आखिरकार पुराने ‘मी लार्ड’ की विदाई हो गयी। जाते-जाते उन्होंने अपना दर्द बयां किया। उन्हें इस बात की चिंता हो रही थी कि इतिहास उन्हें किस तरह याद करेगा। अब नए मी लार्ड यानी चीफ जस्टिस हैं जस्टिस संजीव खन्ना। चूंकि चुनी हुई संसद और सांसदों का नजारा ही कुछ और है। सत्ता पक्ष राम धुन गा रहा है उसी ताल पर सबको नचा रहा है यही हाल विधानसभाओं का है। रोटी-रोजगार का सवाल हो या फिर घरों पर चलते बुलडोजर का सवाल, संघियों के राम धुन और बुलडोजर तले कुचले जा रहे हैं। इसलिए उम्मीद जो भी हो जैसी भी हो, उम्मीद की किरण जाहिर है ऐसे में सुप्रीम कोर्ट से ही बनी हुई है।
वैसे भी अपनी गिरती साख को जैसे-तैसे कुछ फैसले से बचाने की छटपटाहट में कोर्ट बेचैनी से लगा हुआ ही है। इसलिए कुछ उम्मीद बन ही जाती है। यह भी देखना कितना अद्भुत है कि जो चुने हुए हैं उनकी मार से बचने के लिए उस जगह जाना पड़ रहा है जो चुने हुए हैं ही नहीं। जनता के वोटों के दम पर ये इस पद पर नहीं पहुंचे हैं।
आखिरकार, कम से कम सुप्रीम कोर्ट ने न्याय के एक सिद्धान्त का इतना पालन तो जरूर ही किया है वह यह कि न्याय होता हुआ दिखना चाहिए, भले ही न्याय हो या ना हो। इसी वजह से भूतपूर्व मी लार्ड चंद्रचूड कह सके कि उन्होंने ‘जमानत नियम है और जेल अपवाद’ को अक्षरशः लागू किया और ए (अर्णव) से लेकर जेड (जुबैर) तक को जमानत दी। मगर भूतपूर्व चीफ जस्टिस ने ये नहीं बताया कि हिंदू फासीवादी सरकार द्वारा बंद सैकड़ों बेगुनाह लोग जो आतंकवाद (यू ए पी ए) के मामले में फर्जी ढंग से जेलों में ठूंसे गए हैं उनकी जमानत के लिए उन्होंने (चंद्रचूड़ ने) कुछ भी क्यों नहीं किया? उमर खालिद से लेकर तमाम लोग हैं जो जेलों में सड़ाये जा रहे हैं।
इसी विरासत को लेकर नए चीफ जस्टिस संजीव खन्ना भी आगे बढ़ रहे हैं। कहा जाता है कि वर्तमान मी लार्ड का चयन वैसे भी काबिलियत के आधार पर नहीं हुआ बल्कि उनके जल्द रिटायर हो जाने यानी कार्यकाल बेहद छोटा होने के चलते कालेजियम ने उनका नाम सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए प्रस्तावित किया था। इस बात के बारे में कहा जा रहा है कि एक दौर के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अपनी आत्मकथा में इस बात का जिक्र किया है।
शायद तब जस्टिस रंजन गोगोई ने उस वक्त हाइकोर्ट के जज रहे संजीव खन्ना की काबिलियत पहचान ली हो। शायद इसीलिए जब चीफ जस्टिस के रूप में काम कर रहे रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा तो तुरत-फुरत इस मामले में गोगोई की अध्यक्षता में बनी तीन सदस्यीय कमेटी में एक सदस्य जस्टिस खन्ना भी थे। रंजन गोगोई ने नियम-कायदों को ताक पर रखा और खुद पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप पर जांच के लिए कमेटी अपनी ही अध्यक्षता में बना ली थी। जाहिर है कमेटी को गोगोई के पक्ष में ही फैसला देना था और वही हुआ।
आंतरिक जांच की रिपोर्ट को गोपनीय बना दिया गया और इस मामले में कोर्ट की सुनवाई के दौरान सभी ने पत्रकारों को कमरे से बाहर कर दिया।
ऐसे में सवाल बनता ही है कि नए मि. लार्ड संजीव खन्ना से भी कोई क्या उम्मीद रखे सिवाय इसके कि जो कुछ भी अब तक होता आया है वही आगे बढ़ेगा। वैसे संजीव खन्ना का कार्यकाल मात्र मई 2025 तक ही है। तो भी संजीव खन्ना उस फैसले में भी भागीदार थे जिसने जम्मू-कश्मीर मामले में फैसला दिया। ऐतिहासिक तथ्यों का ध्यान रखे बिना, अंधराष्ट्रवादी भावना के साथ धारा 370 हटाने को संविधान सम्मत बता दिया गया था।
इसके अलावा खन्ना की अगुवाई वाली खंडपीठ ने इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों पर डाले गए वोटों के वीवीपीएटी सत्यापन की मांग करने वाली एडीआर की याचिका को सर्वसम्मति से खारिज कर दिया था।
इसी काबिलियत पर भरोसा करके ही अपने कार्यकाल के समाप्त होने पर सी.जे.आई डीवाई चंद्रचूड़ ने जस्टिस खन्ना की तारीफ में कसीदे गढ़े। जिस तरह चंद्रचूड़ ने बाबरी मस्जिद और अनुच्छेद 370 में ‘उच्च निष्पक्षता’ के साथ फैसला दिया था। उसी तरह के ‘निष्पक्षता’ के लिए जस्टिस खन्ना की तारीफ की।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान ना मानने के काफी पुराने फैसले को जिस बेंच ने रद्द किया था, उस बेंच में जस्टिस खन्ना भी शामिल थे। अरविन्द केजरीवाल को जमानत दिलाने वाले फैसले में भी वह शामिल थे। लेकिन ये फैसले कोई उम्मीद नहीं जगाते कि न्यायपालिका सीधे हिंदू फासीवादी सरकार से टकराव मोल लेगी। यह टकराव सीधे इस रूप में होना चाहिए था कि भाजपा और मोदी सरकार केवल अपने सांप्रदायिक या फासीवादी एजेंडे को रद्द करके ही सत्ता में बनी रह सकती है। जब तक वह ऐसा नहीं करती तब तक पार्टी के बतौर उनकी मान्यता रद्द होती और वे चुनाव में भागीदारी नहीं कर पाते।
लेकिन जो अब तक यानी आजादी के बाद कभी नहीं हुआ, उसकी उम्मीद करना तो बिलकुल ही मूर्खता है। वह भी ऐसे दौर में जब न्यायाधीश मोदी की शान में कसीदे गढ़ रहे हों और मोदी भक्ति में लीन हों। ऐसे दौर में कि जब एक-एक करके भूतपूर्व होते जाते मुख्य न्यायाधीश हिंदू फासीवादियों की गोद में बैठकर संसद में पहुंच जा रहे हों। चीफ जस्टिस खन्ना के फैसलों और रुख को देखकर तो कोई भी भला क्या उम्मीद करे सिवाय इसके कि अब फकीर की सेवा में अगला नंबर मी लार्ड का ही है।
‘मी लार्ड’ कोई, आपसे क्या उम्मीद करे!
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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
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