पहलगाम आतंकी हमले से निकलने वाले सबक

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पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान जैसे युद्ध के मुहाने पर पहुंच गये हैं। संधियां निलम्बित की जा रही हैं और व्यापार से लेकर लोगों के आने-जाने पर प्रतिबंध लगाये जा रहे हैं। महीनों से सीमा पर चल रहे सीज फायर को तोड़ा जा चुका है और फिर से एक-दूसरे के ऊपर सीमा पार से गोलीबारी-बमबारी के आरोप और खबरें आने लगी हैं। 
    
पहलगामी आतंकी हमले के बाद दोनों ही देशों में अंध राष्ट्रवादी भावनाएं उफान पर हैं। भारत में पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए ‘हमला-आक्रमण’ का बर्बर शोर उन्माद के स्तर तक जा पहुंचा है। इस सबके बीच मोदी सरकार इस उन्माद को अपनी नाकामयाबियों और असफल नीतियों के लिए पर्दे के तौर पर इस्तेमाल कर रही है। उन सवालों से वह पिण्ड छुड़ा रही है, जो एक के बाद एक, इस आतंकी हमले के बाद उठाये जा रहे हैं। सवाल उठाने वालों में शांतिप्रिय विवेकवान लोग ही नहीं हैं बल्कि वे लोग भी हैं जिन्होंने अपने प्रियजनों को इस आतंकी हमले में खोया है। अपने प्रियजनों को इस हमले में खोने वाले सवाल उठा रहे हैं कि क्यों वहां भारतीय सेना या पुलिस नहीं थी। क्यों वहां प्राथमिक उपचार (फर्स्ट एड) का कोई बंदोबस्त नहीं था। और क्यों घायलों की सहायता करने में देरी की गयी। क्यों लाखों की संख्या में सेना और पुलिस के होने के बावजूद लोग मारे गये। 
    
पुलवामा आतंकी हमले की तरह इस हमले के पीछे सत्ता के षड्यंत्र को सूंघने वालों की संख्या कोई कम नहीं है। मंशा ढूंढने वाले इस हमले की ‘टाइमिंग’ पर भी सवाल उठा रहे हैं। उनका तर्क यह है कि यह हमला ठीक उस वक्त होता है जिस वक्त अमेरिका के उप-राष्ट्रपति भारत में थे और भारत के प्रधानमंत्री सऊदी अरब में थे। और इस शंका को तब बल मिलता है जब प्रधानमंत्री बिहार में पूरे नाटकीय अंदाज में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हैं। मोदी और नीतिश कुमार का व्यवहार इस दौरान ऐसा था मानो मनचाही मुराद मिल गयी है। या फिर मानो ऐसा कि अब सारे दांव एकदम सटीक बैठ गये हैं। पुलवामा हमला ठीक 2019 के आम चुनाव के पहले हुआ था और इसमें किसी को भी शक नहीं है कि उसने मोदी की जीत में एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में भूमिका निभायी थी। 
    
पहलगाम आतंकी हमले के कुछ रोज पहले ही देश के गृहमंत्री ने अपने बड़बोलेपन वाले अंदाज में दावा किया था कि जम्मू-कश्मीर में सब कुछ सामान्य है। धारा-370 को खत्म करने के बाद से वहां विकास और शांति की गंगा बहाने का दावा किया था। इस आतंकी हमले के बाद वे शायद ही सच का आईना देखने की हिम्मत कर पायेंगे। आतंकी हमले की रोकथाम और हमले के बाद निर्दोष नागरिकों की सहायता करने में भले ही देरी की गयी हो परन्तु शक के आधार पर स्थानीय नागरिकों के घरों के ऊपर बुलडोजर चलाने में कोई देरी नहीं की गयी। 
    
इस आतंकी हमले के पीछे पाकिस्तान की राजसत्ता और सेना है, ऐसा मानने वालों की भारत में ठीक उसी तरह एक बहुत बड़ी तादाद है, जिस तरह पाकिस्तान में ऐसे लोगों की भारी तादाद है कि कुछ माह पूर्व बलोचिस्तान में एक ट्रेन पर हुए हमले के पीछे भारत के सत्ता-प्रतिष्ठान का हाथ था। ये दोनों बातें एक साथ सच हो सकती हैं। और पूरी दुनिया में यह बात जानी जाती है कि भारत और पाकिस्तान के शासक एक-दूसरे के यहां ऐसी आतंकी गतिविधियों को खुले या छिपे तौर पर प्रश्रय देते हैं। 
    
पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत ने जिस तरह से अप्रत्याशित कदम उठाये हैं ठीक उसी तरह के कदम पाकिस्तान ने जवाब में उठाये हैं। नतीजतन भारत और पाकिस्तान के बीच एक वास्तविक युद्ध जैसे हालात पैदा हो गये हैं। 
    
युद्ध या युद्ध जैसे हालात का सबसे बड़ा खामियाजा आम मजदूरों-मेहनतकशों को ही सीधे या उलटे रूप में उठाना पड़ता है। भारत और पाकिस्तान के मजदूरों और अन्य मेहनतकशों को ही हर हाल में इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। और इसलिए जरूरी है कि भारत और पाकिस्तान के मजदूर-मेहनतकश, आम नागरिक मांग करें कि हालात तुरन्त सामान्य किये जायें। कि शांति की बात हो और युद्धोन्माद व अंधराष्ट्रवादी भावनाओं को दफन किया जाए। और दोनों ही देश एक-दूसरे के यहां आतंकी कार्यवाहियों को प्रश्रय न दें। हालांकि यह अपने आपको छलने के समान होगा कि भारत और पाकिस्तान के धूर्त पूंजीवादी शासक ऐसा करेंगे। दोनों के ही पाले-पोसे हुए आतंकी संगठन आम नागरिकों को निशाना बनाते हैं और उनके शासन की उम्र बढ़ाने में अपने ढंग से मदद करते हैं। 
    
पहलगाम या बलोचिस्तान जैसे आतंकी हमलों की जमीन इन देशों में इन देशों के शासकों व व्यवस्था के कारण हमेशा से मौजूद है। पाकिस्तान जहां बलोच लोगों की जनवादी राष्ट्रीय मुक्ति की आकांक्षा का दमन अपने जन्म के समय से कर रहा है तो भारत भी ऐसा कश्मीरियों या अन्य राष्ट्रीयताओं के साथ अपनी आजादी के दिन के समय से कर रहा है। और इस रूप में देखें तो ये दोनों देश एक-दूसरे के भीतर आतंकी संगठनों व गतिविधियों को न भी प्रश्रय दें तब भी इस तरह की आतंकी घटनाओं के लिए ठोस जमीन हमेशा ही तैयार है। 
    
इन दोनों ही देशों में जिस क्रूर व आतंकित करने वाले ढंग से उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के लोकप्रिय आंदोलनों का दमन किया गया उसका एक स्वाभाविक परिणाम आतंकवाद के रूप में भी सामने आया है। राजकीय आतंक हो या उसके प्रति उत्तर में जन्मा आतंक हो, दोनों की ही कीमत आम मेहनतकश जनता को ही चुकानी पड़ी है। और यह सिलसिला तब तक खत्म नहीं होगा जब तक कि इन देशों में जालिम धूर्त शासक शासन कर रहे हैं; पूंजीवादी व्यवस्था कायम है। एक समाजवादी व्यवस्था ही इन देशों की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की आकांक्षा को पूरा कर सकती है। और भारत-पाकिस्तान के जनगण को विभाजन की त्रासदी, खुले-छिपे युद्ध से मुक्ति दिला सकती है। असल में तो कोई दक्षिण एशियाई समाजवादी राष्ट्रीयताओं का संघ ही इस बात की गारण्टी कर सकता है कि यहां आतंक व युद्ध का हर-हमेशा के लिए अंत हो जाये। पूरे दक्षिण एशिया के मजदूर-मेहनतकश एक समाजवादी संघ में शांतिपूर्ण ढंग से मेहनत करते हुए उच्च मानवीय जीवन जियें। जहां वास्तविक अर्थों में शांति, बराबरी, आजादी और भाईचारा कायम हो सकता है। एक ऐसा समाजवादी संघ ही सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष समाज हो सकता है जहां धर्म राजनीति या आतंक का बायस न रहकर ऐसा नितान्त व्यक्तिगत मामला हो जो प्रत्येक व्यक्ति की स्वेच्छा पर हो। धर्म की राजनीति, शिक्षा व समाज में कोई हस्तक्षेपकारी या कोई भी भूमिका न हो। 
    
पहलगाम आतंकी हमले के बाद भड़कायी जा रही अंधराष्ट्रवादी, फासीवादी, युद्धोन्मादी भावनाओं के बीच मजदूर-मेहनतकशों को ‘दुनिया के मजदूरो एक हो’ के क्रांतिकारी नारे को ही आगे बढ़ाना होगा। धूर्त शासकों को जवाब देना होगा कि हमारा रास्ता एक ऐसी क्रांति का रास्ता है जहां से हमेशा के लिए शांति की राह निकलती है। पहलगाम आतंकी हमले के बाद कश्मीर के आम मेहनतकशों ने ‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’ का नारा लगाया था। और यह नारा जरूरत है कि पूरे दक्षिण एशिया में ही गूंजना चाहिए।  

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भारत में वस्त्र एवं परिधान उद्योग में महिला एवं पुरुष मजदूर दोनों ही शामिल हैं लेकिन इस क्षेत्र में एक बड़ा हिस्सा महिला मजदूरों का बन जाता है। भारत में इस क्षेत्र में लगभग 70 प्रतिशत श्रम शक्ति महिला मजदूरों की है। इतनी बड़ी मात्रा में महिला मजदूरों के लगे होने के चलते इस उद्योग को महिला प्रधान उद्योग के बतौर भी चिन्हित किया जाता है। कई बार पूंजीवादी बुद्धिजीवी व भारत सरकार महिलाओं की बड़ी संख्या में इस क्षेत्र में कार्यरत होने के चलते इसे महिला सशक्तिकरण के बतौर भी प्रचारित करती है व अपनी पीठ खुद थपथपाती है।

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भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

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आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।