मोदी-शाह, विपक्ष और अम्बेडकर

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भाजपा खासकर मोदी एवम् शाह ने यह उम्मीद नहीं की होगी कि ऐसा उनके साथ हो जायेगा। इक्कीसवीं सदी के ‘लौह पुरुष’ शाह के पुतले फूंके जायेंगे और उनकी तस्वीर को पांव से कुचला जायेगा। उन्हें इस तरह सफाई देनी पड़ेगी। और मामला इतना बिगड़ जायेगा कि एनडीए गठबंधन की बैठक बुलानी पड़ेगी और बाकी दलों से कहना पड़ेगा कि वे विपक्ष पर हमला करें। करारा जवाब दें। 
    
भाजपा खासकर शाह की फजीहत उनके बाबा साहेब अम्बेडकर पर दिये गये बयान से हुयी। इस बयान में शाह ने अम्बेडकर के नाम लेने को फैशन और यहां तक कह दिया कि लोग अम्बेडकर की जगह इतना नाम भगवान का लेते तो उन्हें सात जन्म का स्वर्ग मिल जाता। अमित शाह ने अपने लम्बे वक्तव्य में इसके आगे-पीछे अम्बेडकर की प्रशंसा और कांग्रेस-नेहरू की निन्दा में जो कुछ बोला वह सब कुछ एक झटके में ही धुल गया। उनकी मानसिकता की पोल खुल चुकी थी और विपक्ष ने वही काम किया जो मोदी एण्ड कम्पनी अक्सर करती है। बातों को इस तरह से घुमा देना कि अर्थ का अनर्थ हो जाये। यहां तो शाह सीधे-सीधे ही अम्बेडकर और उनके अनुयाइयों का अपमान कर रहे थे। विपक्ष को मौका मिल गया। 
    
संसद का यह सत्र और संविधान के ‘अमृत उत्सव’ के समय ऐसा हो जायेगा ऐसा मोदी-शाह ने शायद ही सोचा होगा। जब विपक्ष ने संविधान पर दो दिन की चर्चा की मांग की तो उन्होंने इस मांग को तुरन्त मान लिया। और इसे ऐसे मौके के रूप में लिया जहां विपक्ष खासकर कांग्रेस और उसमें गांधी परिवार की लानत-मलामत की जा सकती थी। परन्तु हो गया उलटा। अति आत्मविश्वास में और सनातनी अहंकार में अमित शाह ने अपना गुड़ गोबर करवा दिया। 
    
पहले ही विपक्ष ने आम चुनाव में संविधान बदलने, आरक्षण खत्म करने और लोकतंत्र को फासीवाद में बदलने की बातें करके चार सौ पार को दो सौ पार में समेट दिया था। और अब तो उन्हें लगा कि विपक्ष अम्बेडकर के बहाने उसे घाट-घाट का पानी पिलवा देगा। वैसे भाजपा-संघ के लोग अम्बेडकर का इस्तेमाल वैसे ही करते हैं जैसे वे राम का करते हैं। मुंह में राम बगल में छुरी। अम्बेडकर की माला जपो और मनुस्मृति वाला भारत बना दो। 
    
अम्बेडकर ने 25 दिसम्बर 1927 को मनुस्मृति का दहन करके साबित कर दिया था कि उनका रास्ता क्या है। और इसके करीब नौ साल बाद अम्बेडकर ने ‘जाति का उन्मूलन’ (एनहिलेशन आफ कास्ट) नाम से एक पुस्तिका 1936 में लिखी। यह असल में अम्बेडकर का एक भाषण था जो उन्हें लाहौर के ‘जात-पात तोड़क मण्डल’ के सालाना सम्मेलन में देना था। अम्बेडकर के भाषण के उग्र परिवर्तनकारी अंतर्वस्तु के कारण आयोजक डर गये और फिर उन्होंने स्वयं इस भाषण को प्रकाशित कराया। मनुस्मृति और जाति व्यवस्था की प्रशंसा करने और भारत के सनातन धर्म को भारत का प्राण बताने वाले हिन्दू फासीवादी भला अम्बेडकर को कैसे स्वीकार कर सकते हैं। अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म क्यों त्यागा इसका जवाब न तो मोदी न शाह दे सकते हैं। वे इस सवाल पर कभी नहीं आ सकते कि अम्बेडकर का यह कदम सही या गलत था। किरिण रिजिजू अपने बौद्ध होने और अम्बेडकर के नेहरू मंत्रिमण्डल छोड़ने का हवाला तो संसद में दे रहे थे परन्तु इस सवाल पर चुप थे कि क्यों अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म छोड़ा। उन्होंने हिन्दू भगवानों को न केवल मानना छोड़ दिया था बल्कि ‘जाति का उन्मूलन’ में तर्क सहित पौराणिक कथाओं की पोल खोली थी। उन्होंने ‘स्वर्ग-नरक’ की झूठी कहानी की खिल्ली ही उड़ायी थी। ‘सात जन्मों का स्वर्ग’ मिलने की बात करके अमित शाह उसी पाखण्ड-प्रपंच-झूठ को बढ़ावा दे रहे हैं जिसके खिलाफ अम्बेडकर जीवन भर लड़ते रहे। अम्बेडकर ने जिस बौद्ध धर्म को अपनाया था उसके प्रवर्तक महात्मा बौद्ध ने सैकड़ों साल पहले ही कह दिया था कि न भगवान है, न स्वर्ग और न नरक है। बाद में महात्मा बुद्ध के अनुयाइयों ने उन्हें भगवान बना दिया जैसे कि कई अम्बेडकर के अनुयाई अम्बेडकर को भगवान बताकर कर रहे हैं।  

आलेख

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संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

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