फिलिस्तीन नया वियतनाम बनने की तरफ

अक्टूबर माह से शुरू हुए फिलिस्तीन पर इजरायल के नए नरसंहार वाले युद्ध के 6 माह बीतते-बीतते अमेरिका में ऐसी परिस्थिति पैदा हो गयी है जो कि वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिका में पैदा हुए जन उभार की याद दिला रही है। इजरायली शासकों की क्रूरतापूर्ण कार्यवाहियों का पूरी दुनिया की न्यायपसंद जनता ने विरोध किया। इसी कड़ी में अमेरिका के अनेकों विश्वविद्यालयों में तमाम समुदायों के छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किये। ये छात्र न सिर्फ इजरायल के कब्जाकारी कदमों का विरोध कर रहे थे, बल्कि ये सीधे अमेरिकी सरकार को इस युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे थे। दिसम्बर माह से ही अमेरिकी सरकार और प्रशासन इन विरोध प्रदर्शनों को दमन के द्वारा समाप्त करने की कोशिश कर रहे थे। इसके बावजूद जब ये विरोध प्रदर्शन बंद नहीं हुए तो अमेरिकी समाज के फासीवादी तत्वों ने विश्वविद्यालयों के प्रशासकों की यह आलोचना करनी शुरू की कि ये प्रशासक पर्याप्त दमनकारी कदम नहीं उठा रहे हैं। कुछ प्रशासकों को उनके पद से भी हटाया गया और कईयों को अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के सामने जवाब तलब किया गया। 
    
ताजा घटनाक्रम न्यूयार्क शहर के मशहूर कोलंबिया विश्वविद्यालय के अध्यक्ष मिनोचे शफीक द्वारा इस तरह की पूछताछ के दौरान दिये गये बयानों से संबंधित है। शफीक ने सारी अकादमिक स्वतंत्रता और विरोध करने के जनवादी अधिकारों को तिलांजलि देते हुए जांच समिति को 17 अप्रैल को आश्वस्त किया कि प्रदर्शनकारियों को कड़े दंड दिये जाएंगे। समिति के रिपब्लिकन सदस्य खुलकर ऐसे कड़े कदमों की मांग कर रहे थे तो डेमोक्रेट सदस्य भी न्याय के इस नाटक में उनका साथ दे रहे थे। फिलिस्तीनी जनता को कुचलने की प्रक्रिया में वे अब अमेरिकी जनता को भी कुचलने में आमादा थे। 
     
पूरी सुनवाई के दौरान शफीक ने कोलंबिया वि.वि. में अपने द्वारा उठाए गये दमन के सभी प्रतिक्रियावादी कदमों की डींगें हांकी - जिसमें पांच संकाय सदस्यों को उनकी कक्षाओं से निकाल देना और 15 छात्रों और दो छात्र समूहों को निलंबित करना शामिल था। उन्होंने आगे चलकर और भी कड़े कदम उठाने का वादा किया। 
    
अगले दिन 18 अप्रैल को यह घृणित वादा निभाया गया। उन्होंने छात्रों के अहिंसक, युद्ध विरोधी जुटान को विश्वविद्यालय कामकाज के लिए खतरा बताया और न्यूयार्क पुलिस को बुला लिया। अगले घंटे में 108 लोगों की कलाई पर जिप बांध दी गयी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें आठ घंटे तक लॉकअप में रखा गया। अधिकांश पर अतिक्रमण या उच्छृंखल आचरण का आरोप लगाया गया। 1968 के बाद से कोलंबिया वि.वि. परिसर में यह सबसे बड़ी सामूहिक गिरफ्तारी थी। 
    
इन सामूहिक गिरफ्तारी ने अमेरिकी जनता के आक्रोश को और बढ़ा दिया है। कोलंबिया विश्वविद्यालय के छात्र फिर से एकजुट हुए और पुलिस द्वारा बंद किए गये छात्रों के शिविर के बगल में लॉन पर एक और विरोध शिविर लगाकर तुरंत केन्द्रीय परिसर पर फिर से कब्जा कर लिया। पूरे अमेरिका में और दुनिया भर में परिसरों ने अपने स्वयं के विरोध शिविर स्थापित किए। यह विरोध प्रदर्शन न्यूयार्क विश्वविद्यालय, येल विश्वविद्यालय, अमेरिकी विश्वविद्यालय, टेक्सास विश्वविद्यालय, ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी, पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय, मिशिगन विश्वविद्यालय, दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय तक पुलिस के दमन के बावजूद फैल चुका है। इनके अलावा ढ़ेरों अन्य शहरों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। 
    
यह सब 18 अप्रैल को कोलंबिया वि.वि. में गिरफ्तार एक युवा महिला के इस बयान की सच्चाई की ओर इशारा करता है, ‘‘मेरा मानना है कि आज एक चिंगारी थी जो पूरे कोलंबिया वि.वि. में, पूरे अमेरिका के परिसरों में फैलने वाली है...कोलंबिया को कोई अंदाजा नहीं है कि उन्होंने क्या उजागर किया है।’’

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।