चटगांव विद्रोह : नौजवानों का विद्रोह

1930 के अप्रैल माह में हुआ चटगांव विद्रोह कोई सामान्य विद्रोह की घटना नहीं थी। अंग्रेजों ने अपने पत्रों, दस्तावेजों में बार-बार इस घटना की तुलना 1857 के विद्रोह से की है। वास्तव में यदि चटगांव विद्रोह के दौरान घटनाक्रम की गहराई में जाएं, तो यह अच्छी तरह समझ में आएगा, कि 1857 के बाद चटगांव विद्रोह वह प्रथम घटना थी, जहां सूर्य सेन के नेतृत्व में इंडियन रिपब्लिकन आर्मी (आईआरए) के 56 बहादुर नौजवानों ने जिनमें अधिकांश की उम्र 16 से 21 वर्ष थी। 21 अप्रैल को जलालाबाद की पहाड़ियों पर पूरे 24 घंटे साम्राज्यवादी ब्रिटिश सेना को सीधी टक्कर दी और उन्हें दो बार पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इस मुठभेड़ में आईआरए के 10 नौजवान अपना काम अंजाम देकर शहीद हो गए। आईआरए का तो नारा ही था करो और मरो। जलालाबाद की इस शानदार लड़ाई से पहले आईआरए ने 18 अप्रैल की रात 10ः00 बजे बहुत ही सुनियोजित तरीके से पुलिस लाइंस शस्त्रागार, टेलीफोन और टेलीग्राफ आफिस, सैन्य शस्त्रागार एवं यूरोपियन क्लब पर एक साथ धावा बोला। इसी दौरान उन्होंने असम बंगाल रेलवे ट्रैक की पटरियां खोलकर पूर्वी बंगाल में स्थित इस चटगांव जिले को पूरी तरह शेष भारत से काट दिया। आपरेशन पूरी तरह सफल रहा और चटगांव पूरी तरह महज 71 नौजवानों से बनी आईआरए के हाथ में आ गया। उन्होंने तुरंत यूनियन जैक को उतारकर जला दिया और तिरंगा फहरा दिया। इसके तुरंत बाद अस्थायी क्रांतिकारी सरकार की घोषणा कर दी गई।
    
यह आश्चर्यजनक था कि यह पूरा आपरेशन महज चंद घंटों में पूरा कर लिया गया और इस दौरान आईआरए का कोई भी साथी शहीद नहीं हुआ। यह उनके उच्च स्तर की तैयारी और दक्षता को दर्शाता है। इतने सफल आपरेशन के बावजूद   जो चाहिए था वो नहीं मिल सका। वह था शस्त्रागार से जब्त की गई बंदूकों के लिए बड़े पैमाने पर गोलियां। आईआरए के साथियों को यह नहीं पता था कि शस्त्रागार में बंदूकें गोलियां साथ-साथ नहीं रखी जातीं। पूरा शस्त्रागार कब्जे में होने के बावजूद गोलियां कहां हैं, यह किसी को पता न था। बिना गोलियों के जब्त बंदूकें किसी काम की न थीं। अतः मजबूरन उन्हें शस्त्रागार की इन बंदूकों को भी जला देना पड़ा ताकि दुश्मन भी इनका इस्तेमाल न कर पाए।
    
21 अप्रैल को जलालाबाद की पहाड़ी पर वह प्रसिद्ध संघर्ष हुआ, जहां निम्न स्तर के हथियारों के बावजूद और जंगल में भटकते हुए तीन दिनों की भूखी प्यासी आईआरए ने अत्याधुनिक हथियारों से लैस साम्राज्यवादी ब्रिटिश सेना को दो बार पीछे हटने को मजबूर कर दिया। बाद में अपने 10 साथियों की शहादत के बाद सुरक्षित जंगलों में लौट गए। इस घटना ने पूरे भारत और विशेषकर समस्त बंगाल को उत्साह से भर दिया। आईआरए और उसके सुप्रीम कमांडर मास्टर सूर्य सेन बंगाल में घर-घर के नायक हो गए।
    
गांधी ने इस क्रांतिकारी हिंसा को सरकारी हिंसा के समकक्ष ला खड़ा किया और दोनों से लड़ने की प्रतिज्ञा कर डाली। गांधी के शब्दों में ‘‘मेरे लिए सरकारी हिंसा की तरह ही इस तरह की लोकप्रिय हिंसा भी हमारी मार्ग में अवरोध है। यह सही है कि मैं सरकारी हिंसा से ज्यादा अच्छी तरह लड़ सकता हूं, बनिष्पत इस तरह की हिंसा के। क्योंकि हिंसा से लड़ते हुए मेरे पास वैसा समर्थन न होगा, जैसा कि सरकारी हिंसा से लड़ते हुए मेरे पास होता है।’’
    
सूर्य सेन और आईआरए के साथियों ने चटगांव के पहाड़ों जंगलों में बसे गांव को अपना आधार बनाया और 1933 तक पूरे 3 साल साम्राज्यवादी ब्रिटिश सेना से न सिर्फ बचते रहे, बल्कि गुरिल्ला कार्यनीति अपनाकर पलटवार भी करते रहे। इन्हीं कार्यवाही में प्रसिद्ध है प्रीति लता ओहदेदार के नेतृत्व में 24 सितंबर 1932 को यूरोपियन क्लब पर की गई कार्रवाई जिसमें तीन यूरोपीयन मारे गए थे और चटगांव के बदनाम पुलिस अफसर अशान उल्लाह की 14 साल के नौजवान हरिपदा भट्टाचार्य द्वारा फुटबॉल के मैदान पर दिन दहाड़े हत्या। मास्टर सूर्य सेन ने जानबूझकर यूरोपियन क्लब पर हमले का नेतृत्व प्रतिलता को दिया था। जबकि उस ग्रुप में प्रीतिलता से ज्यादा अनुभवी लोग मौजूद थे। वे समझ चुके थे कि बिना महिलाओं की भागीदारी के यह क्रांतिकारी आंदोलन सही स्वरूप नहीं ले पाएगा। प्रीतिलता की शहादत का महत्त्व इस बात से लग जाता है कि 1857 के विद्रोह में रानी लक्ष्मीबाई के बाद संभवतः वह पहली ज्ञात महिला शहीद है।
    
चटगांव विद्रोह के अधिकांश कैदी बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। मास्टर सूर्य सेन की गिरफ्तारी ब्रिटिश साम्राज्य के लिए बहुत बड़ा तोहफा थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नफरत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 12 जनवरी 1934 के नियत दिन पर उन्होंने फांसी पर जिंदा सूर्य सेन को नहीं, बल्कि बेहोश या शायद मर चुके सूर्य सेन को लटकाया था। फांसी पर लटकाने से पहले ही उन्होंने सूर्य सेन और तारकेश्वर दोनों को पीट-पीट कर बेहोश कर डाला था। उनकी नफरत यहीं नहीं खत्म हुई। उनके मृत शरीर को दफनाने या जलाने के बजाय उन्होंने उसे युद्धक जहाज के माध्यम से भारत की सीमा से सैकड़ों मील दूर बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया।
 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।