सख्त कानून और उसके समर्थक

आज तेरह साल बाद बहुत कम लोगों को ‘अन्ना आंदोलन’ की याद रह गयी है। अन्ना हजारे स्वयं अपनी मांद में सिमट गये हैं जहां से कभी-कभी कुछ संघी पत्रकार विरोधियों को शर्मसार करने के लिए उनके बयान ले आते हैं। उस आंदोलन के असली सूत्रधारों यानी केजरीवाल एण्ड कंपनी की आम आदमी पार्टी के रूप में ही आज लोगों को कुछ धुंधली सी याद है। 
    
ठीक इसी कारण कम ही लोगों को याद है कि केजरीवाल एण्ड कंपनी सख्त कानूनों के घनघोर समर्थक के रूप में ही तब भारत के राजनीतिक पटल पर अवतरित हुए थे। उनकी लोकपाल कानून की धारणा एक ऐसे अत्यन्त सख्त कानून की थी जो लोकपाल को सभी चुनी हुई संस्थाओं और व्यक्तियों के ऊपर बैठा देती थी। तब ये लोग कहा करते थे कि देश में फैले व्यापक भ्रष्टाचार का एक ही इलाज है- पहले जेल में डालो और फिर जांच शुरू करो। तब बहुत सारे लोगों को, खासकर मध्यम वर्गीय लोगों को यह बात अच्छी लगती थी और वे इसीलिए उस आंदोलन का समर्थन करते थे। 
    
तेरह साल बहुत ज्यादा नहीं होते। लेकिन इन सालों में भारतीय राजनीति में कुछ ऐसा हुआ कि सख्त कानूनों के ये समर्थक स्वयं जेल में पहुंच गये। हुआ यूं कि सख्त कानूनों के कुछ दूसरे ज्यादा पुराने समर्थक इस बीच केन्द्र की सत्ता में काबिज हो गये और उन्होंने इन नवजातों को राजनीति में किनारे लगाने के लिए जेल में डाल दिया। मजेदार बात यह है कि इन नवजातों के आंदोलन ने ही पुरानों को सत्ता में लाने में भारी भूमिका निभाई थी। 
    
जेल में बैठे हुए सख्त कानूनों के ये समर्थक यानी केजरीवाल एण्ड कंपनी पता नहीं सख्त कानूनों के बारे में कुछ चिंतन-मनन कर रहे हैं या नहीं। हो सकता है वे न कर रहे हों। हो सकता है कि वे केवल यही सोच रहे हों कि अपनी बारी में वे कैसे बदला लेंगे। पर इससे सख्त कानूनों का सवाल गायब नहीं हो जाता। अपराध को नियंत्रित करने के लिए सख्त कानूनों की सोच एक फासीवादी प्रवृत्ति है। यह फासीवादी प्रवृत्ति अपराधों के सामाजिक कारणों को देखने से इंकार कर देती है। यह अपराधों के लिए व्यक्तियों को जिम्मेदार ठहराती है और इस तरह से शोषण, अन्याय-अत्याचार वाली व्यवस्था से ध्यान हटा देती है। इसीलिए पूंजीपति वर्ग इस प्रवृत्ति का समर्थन करता है। 
    
आज भारत की राजनीति में इस प्रवृत्ति की दो धाराएं हैं। एक धारा करीब सौ साल पुरानी है- हिन्दू फासीवादियों की धारा। यह मुख्यतः संघ परिवार द्वारा संचालित है हालांकि हिन्दू महासभा, शिवसेना इत्यादि इसकी सहोदर हैं। दूसरी धारा वह है जो तेरह साल पहले भारतीय राजनीति में अवतरित हुई। 
    
फासीवादी प्रवृत्ति की यह दूसरी धारा धर्मनिरपेक्ष नहीं है हालांकि वह इस समय धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वालों के साथ गठबंधन में है जैसे कि शिवसेना का एक हिस्सा। विचारधारात्मक तौर पर यह धारा पूरी तरह अवसरवादी है और उसे यह खुलेआम घोषित करने में शर्म भी नहीं है। मूलतः हिन्दुओं की ओर झुकी हुई यह धारा जरूरत पड़ने पर हिन्दू फासीवादियों जैसा ही व्यवहार कर सकती है। समय-समय पर इसने इसका परिचय भी दिया है। 
    
आज यह तथाकथित धर्म निरपेक्ष पार्टियों का दिवालियापन ही है जो इस धारा तथा शिवसेना के एक हिस्से के साथ गठबंधन में हैं और इसके जरिये हिन्दू फासीवादियों को सत्ता से बेदखल करने की सोचते हैं। हो सकता है हिन्दू फासीवादी फिलहाल केन्द्र की सत्ता से बाहर हो जाएं पर इससे फासीवाद का खतरा जरा भी कम नहीं हो जाता। 
    
कुछ लोग इसे कवित्वमय न्याय कह सकते हैं कि सख्त कानूनों के घनघोर समर्थक आज स्वयं सख्त कानूनों के तहत ही जेल में हैं। पर जेलरों के चरित्र को देखते हुए इस कवित्वमय न्याय का जश्न नहीं मनाया जा सकता। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।