बुजुर्गों की बातें

‘करोगे याद तो हर बात याद आयेगी’ की तर्ज पर बुजुर्गों की बातें भी याद आती हैं। वो बुजुर्ग इस दुनिया में तो नहीं हैं लेकिन फिर भी उनको कहना चाहता हूं कि तुम्हारी बतायी हुई बातें या तो गलत थीं या दुनिया ही बदल गयी है। हिन्दी सिनेमा में अक्सर ये एक डायलॉग होता है कि मेरे पिता हमेशा ये कहते थे या मेरी मां हमेशा ये कहती थी। ऐसे डायलाग को सुनकर बचपन की कुछ बातें याद आती हैं। ‘कभी भी मेहनत से जी न चुराओ’, ‘मेहनत करने वाले को हर कोई पसन्द करता है’, ‘हाथ में हुनर होना चाहिए’ लेकिन लम्बे अर्से बाद ऐसा लगता है कि ये बातें सही नहीं हैं। कितनी भी मेहनत कर लो आगे नहीं बढ़ सकते। मेहनत करने वाले लोग आज जानवरों से बदतर जिन्दगी जी रहे हैं। जो लोग मेहनत नहीं करते उन्हीं का राज सब जगह चलता है। फैक्टरी में जो लोग मेहनत से काम नहीं करते थे और काम चोरी करना जानते थे और बात बनाना जानते थे आज वह लोग फोरमैन और सुपरवाइजर बन गये और जो लोग सिर्फ अपनी मेहनत पर भरोसा करते थे, आज वह बुढ़ापे की तरफ बढ़ रहे हैं और उनकी नौकरी पर खतरा मंडरा रहा है। उनका हुनर उनके हाथों में था और हाथों की ताकत कम हो रही है और जबान की ताकत हमेशा बनी रहती है जब तक कि मरने की हालत न हो जाये। ऐसा हाल ही खूब मेहनत से पढ़ाई करने वालों का है। खूब मेहनत से पढ़ाई करने वाला इंजीनियर दिन भर माथा पच्ची करता है बिल्डिंग का नक्शा बनाने में लेकिन वह आदमी ऊपर जो बिल्डिंग बनाने का ठेका लेता है। आज बिल्डिंग बनाने के लिए टेन्डर निकालता है। आज किसी बडी बिल्डिंग को बनाने में न तो इंजीनियर बड़ा है और न ही उसमें लगे मजदूर। आज सबसे ऊपर है उस बिल्डिंग का टेन्डर निकालने वाले। विकास क्या होता है एक्सप्रेस वे, बाईपास, अन्डरपास, ओवरब्रिज, औद्योगिक कोरीडोर, रिंग रोड, टनल, हवाई अडडा, टर्मिनल, मैट्रो, रेपिड रेल, हवाई अड्डे जैसा आधुनिक रेलवे स्टेशन, मन्दिर कोरीडोर, धाम, ड्राई पोर्ट, बन्दरगाह, लॉजिस्टिक पार्क, मॉल, डबल डेकर, विस्टाडोम कोच, स्मार्ट फोन, स्मार्ट टीवी, एप, लक्जरी गाड़ी, सोशल मीडिया, चुनाव आयोग, चुनाव, ईवीएम, शपथ ग्रहण, मंत्रालय, सरकार, मंत्री आदि इन विकास के गूंजने वाले भारी भरकम शब्दो में कहीं भी मेहनत से कोई रिश्ता दिखायी नहीं देता। 
    
लेकिन दूसरी तरफ देखें तो मेहनत गटर की सफाई कर रही होती है, ए.सी. की सर्विस कर रही होती है, गैस पाइप लाइन बिछा रही होती है, आप्टीकल फाइबर तार डाल रही होती है, कारों की धुलाई कर रही होती है, कारों की सर्विस कर रही होती है, सुबह से ही मेहनत दूसरे के घरों से कूड़ा उठा रही होती है। इससे थोड़ा ऊपर की मेहनत लोहा छील रही होती है। कहने को तो लोहे की खोज ने सभ्यता के विकास ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी लेकिन इसी लोहे की खुदाई, ढलाई से लेकर उसके छीलने तक लगने वाली मेहनत आज मानवीय जिंदगी से दूर चली गयी। बंगाल का मजदूर दिल्ली के गटर साफ कर रहा है। साल भर लगता है नगर निगम में बैठे इंजीनियर को गटर सफाई के लिए प्रोजेक्ट को बनाने और इतना ही समय लगता है मंत्रालय को उसे पास करने में फिर दिन-रात शुरू होता है ठेकेदारी के तहत के काम। शोरूम से जब कोई लक्जरी कार निकल रही होती है तो दूसरी ओर कोई मेहनत करने वाला भी बड़ा हो चुका होता है जो रोज उस गाड़ी को साफ करेगा। ऐसे ही जब कोई ट्रक निकल रहा होता है तो उसके लिए भी किसी मां का बेटा तैयार हो चुका होता है ड्राइवर बनने के लिए जो दिन-रात उस गाड़ी को चलायेगा और पुलिस वालों की गालियां भी खायेगा। कहीं पुलिस का जवान गालियां देना और डंडा चलाना सीख रहा होगा ये सब विकास है।
    
मेहनत करने वालों की आज नयी प्रजाति बन गयी है जो बाजार की हर चीज को घर पहुंचा देते हैं। सुबह-सुबह पूजा के फूल से शुरू होकर, दूध, खाने-पीने की चीजें, पैकेज्ड फूड और मर जाने पर अर्थी वाली गाड़ी भी घर आ जाती है बॉडी को शमशान घाट पहुंचाने के लिए। जब कोई 55 साल का गिगमैन बाइक पर धूल फांकते हुए आनलाइन फूड का आर्डर लेकर पहुंचता है किसी के घर तो 15 साल का स्मार्ट ब्वाय उस पर गुस्सा करता है कि खाने को इतनी देर से क्यों लाया है। गिगमैन के पास समय नहीं कि वह उस पर सोचे, पैकेट देने के बाद अगले आर्डर को देने के लिए निकल पड़ता है। अब अगर इसकी इस बात से तुलना की जाय कि बच्चों को बड़ों की इज्जत करना चाहिए तो ऐसा लगता है कि यह पुराने जमाने की बात है नये जमाने में तो आर्डर देने वाला ही बड़ा होता है। 
    
दूसरी सीख थी कि सभी लोग बराबर हैं किसी को अपने से कमतर नहीं समझो लेकिन आज बराबरी का सिद्वान्त कहीं गुम सा हो गया है। हर एक देश, हर एक कौम, हर एक धर्म, हर एक जाति, हर एक नस्ल, हर एक संगठन, हर एक अनपढ़, हर एक समझदार किसी न किसी को अपने से कमतर समझता है। तानाशाही जम्हूरियत और लोकतंत्र को कमतर समझती है। जिन्दगी और मौत को बराबर समझने की सीख आज गलत साबित हो रही है। आज मौत जिन्दगी को कह रही कि तुम मुझसे कमतर हो। मौत नंगा नाच कर रही है और जिन्दगी मन्दिर-मस्जिद के नीचे दब गयी है। ऐसे ही ये कि अपने वतन से बढ़कर कुछ नहीं लेकिन आज लोग अपने ही देश में शरणार्थी हो जा रहे हैं। जो पंचों की राय वह अपनी राय की जगह मेरी राय ही पंचों की राय बन गया है। 
    
सारे रंग बराबर नहीं हैं। हरा रंग भगवा रंग से कमतर है। मस्जिद मन्दिर से कमतर है, दाढ़ी चोटी से कमतर है। जलाना और दफनाना दोनों बराबर नहीं हैं। जलता हुआ मुर्दा दफनाये गये से अपने का बेहतर समझता है। जो बार-बार अवतार लेते हैं वह बिना अवतार वालों से अपने को बेहतर और उम्दा समझते हैं। 
    
‘पहले आप पहले आप’ का सफर अब पहले मैं और बाद में भी मैं में बदल गया है। इंसान जानवरों से ही बना था लेकिन विकास करते-करते आज फिर वहां पर पहुंच गया है कि जानवरों जैसी हालत में पहुंच गया है। इंसान तभी तक इंसान बना रह सकता है जब तक वह समूह में रहता है अलग-अलग रहने पर वह जानवर या भीड़ बन जाता है जिसे किधर भी हांका जा सकता है और उसकी सोचने-विचारने की क्षमता को कुन्द किया जा सकता है। अकेला इंसान कितना भी तरक्की कर ले उसके अंदर वहशीपन बढ़ता जाता है। शासन करने वालों की ताकत यही है कि वे संगठित हैं और तानाबाना संगठित है, जैसे सेना और पुलिस। इसलिए मुट्ठीभर लोग इतनी बड़ी संख्या पर शासन कर रहे हैं। ये मुट्ठीभर लोगों की ताकत इसी में है कि ये लोग संगठित हैं। पुराने बुजुर्गों की बातें शायद सही थीं लेकिन जमाना ही बदल गया है। -एक पाठक 
 

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