सिर्फ कागजों पर ही हो रहा देश का विकास - सिर्फ पूंजीपतियों का विकास

आजकल मैं गावों में हूं और यहां का नजारा देख रहा हूं

1.उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में
    
दिनांक 15 जून 2024 को मैं गांव में लगने वाली एक बाजार में गया। मेरे पास सौ का नोट था। मैंने दस रुपए की सब्जी खरीदी और फिर पैसे दिए। दुकानदार बोला भाई खुले पैसे दो मेरे पास खुले पैसे नहीं हैं। मैं अगली दुकान पर गया वहां से भी बीस रुपए का सामान खरीदा लेकिन उसने भी पैसे खुले ही मांगे। आखिरकार कई दुकानों पर घूमने के बाद पैसे तो खुले हो गए, लेकिन एक अहसास जरूर हुआ वो यह कि मात्र सौ रुपए के खुले कराने के लिए पूरे बाजार में घूमना पड़ा। मगर हमारी सरकारें देश को विकसित बना दिया, ऐसा दावा करने में जरा भी नहीं हिचकतीं। दूसरा अहसास यह कि समाज में एक तरफ तो लोग कई सौ करोड़ रुपयों में खेलते हैं और दूसरी तरफ लोगों के पास सौ रुपए तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। आज महंगाई चरम पर है वहीं ढेरों लोगों की रोज की आमदनी सौ रुपए से भी कम ही है। आज डिजिटल इंडिया का नारा देने वाली सरकार के शासन में भी छोटे-छोटे गांवों में अभी तक डिजिटल पेमेंट नहीं हो पा रहा है।

2. उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में
    
ठीक वैसे दिनांक 16 जून 2024 को एक अन्य बाजार में गया। यहां का भी हाल बिल्कुल वैसा ही था यहां तो पूरे बाजार में सौ रुपए के खुले मिले ही नहीं और मोबाइल से पेमेंट होता नहीं। क्योंकि आजकल मैं जहां हूं वह क्षेत्र काफी पिछड़े हुए क्षेत्र हैं और यहां के क्षेत्र सिर्फ आर्थिक रूप से पिछड़े नहीं है, बल्कि सामाजिक रूढ़िवादी सोच भी लोगों के अंदर मौजूद है।
    
उपरोक्त चिन्हित किए गए दोनों जगह की मैं बात करूं तो यहां मजदूरी भी बहुत सस्ती है। यहां कारचोबी (कपड़े पर हाथों से की जाने वाली डिजाइनिंग) का काम होता है तो एक सेट बनाने पर हजार रुपए मिलते हैं और उस सेट को तैयार करने में 15 से 20 दिन लग जाते हैं जबकि वही काम जब फैक्टरी में होता है तो उसी काम के काफी पैसे मिल जाते हैं। एक सूट की कढ़ाई जो कि हाथों से की जाती है और 2-3 दिन लगते हैं, को पूरा तैयार करके मात्र 100 रुपए ही मिलते हैं।
    
यहां गांव में एक बाप अपनी बेटी की पढ़ाई भी यह कहकर छुड़वा देता है कि जमाना सही नहीं है। लड़की के बाप के इस कथन से 2 बातें स्पष्ट हैं, पहली यह कि समाज और उस बाप का आर्थिक विकास और दूसरी यह कि आज जहां लड़कियां जेट प्लेन उड़ा रही हैं वहीं वह बाप अपनी बेटी को अपनी रूढ़िवादी सामंती सोच के चलते यह हवाला देता है कि जमाना सही नहीं है।
    
उपरोक्त घटनाओं से एक ही बात सामने निकल कर आती है कि समाज का जो पिछड़ापन है, समाज में जो रूढ़ियां मौजूद हैं, इसका कारण सिर्फ और सिर्फ एक ही नजर आता है कि समाज का समान विकास न होना। क्योंकि जैसे-जैसे आर्थिक विकास बढ़ता है वैसे-वैसे पुरानी कड़ी टूटती हुई चली जाती है लेकिन देहातों में सोच, परम्पराओं में अभी भी कहीं ना कहीं सामंती रूढ़िवादी सोच लोगों में मौजूद है। देश के नेताओं को चाहिए कि वह देश को प्रगति की ओर ले जाएं। लेकिन देश के नेता स्वयं प्रतिक्रियावादी हैं और वह स्वयं समाज को पीछे की ओर ले जाने की बात करते हैं।
    
इन सब समस्याओं का अंत एक ही व्यवस्था में हो सकता है और वह है समाजवादी समाज व्यवस्था। जहां सब का एक साथ और समान विकास होता है। 
        -दीपक आजाद, इमके 
 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।