ब्रिक्स का शीर्ष सम्मेलन और बदलती दुनिया

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22-24 अक्टूबर को ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) का 16वां शीर्ष सम्मेलन रूस के कजान शहर में हुआ। इस सम्मेलन को ब्रिक्स+ का नाम दिया गया क्योंकि इन पांच सदस्य देशों के अलावा मिश्र, इथियोपिया, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात भी इसके सदस्य बन गये हैं। साउदी अरब को भी इस शीर्ष सम्मेलन में आमंत्रित किया गया था, लेकिन वह इसमें सदस्य के बतौर शामिल नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त, कई सारे देश इस संगठन में सदस्य के बतौर शामिल होने के लिए आवेदन कर रहे हैं। इस शीर्ष सम्मेलन में 30 से अधिक देशों के प्रतिनिधि और कई देशों के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री शामिल हुए। 
    
ब्रिक्स के 16वें शीर्ष सम्मेलन की अध्यक्षता रूस कर रहा था। इस शीर्ष सम्मेलन से अमरीकी साम्राज्यवादियों और उनके सहयोगियों द्वारा किय जा रहा यह प्रचार कि यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद रूस दुनिया से अलग-थलग पड़ गया है, पूरी तौर पर गलत साबित हो गया। वास्तविकता यह है कि ब्रिक्स में शामिल होने के लिए अधिकाधिक देश दिलचस्पी ले रहे हैं। तुर्की के राष्ट्रपति इर्दोगान भी इस सम्मेलन में शामिल हुए। यह ज्ञात हो कि तुर्की नाटो का सदस्य देश है। एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका के कई देश इसमें शामिल होने या इस संगठन से रिश्ता रखने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं। 
    
जिस प्रकार जी-7 पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों का एक समूह बना हुआ है, उसी प्रकार और उसके समानान्तर ब्रिक्स रूसी और चीनी साम्राज्यवादियों की अगुवाई में दुनिया के अविकसित और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों का गठबंधन बन रहा है। इसमें कोई भी पश्चिमी साम्राज्यवादी देश शामिल नहीं है। सिर्फ इतना ही नहीं, अमरीकी साम्राज्यवादी ब्रिक्स में शामिल हो रहे देशों को तरह-तरह की धमकियां भी दे रहे हैं।
    
ब्रिक्स का 16वां शीर्ष सम्मेलन ऐसे समय में हुआ है जब दुनिया के कई हिस्सों में संघर्ष चल रहे हैं। पश्चिम एशिया में इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों का जनसंहार जारी है। इजरायली शासकों द्वारा गाजा पट्टी में तमाम महाविनाश और नरसंहार के बावजूद न तो हमास को खत्म किया जा सका और न ही हमास द्वारा बनाये गये बंधकों को रिहा कराया जा सका है। इसके विपरीत हमास और अन्य फिलिस्तीनी प्रतिरोध संगठनों द्वारा इजरायली सेना पर हमलों की धार और तेज होती जा रही है। इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकां का यह सोचना कि इस्माइल हानिया और याह्या सिनवार की हत्या के बाद वह फिलिस्तीनी प्रतिरोध को खत्म कर देगा, एक दिवास्वप्न साबित हो गया है। इसी प्रकार, लेबनान में हवाई हमले करके, हिजबुल्ला के नेतृत्व के कई लोगों को मारकर और बड़े पैमाने पर नागरिकों के ऊपर बड़े पैमाने पर बमबारी करके उसकी यह सोच कि उसने हिजबुल्ला को पराजित कर दिया है, यह भी उसकी खामख्याली साबित हो गयी है। वह लेबनान पर जमीनी हमले करता रहा, लेकिन बार-बार उसे मुंह की खानी पड़ी। सिर्फ इतना ही नहीं, अब हिजबुल्ला इजरायल के भीतर उसके सैन्य ठिकानों को निशाना बना रहा है। इजरायल के पास उन्नत हथियार हैं, हवाई सेना है, नौसेना है और अमरीकी साम्राज्यवादियों का खुला समर्थन और सहयोग है। लेकिन जांबाज हिजबुल्ला के लड़ाकों के हाथों जमीनी लड़ाई में उसे बार-बार मुंह की खानी पड़ रही है। 
    
ब्रिक्स के इस शिखर सम्मेलन में अमरीकी साम्राज्यवादियों के समर्थन व सहायता से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में किये गये नरसंहार और विनाश की निंदा की गयी और सभी प्रतिनिधियों ने इस नरसंहार को रोकने, गाजा पट्टी से इजरायली सेना को हटाने, आजाद फिलिस्तीनी राज्य के निर्माण के लिए तुरंत समझौता करने की मांग की गयी। 
    
इसी प्रकार, रूस-यूक्रेन युद्ध को तुरंत समाप्त करने के लिए कूटनीतिक तौर-तरीकों और समझौता करने की मांग की गयी। 
    
इस दुनिया में, जहां आज कई क्षेत्रों में टकराव मौजूद हैं, उनके समाधान के लिए बातचीत के जरिए हल करने की बात कजान सम्मेलन की घोषणा में की गयी है। 
    
ब्रिक्स के 16वें शीर्ष सम्मेलन में इस बात को कहा गया है कि अमरीका और पश्चिम यूरोप के देश अपनी ताकतवर होने की स्थिति का फायदा उठाते हुए, अपने से असहमत देशों की अर्थव्यवस्थाओं को पंगु बनाकर उन्हें अपने अधीन करने के मकसद से उन पर आर्थिक व वाणिज्यिक प्रतिबंध लगाते हैं। आर्थिक प्रतिबंध लगाने वाली ऐसी व्यवस्था का खात्मा होना चाहिए। कि कुछ देशों की बाकी देशों को अपने अधीन करने की कोशिशों का ब्रिक्स संगठन विरोध करता है और इसके विपरीत सभी देशों के साथ बराबरी के आधार पर परस्पर सहयोग और सहायता देने का सम्बन्ध कायम करने की हिमायत करता है। 
    
ब्रिक्स ने अपनी घोषणा में अमरीकी साम्राज्यवादियों के नेतृत्व वाली वित्तीय संस्थाओं- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन के बरक्स नया विकास बैंक खड़ा करने का जिक्र किया है। इसी के साथ ही रूस ने ब्रिक्स निवेश पहल और ब्रिक्स अनाज विनिमय पहल की घोषणा की। इन संस्थाओं का मकसद गरीब देशों को कर्ज जाल से निकलने में मदद करना, बताया गया। ब्रिक्स अनाज विनिमय पहल के माध्यम से ब्रिक्स देशों में अनाज, तिलहन और सब्जियों के विनिमय की प्रणाली विकसित करने की बात की गयी जिससे कि कीमतों में उतार-चढ़ाव और जमाखोरी तथा मुनाफाखोरी के जरिए विकसित देशों के जाल से इन गरीब देशों को बचाया जा सके। चूंकि अनाज, तिलहन और सब्जियों का उत्पादन अधिकांशतः ब्रिक्स के देश करते हैं, इसलिए इन देशों के बीच इनके परस्पर विनिमय के जरिए पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा इनकी फसलों पर नियंत्रण और लूट को रोकने में ब्रिक्स अनाज विनिमय पहल मदद कर सकेगी। 
    
इसी प्रकार, अमरीकी डालर के प्रभुत्व को खत्म करने की दिशा में ब्रिक्स देशों के बीच एक वैकल्पिक ब्रिक्स मुद्रा को विकसित करने के सवाल पर चर्चा की गयी। अमरीकी साम्राज्यवादी डालर का राजनीतिक इस्तेमाल करके, असहमत देशों की अर्थव्यवस्था को प्रतिबंधों के जरिये कमजोर करते हैं तथा डालर मुद्रा को छापकर अपने देश के बढ़ते कर्ज का बोझ गरीब मुल्कों के ऊपर लादने में सफल हो जाते हैं। डालर और इस पर आधारित स्विफ्ट बैंकिंग प्रणाली से बाहर करके अमरीकी साम्राज्यवादी किसी भी देश को व्यापारिक लेन-देन की अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली से अलग करके उसे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से बाहर करते रहते हैं। इसका जवाब तलाशने और उसे व्यवहारिक शक्ल देने के लिए एक नयी प्रणाली विकसित करने की बात की गयी। अभी रूस और चीन दुनिया के कई देशों के साथ आपसी मुद्रा में अपना व्यापार कर रहे हैं। इससे डालर के प्रभाव में कुछ हद तक गिरावट आयी है। लेकिन अमरीकी डालर, यूरोपीय यूरो और इनके पीछे खड़े अमरीकी-यूरोपीय साम्राज्यवादियों की ताकत काफी ज्यादा है और इनसे संचालित अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं पर अमरीकी साम्राज्यवादियों का प्रभुत्व है। इसके साथ ही, संयुक्त राष्ट्र सभा जैसी संस्थाएं भी साम्राज्यवादियों के इच्छानुसार चलती हैं। इन पर साम्राज्यवादियों, विशेष तौर पर अमरीकी साम्राज्यवादियों का बोलबाला है। संयुक्त राष्ट्र संघ पर साम्राज्यवादियों के प्रभुत्व को खत्म करने के लिए पांच स्थायी सदस्यों के विशेषाधिकार को समाप्त करने की बात की गयी। ब्रिक्स के इस शिखर सम्मेलन में अफ्रीका और दक्षिणी अमरीका से सुरक्षा परिषद में एक-एक स्थायी सदस्य चुने जाने की मांग की गयी।
    
गरीब और पिछड़े हुए देशों की उच्च प्रौद्योगिकी ए.आई. और स्वास्थ्य, शिक्षा और अवरचना के विकास में योगदान देने में ब्रिक्स के अग्रणी देशों द्वारा सहायता प्रदान करने पर सहमति बनी।
    
कुल मिलाकर यदि कहा जाए तो ब्रिक्स$ का यह शिखर सम्मेलन अमरीकी साम्राज्यवादियों के आर्थिक, राजनीतिक प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए उसके समान्तर रूसी और चीनी साम्राज्यवादियों की तरफ से एक वैश्विक गठबंधन खड़ा करने की यह एक बड़ी कोशिश है। चूंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीकी साम्राज्यवाद दुनिया की सबसे प्रभुत्वशाली ताकत के बतौर उभरा था। वह पूंजीवादी विश्व का सबसे बड़ा सरगना था। समाजवादी खेमे में पूंजीवादी पुनर्स्थापना होने के बाद भी सोवियत संघ एक बड़ी ताकत था और इन दोनों बड़ी ताकतों- साम्राज्यवादी ताकतों- के बीच होड़ के चलते दुनिया के नये आजाद देशों के शासकों की सौदेबाजी करने की एक हैसियत बनती थी। लेकिन सोवियत संघ के विघटन, पूर्वी यूरोप की सत्ताओं के खुली पूंजीवादी सत्ताओं में बदलने और चीन में पूंजीवादी पुनर्स्थापना ने एक तरफ तो अमरीकी साम्राज्यवादियों की समूची दुनिया में प्रभुत्वकारी ताकत के रूप में इजाफा हो गया। दुनिया एक ध्रुवीय कही जाने लगी। ऐसी स्थिति में पिछड़े देशों के शासकों की सौदेबाजी की हैसियत में तुलनात्मक तौर पर गिरावट आयी। अब रूस के फिर से मजबूत होने और चीन की आर्थिक ताकत बढ़ने के साथ में दोनों देश साम्राज्यवादी हैसियत में हैं और अमरीकी साम्राज्यवादियों को विश्वव्यापी पैमाने पर चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में यह ब्रिक्स+ का गठबंधन रूसी और चीनी साम्राज्यवादियों के हाथ में अमरीकी और पश्चिमी साम्राज्यवादियों के समक्ष टकराने का एक मोर्चा है। यह जितना आर्थिक है, उतना ही राजनीतिक और सामरिक भी शक्ल लेने की ओर जा सकता है। 
    
दूसरी तरफ, ब्रिक्स+ के सभी देश पूंजीवादी देश हैं। वे एक तरफ, अमरीकी साम्राज्यवाद की धौंसपट्टी, हुकूमत परिवर्तन और तरह-तरह के असमान व्यवहार से एक हद तक परेशान और उत्पीड़ित हैं और दूसरी तरफ वे अमरीकी साम्राज्यवादी संस्थाओं से फायदा उठाने के लिए उनसे जुड़े हुए हैं। वे ब्रिक्स की सामूहिक ताकत का इस्तेमाल अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए करना चाहते हैं। इसलिए वे वैश्विक लूट को खत्म नहीं करना चाहते। क्योंकि वे खुद शोषक वर्ग हैं और ये सभी शासक अपने-अपने देश में मजदूर-मेहनतकश आबादी के दुश्मन हैं। 
    
यही कारण है कि वे इजरायली हुकूमत द्वारा गाजा पट्टी में फिलिस्तीनियों के किये जा रहे नरसंहार और महाविनाश की निंदा तो करते हैं लेकिन वे इजरायल के साथ अपने व्यापारिक सम्बन्ध भी बनाये रखते हैं। चाहे तुर्की हो, दक्षिण अफ्रीका हो, भारत हो, चीन हो या रूस हो, ये सभी इजरायल के साथ अपने व्यापारिक सम्बन्ध अभी हाल तक रखते रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सभी पूंजीवादी देश हैं। सभी का काम अपने देश के पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ाना है। पूंजीपतियों का सबसे बड़ा ईश्वर मुनाफा है और ब्रिक्स+ की सरकारें इन्हीं पूंजीपतियों की प्रतिनिधि हैं। 
    
इसलिए इनसे कोई यह उम्मीद करे कि ब्रिक्स+ बनाकर कोई न्यायपूर्ण व्यवस्था लाने की ये कोशिश कर रहे हैं, महज अपने को धोखा देना है और इनके लुटेरे चरित्र का, मजदूर-मेहनतकश विरोधी चरित्र पर पर्दा डालना है। 
    
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 
    
जहां तक हमारे देश सहित दुनिया भर की मजदूर-मेहनतकश आबादी की साम्राज्यवादी-पूंजीवादी जुए से मुक्ति की बात है, वह दुनिया भर के शासकों-शोषकों के अपने शक्ति संतुलन के बदलने के प्रयासों से नहीं, बल्कि खुद मजदूरों-मेहनतकशों के संघर्षों से, पूंजी के जुए से मुक्ति के संघर्षों से आयेगी। 
    
मजदूर-मेहनतकश ऐसे शक्ति संतुलनों में आने वाले परिवर्तनों का अपने हित में लाभ तभी उठा सकता है, जब वह इस बदलती हुई दुनिया पर नजर रखे, उसके हर अंतरविरोधों की समझ रखे और यह करते हुए खुद एक स्वतंत्र शक्ति के बतौर अपनी मुक्ति के ऐतिहासिक मिशन की ओर आगे बढ़े।   

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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