
महाराष्ट्र-झारखण्ड के विधानसभा चुनाव में ‘‘लाल किताब’’ की चर्चा जोरों पर है। हुआ यूं कि आम चुनाव के समय से राहुल गांधी अपने चुनाव प्रचार में संविधान की एक गुटखा प्रति हाथ में लेकर प्रचार करते हैं। और बताते हैं कि भारत का संविधान भाजपा और संघ वालों के कारण खतरे में है। ये संविधान को बदल देंगे। कि ये आरक्षण को खत्म कर देंगे। और साथ ही राहुल गांधी जोर-शोर से जाति जनगणना की मांग भी उठाते रहे हैं। संविधान की जिस प्रति को राहुल गांधी लहराते हैं, उसका आवरण लाल रंग का है।
राहुल गांधी के ‘संविधान खतरे में’, ‘आरक्षण के खात्मे’ और ‘जाति जनगणना’ वाले धुंआधार प्रचार का नतीजा मोदी-भाजपा-संघ को उठाना पड़ा और लोकसभा में वे अपना बहुमत खो बैठे। मन भरकर मोदी को अपनी सरकार का नाम ‘मोदी सरकार’ से ‘एनडीए सरकार’ करना पड़ा।
राहुल गांधी के नेरेटिव की काट मोदी एण्ड कंपनी ने बड़ा दिमाग लगा कर निकाली। उन्होंने कहा राहुल गांधी ‘अर्बन नक्सल’ (शहरी नक्सलवादी क्रांतिकारियों) के प्रभाव में है और उनकी ‘लाल किताब’ असल में माओ की ‘लाल किताब’ है।
अब भला माओ कौन थे। और उनकी ‘लाल किताब’ क्या बला थी।
माओ हमारे पड़ोसी देश चीन के महान क्रांतिकारी थे। उनके नेतृत्व में चीन ने अमेरिका, जापान, ब्रिटेन जैसे साम्राज्यवादी देशों को लोहे के चने चबवा दिये थे। वर्ष 1949 में चीन में नव जनवादी क्रांति माओ के नेतृत्व में हुयी। और फिर चीन को साम्राज्यवाद और सामंतवाद से मुक्ति मिल गयी।
माओ न केवल महान क्रांतिकारी थे बल्कि वे मजदूर-मेहनतकश वर्ग के महान शिक्षक व पथ प्रदर्शक भी थे। उनके द्वारा लिखे गये लेख, पुस्तकों से कुछ चुने हुए उद्धरणों को एक जगह इकट्ठा कर लिया गया था। जिस पुस्तक में ये चुने हुए उद्धरण रखे गये थे वह पुस्तक ‘लाल किताब’ (रेड बुक) के नाम से मशहूर हो गई। क्रांतिकारियों के लिए, मजदूरों-मेहनतकशों के लिए वह एक पथप्रदर्शक दस्तावेज बन गयी।
अब भला उस ‘लाल किताब’ से राहुल गांधी का क्या लेना देना। और मोदी जी जब राहुल के हाथ में ‘लाल किताब’ की चर्चा कर रहे हैं तो वे उन लोगों को डरा रहे हैं जिनके हाथ में वाकई ‘लाल किताब’ होनी चाहिए।