फासीवादी पिछले दस साल से सत्ता में हैं। वे केन्द्र की सत्ता पर काबिज हैं तो साथ ही ज्यादातर प्रदेशों की सत्ता पर भी। तब भी देश में फासीवादी निजाम नहीं है। देश में फासीवादी निजाम को लेकर होने वाली बहस ही यह दिखाती है कि यह फासीवादी निजाम नहीं है। किसी भी फासीवादी निजाम में यह बहस नहीं हो सकती। जब तक किसी व्यक्ति के मुंह पर कहा जा सकता है कि तुम तानाशाह हो तब तक असल में वह तानाशाह नहीं होता। असल तानाशाह को उसके मुंह पर तानाशाह कहने की गुंजाइश खत्म हो जाती है। 
    
लेकिन देश में फासीवादी निजाम न होने पर भी यह तथ्य है कि हिन्दू फासीवादी सत्ता में हैं और उन्होंने पिछले दस सालों में फासीवादी निजाम की तमाम झलकियां दिखाई हैं। इन झलकियों की एक लम्बी फेहरिस्त है। हिन्दू फासीवादियों की फिल्म का ट्रेलर कुछ ज्यादा ही लम्बा हो गया है। या कहा जा सकता है कि चूंकि फिल्म दिखाने की स्थितियां अनुकूल नहीं हो पा रही हैं, इसलिए ट्रेलर ही बार-बार दिखाया जा रहा है। 
    
पर इसमें दो राय नहीं कि हिन्दू फासीवादी अपनी असल फिल्म या फासीवादी निजाम की फिल्म दिखाना चाहते हैं। वे सौ साल से इंतजार कर-कर थक चुके हैं। उन्हें लगता है कि अब नहीं तो कभी नहीं। इसीलिए हिन्दू फासीवादियों की वर्तमान घोषणा को पूरी गंभीरता से लिया जाना चाहिए। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

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