एक वर्ष से अधिक समय तक चले जुझारू किसान आंदोलन के बाद जब मोदी सरकार तीन काले कृषि कानूनों को वापस लेने को मजबूर हुयी थी तब से ही ये आशंकायें लगायी जा रही थीं कि सरकार बड़ी एकाधिकारी पूंजी के हित में इन कानूनों की बातों को फिर से लागू करने का प्रयास करेगी। इन आशंकाओं को तब और बल मिला जब सरकार विद्युत वितरण के निजीकरण की प्रक्रिया अलग-अलग रूप में आगे बढ़ाती रही। अब 25 नवम्बर को सरकार द्वारा जारी न्यू एग्रिकल्चरल मार्केटिंग पालिसी फ्रेमवर्क ने इन आशंकाओं को पूरी तरह सच साबित कर दिया। उम्मीद के मुताबिक किसान संगठनों ने इस प्रस्तावित नीति का विरोध भी शुरू कर दिया है।
सरकार ने इस राष्ट्रीय विपणन नीति को घोषित करने के लिए न तो राज्य सरकारों और न ही किसान संगठनों से चर्चा की। जबकि संविधान के अनुसार कृषि उपज की खरीद राज्य सरकारों के भी अधिकार क्षेत्र में आती है। इस तरह यह नीति राज्य सरकारों के अधिकारों पर भी हमला है। पंजाब सरकार ने इस नीति का विरोध भी शुरू कर दिया है।
प्रस्तावित नीति देश में बढ़ते कृषि उत्पादन की तारीफ के साथ शुरूआत करती है फिर यह बताती है कि इस बढ़े उत्पादन का लाभ देश के करोड़ों छोटे-मझोले किसान नहीं उठा पा रहे हैं क्योंकि उनकी फसलों के उचित दामों पर विक्रय का इंतजाम नहीं है। इसके पश्चात विपणन इंतजामों को दुरुस्त करने के नाम पर नीति कृषि मंडियों की संख्या बढ़ाने के लिए सरकारी के साथ निजी मंडियां स्थापित करने की छूट देने, आधुनिक तकनीक, ब्लाक चेन तकनीक आदि के जरिये एकीकृत प्रतिस्पर्धात्मक बाजार स्थापित करने का सब्जबाग दिखाती है। इसी तरह भंडारण के क्षेत्र में यह सरकारी भंडारण के इतर बड़ी पूंजी द्वारा संचालित सेलो सरीखे भंडारगृहों को छूट देने की वकालत करती है। कुल मिलाकर यह नीति पूरे देश के स्तर पर कृषि उत्पाद की खरीद हेतु एक एकीकृत बाजार की स्थापना की बात करती है जिसमें बड़ी पूंजी को भी प्रवेश की छूट हो ताकि किसानों को कृषि उपज का सर्वोत्तम मूल्य मिल सके।
इसके साथ ही नीति कृषि उत्पादक संघों के गठन के साथ उन्हें बड़े व्यापारिक घरानों के साथ अनुबंध खेती व्यवस्था में उतरने का ख्वाब दिखाती है।
सरकार की सोच की दिशा बेहद स्पष्ट है। उसका मानना है कि चूंकि छोटे-मझोले किसानों को उनकी उपज का उचित दाम नहीं मिलता इसलिए वे परेशान हैं। यह उचित दाम उन्हें इसलिए नहीं मिलता क्योंकि देश में कृषि उपज खरीद का कोई एकीकृत बाजार नहीं है। इसलिए एक समय एक जगह पर किसान उपज औने-पौने दाम में बिचौलियों को बेच रहे होते हैं तो उसी समय देश में दूसरी जगह वही उपज भारी दाम पर बिक रही होती है। कृषि का एक देशव्यापी एकीकृत बाजार जहां बिचौलियों का खात्मा करेगा वहीं बड़ी पूंजी को निजी मंडियां स्थापित करने की छूट परस्पर प्रतिस्पर्धा में किसानों को अधिक बेहतर मूल्य मुहैय्या करायेगी। किसान देश के किसी भी कोने ही नहीं विदेशों में निर्यात करके भी अधिक दाम हासिल कर सकेंगे।
छुट्टे पूंजीवाद के आज के दौर में सरकार किसानों की खरीद-बेच को बाजार के हवाले करके यह विश्वास लगाये बैठी है कि बाजार सभी पक्षों का कल्याण करेगा। सरकार यह सच छुपा जाती है कि आज जब छोटे-मझोले किसान छोटे आढ़तियों-व्यापारियों के सामने औने-पौने दामों में फसल बेचने को मजबूर होते हैं तो कल अडाणी-अम्बानी के भी इस बाजार में उतरने पर उनकी हालत क्या होगी? स्पष्ट है कि बाजार में तुरंत फसल बेचने को मजबूर छोटे-मझोले किसान और देश के एकाधिकारी घराने आमने-सामने होंगे तो इसका परिणाम छोटे-मझोले किसानों की तबाही के रूप में ही सामने आयेगा। बड़ी पूंजी कृषि क्षेत्र को भी अपना मुनाफा कमाने का जरिया बना डालेगी।
दरअसल सरकार यह सब जानती है पर यह उसकी चिंता का सबब नहीं है सरकार और बड़ी पूंजी के लिए संकट का एक अर्थ है तो छोटे-मझोले किसानों के लिए उसका दूसरा अर्थ है। सरकार और पूंजीपतियों के लिए कृषि संकट का अर्थ है कि भारत उत्पादकता के मामले में दूसरे देशों से काफी पीछे है। यहां प्रति हेक्टेयर कृषि उपज विकसित देशों से काफी कम है। सरकार छोटी-छोटी जोतों, परम्परागत तरीकों से खेती को इसके मूल में मानती है अतः कृषि उत्पादकता बढ़ाने के नाम पर वह खेती को बड़ी पूंजी के हवाले कर उनसे वैज्ञानिक तौर-तरीकों से खेती कराने के जरिये उत्पादकता बढ़ाने की उम्मीद पालती है।
वहीं छोटे-मझोले किसानों की नजर से कृषि संकट उनके लिए खेती के घाटे का सौदा बनते जाने, उनकी निरंतर तबाही के संकट से जुड़ा है। उद्योगों व शहरों में रोजगार की खस्ता हालत के चलते वे कृषि कार्य छोड़ दूसरा पेशा अपना भी नहीं सकते। ऐसे में उनकी चाहत यही है कि उनकी छोटी जोत उन्हें सम्मानजनक गुजारे लायक कमाई दे सके।
ऐसे में बड़ी पूंजी के हितों में कार्यरत सरकार और छोटे-मझोले किसानों के हित एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। बड़े किसान इन दो छोरों के झगड़े में बड़़ी पूंजी के चंगुल में फंसना नहीं चाहते। वे अपने हितों की खातिर उत्पादकता बढ़ाने के साथ-साथ अपने लिए उचित दाम के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं।
किसान संगठन अपने हितों को देखते हुए उचित ही सरकार की इस नयी नीति का विरोध कर रहे हैं। वे सरकारी मंडियों, सरकारी खरीद व भण्डारण के इस नयी नीति के जरिये ध्वस्त होने और उन्हें बड़ी पूंजी के हवाले किये जाने को देखते हुए इस नीति में अपनी बर्बादी को देख पा रहे हैं। कहां तो वे मांग कर रहे थे कि सरकार हर उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य वो भी लागत का डेढ़ गुना दे पर सरकार अपनी खरीद को ही समाप्त करने पर उतारू है।
नयी नीति ठेका खेती और सरकारी कृषि मंडियों के खात्मे वाले कृषि कानूनों की दूसरे दरवाजे से वापसी है। यह छोटे-मझोले किसानों को बड़ी पूंजी के आगे तीव्र तबाही के लिए ढकेलने की नीति है इसलिए इसका विरोध किया जाना चाहिए।
साथ ही यह भी याद रखा जाना चाहिए कि पूंजीवादी व्यवस्था में सरकार से चाहे जितने संरक्षणकारी उपाय हासिल कर लिये जायें, छोटी-मझोली किसानी की तबाही नहीं रोकी जा सकती। अधिक से अधिक उसकी तबाही की गति को मद्धिम ही किया जा सकता है और किया जाना चाहिए पर उससे पूरी तरह बचा नहीं जा सकता। छोटे-मझोले किसानों के हित में है कि वो अपनी तबाही को धीमा करने के संघर्ष के साथ-साथ मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष में मजदूर वर्ग के साथ खड़ा हो। पूंजीवादी व्यवस्था के अंत और समाजवाद की स्थापना के जरिये ही वह बेहतर जीवन की ओर बढ़ सकता है।
नयी कृषि विपणन नीति : सरकार का किसानों पर पलटवार
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आज भारत एक जनतांत्रिक गणतंत्र है। पर यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को पांच किलो मुफ्त राशन, हजार-दो हजार रुपये की माहवार सहायता इत्यादि से लुभाया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को एक-दूसरे से डरा कर वोट हासिल किया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें जातियों, उप-जातियों की गोलबंदी जनतांत्रिक राज-काज का अहं हिस्सा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें गुण्डों और प्रशासन में या संघी-लम्पटों और राज्य-सत्ता में फर्क करना मुश्किल हो गया है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिक प्रजा में रूपान्तरित हो रहे हैं?
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।