बढ़ते अंतर्विरोध, बढ़ती निरंकुशता

मोदी-शाह की सरकार कभी इस पार्टी तो कभी उस पार्टी के नेताओं को हैरान-परेशान कर रही है। कभी किसी पार्टी के नेता को ई डी हिरासत में ले रही है तो कभी किसी पार्टी के। भाजपा की इन पार्टियों को ध्वस्त कर देने या चारों खाने चित्त करने की कोशिश यही दिखलाती है कि शासक वर्ग के अलग-अलग हिस्सों में अंतर्विरोध तीखे हो रहे हैं। खुद कारपोरेट पूंजीपतियों की दो मुख्य पार्टियों के बीच भी द्वंद्व तीखा हुआ है। मामला अब 2014 से पहले जैसा नहीं है इसे वह हर कोई महसूस कर सकता है जो भी राजनीतिक तौर पर सजग या जागरूक हो।

शीर्ष स्तर पर मोदी-शाह की हिंदू फासीवादी सरकार कांग्रेस पर हमला कर रही है। अब 2019 के एक मामले में जिसमें राहुल गांधी ने एक मामूली सा व्यंग्य किया था, उसमें सूरत कोर्ट के जरिये दो साल की सजा सुनाई गई। यह मामला भी, यह दिखाता है कि हिंदू फासीवादी गैंग संगठित और षड्यंत्रकारी तरीकों से विपक्षियों से भी निपट रहा है।

इस मोदी सरनेम की मानहानि मामले में राहुल गांधी पर मुकदमा करने वाले अभियोगी (आरोप लगाने वाला) जो कि भाजपा से है, ने कोर्ट में एक साल पहले मुकदमे की सुनवाई टालने की बात की और कोर्ट ने बिना वजह जाने इसे स्वीकार भी कर लिया। इस साल फरवरी में अभियोगी ने मानहानि मुकदमे की फिर से सुनवाई की अपील की। कोर्ट ने पुनः इसे स्वीकार कर लिया। एक माह के भीतर ही सारी कथित जांच पूरी कर ली गयी। सुनवाई भी हो गयी जिसमें 2 साल की जेल की सजा भी सुना दी गयी। इससे ज्यादा हैरत की बात यह थी कि कोर्ट ने कुछ ही मिनटों के अंदर राहुल गांधी को जमानत दिलवाकर 30 दिन का मौका अपील के लिए दे दिया। जैसे ही यह फैसला हुआ तत्काल ही लोकसभा स्पीकर ने अति सक्रियता दिखाते हुए संसद से राहुल की सदस्यता निष्कासित कर दी।

इसी तरह दूसरे मामले में देखें आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में मोदी हटाओ-देश बचाओ के पोस्टर लगा दिये। मगर ये पोस्टर संघी सरकार को नागवार गुजरे, पोस्टर हटवा दिए गये। इसी के साथ कई लोगों पर मुकदमे दर्ज कर दिए गए। क्या मोदी हटाओ के ये पोस्टर मौजूदा पूंजीवादी संविधान विरोधी हैं? नहीं।

बेहद सामान्य से पोस्टर भी मोदी-शाह की सरकार को नागवार गुजरे हैं। क्या खुद मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को हटाने की बात नहीं की थी।

अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी-शाह की जोड़ी विपक्षी पूंजीवादी पार्टियों पर ज्यादा हमलावर हुई है। एक तरफ सत्ताधारी संघी पार्टी भाजपा का अन्य से यह तीखा अंतर्विरोध दिखाता है तो दूसरी ओर इन सबके बीच एक अभूतपूर्व एकता भी दिखती है।

यह एकता उन निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के मामले में है जिन्हें लागू किये हुए तीन दशक से ज्यादा का वक्त हो चुका है। इन नीतियों के मामले में जुबानी विरोध भी इन सभी के बीच नहीं दिखता।

इन नीतियों को लागू करने के दौर में संघी मंदिर वहीं बनेगा; का नारा लगाकर अपने हिंदू फासीवादी आंदोलन को धार दे रहे थे जबकि दूसरी तरफ इन घोर जनविरोधी घोर पूंजीपरस्त नीतियों को लागू किया जा रहा था। इस फासीवादी आंदोलन की तात्कालिक परिणति बाबरी मस्जिद ध्वंस और दंगों के रूप में हुई थी।

तब क्या कांग्रेस के नरसिम्हा राव की सरकार ने बाबरी मस्जिद ध्वंस हो जाने में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई। तब एक ओर अडाणी जैसे लम्पट पूंजीपतियों के विकास के लिए निजीकरण, उदारीकरण की नीतियां लायी गयीं तो दूसरी ओर हिंदू फासीवादी ताकतों यानी आर एस एस और भाजपा को खुलकर खेलने का मौका दिया गया।

मगर आज कांग्रेस के राहुल गांधी मासूमियत से इन दोनों को कोस रहे हैं। एक तरफ वह आर एस एस के नफरत फैलाने के अभियान के खिलाफ मोहब्बत से जनता का दिल जीत कर संघी ताकतों को हरा देने का खोखला दावा करते हैं तो दूसरी तरफ अडाणी पर हमलावर हैं।

दरअसल हकीकत यही है कि राजनीतिक पार्टी के बतौर देश को इस स्थिति में पहुंचाने वाली कांग्रेस ही है। आज मोदी-शाह की सरकार की निरंकुशता बढ़ती गयी है। एक तरफ जनता तो दूसरी ओर अपने ही वर्ग की पार्टियों पर संघी तरह-तरह से हमलावर हैं।

जिस तरह निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के मामले में इन सभी में गहरी एकता है उसी तरह यह भी साफ है कि इनमें से कोई भी हिंदू फासीवादियों को ध्वस्त करने की मंशा नहीं रखता, ना ही इनकी ऐसी विशेष जरूरत है। कई ने तो भाजपा के साथ गठबंधन की सरकार ही बनाई है।

राहुल गांधी पर मौजूदा हमले को भिन्न ढंग से देखा जाय तो यह भी साफ है कि राहुल गांधी ने संसद से निष्कासन के रूप में हुए हमले से भरपूर प्रचार पाया है भारत जोड़ो यात्रा से भी काफी ज्यादा।

सवाल यह है कि जितने संगठित और षड्यंत्रकारी तरीके से हिंदू फासीवादी विपक्षियों और आम जनता पर हमलावर हैं क्या चुनाव से इसका मुकाबला किया जा सकता है, या जनता को क्रांतिकारी विचार के इर्द-गिर्द संगठित किये बिना इसका मुकाबला किया जा सकता है? जिस तरह-तरह के तरीके से संघी लम्पट पूंजी के मालिकों के पक्ष में निरंकुश तरीके से काम कर रहे हैं उससे स्पष्ट है कि यह सम्भव ही नहीं है। एक संगठित प्रतिक्रियावादी दस्ते का जवाब एक संगठित क्रांतिकारी संगठन ही हो सकता है।

आलेख

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।