नेपाल : प्रचंड की रुखसती

नेपाल की राजनीति में जुलाई माह की शुरूआत में हुए नाटकीय घटनाक्रम के चलते प्रधानमंत्री प्रचंड ने संसद में बहुमत खो दिया है। अब उनकी जगह कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल यूनिफाइड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट (सीपीएन-यूएमलएल) के अध्यक्ष के पी शर्मा ओली नये प्रधानमंत्री बनेंगे। 
    
बीते डेढ़ वर्ष से प्रचंड नेपाल के प्रधानमंत्री पद पर काबिज थे। नेपाल की 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में नेपाली कांग्रेस के 89, सीपीएन (यूएमएल) के 78 व प्रचंड की पार्टी के 32 सदस्य थे। प्रचंड सीपीएन-यूएमएल के समर्थन से सत्ता पर काबिज थे। जुलाई माह ही शुरूआत में सीपीएन-यूएलएल ने समर्थन वापसी की घोषणा कर दी थी। इसके बाद विश्वास मत चुनाव में प्रचंड के पक्ष में मात्र 63 वोट पड़े जबकि उनके खिलाफ 194 वोट पड़े। इस तरह प्रचंड को गद्दी छोड़नी पड़ी। 
    
अब नेपाली कांग्रेस व सीपीएन-यूएमएल के बीच हुए समझौते के तहत संसद के शेष कार्यकाल में दोनों पार्टियां बारी-बारी से प्रधानमंत्री पद साझा करेंगी। फिलहाल ओली नये प्रधानमंत्री बनेंगे। इस तरह नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का दौर जारी है। यहां बीते 16 वर्षों में 13 सरकारें बन चुकी हैं।         

दरअसल प्रचंड द्वारा नेताओं के भ्रष्टाचार की जांच शुरू करने व चीन के साथ बढ़ती नजदीकी गठबंधन टूटने के कारण के बतौर बताया जा रहा है। प्रचंड विश्वास मत गिरने से एक दिन पूर्व ही चीन के साथ बेल्ट एण्ड रोड पहल के तहत नेपाल में रेलवे लाइन बिछाने का समझौता कर चुके थे। पर्दे के पीछे से भारत के विस्तारवादी शासक भी नेपाल की चीन से बढ़ती नजदीकी से परेशान थे व प्रचंड की रुखसती का प्रयास कर रहे थे।
    
कभी 1996-2006 के बीच नेपाल में जनवादी क्रांति का नेतृत्व करने वाली नेकपा (माओवादी) व उसके शीर्ष नेता प्रचंड अब पूरी तरह से सुधारवादी बन चुके हैं। अब जनता के हितों के बजाय कुर्सी की जंग में वे आकण्ठ धंस चुके हैं। ऐसे में नेपाल में हुआ मौजूदा सत्ता परिवर्तन एक पूंजीवादी पार्टी की जगह दूसरी पूंजीवादी पार्टी की ताजपोशी ही है। मजदूर-मेहनतकश अवाम, जब तक इन पूंजीवादी दलों पर भरोसा बनाये रखेगी ये उसे यूं ही ठगते रहेंगे।  

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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