भारतीय सेना का हिन्दू साम्प्रदायीकरण

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नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में केन्द्र में सत्तानशीन होने के बाद हिन्दू फासीवादी भारतीय सेना में लगातार घुसपैठ करते चले गये हैं। हिन्दू फासीवादियों की सरकार ने प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर लगातार ऐसे कदम उठाये हैं जिससे सेना का हिन्दू साम्प्रदायीकरण हुआ है। सेना के सर्वोच्च अधिकारी हिन्दू फासीवादियों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में शिरकत करते पाये जा सकते हैं। वे कुंभ में डुबकी लगाये देखे और दिखाये जा रहे हैं। सेना के दर्शनीय स्थलों को भगवा रंग में रंगा जा रहा है। सर्वोच्च सेनाधिकारी हिन्दू फासीवादियों के मन माफिक बयान दे रहे हैं। इत्यादि, इत्यादि।
    
हिन्दू फासीवादियों और उनकी सरकार की ये करतूतें उनकी व्यापक परियोजना यानी भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की परियोजना का हिस्सा हैं। उन्हें पता है कि देश के सभी सरकारी या गैर-सरकारी संस्थानों का भगवाकरण किये बिना वे भारत को हिन्दू राष्ट्र नहीं बना सकते। इसीलिए सरकारी नौकरशाही तथा न्यायालयों के साथ वे सेना का भी भगवाकरण कर रहे हैं।
    
भारतीय सेना बहुत सारी अन्य चीजों की तरह ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की उत्पाद है। बल्कि सेना के मामले में तो यह पुरानी विरासत अन्य जगहों के मुकाबले ज्यादा विद्यमान है। आजादी के बाद सेना में परिवर्तन कम ही हुआ है। 
    
ब्रिटिश काल से ही भारतीय सेना पेशेवर और गैर-राजनीतिक रही है। यह इस हद तक था कि ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को पूर्ण विश्वास था कि ब्रिटिश भारत की सेना के आम सिपाही ब्रिटिश राज के खिलाफ कभी विद्रोह नहीं करेंगे। और 1857 के बाद इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर उनका विश्वास सही साबित हुआ। ब्रिटिश भारतीय सेना के आम सिपाही मूलतः भारतीय थे जो अंग्रेजी राज के आदेश  पर प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध दोनों में विदेशी मोर्चों पर लड़े हालांकि उनसे भारत का कोई लेना-देना नहीं था। दूसरी ओर आजादी की लड़ाई के चरम पर भी वे ब्रिटिश राज के प्रति वफादार बने रहे। गढ़वाल राइफल्स का विद्रोह या 1946 का नौसेना विद्रोह ही चंद अपवाद रहे। 
    
आजादी के बाद भारत के पूंजीवादी शासकों ने विरासत में मिली इस सेना के ढांचे, तौर-तरीकों तथा जीवन-शैली के साथ इसके पेशेवर और गैर-राजनीतिक चरित्र को बरकरार रखा। सभी इस जुमले को स्वीकार करते थे कि सेना को राजनीति से ऊपर रखा जाना चाहिए। इसी के साथ यह भी था कि सेना नागरिक सरकार के अधीन होगी। 
    
इन आम सहमतियों का ही परिणाम था कि तीसरी दुनिया के तमाम देशों और अपने पड़ोसी पाकिस्तान व बांग्लादेश के विपरीत भारतीय सेना राजनीति से दूर रही। यहां कोई सैनिक तख्तापलट नहीं हुआ। यहां तक कि कोई असफल प्रयास भी नहीं हुआ। भारत के पूंजीवादी जनतंत्र की यह सफलता थी। 
    
लेकिन अब हिन्दू फासीवादी भारत के पूंजीवादी जनतंत्र की इस सफलता को नष्ट करना चाहते हैं। वैसे यह देखते हुए कि वे पूंजीवादी जनतंत्र को ही नष्ट करना चाहते हैं, एकदम स्वाभाविक है कि वे सेना के पेशेवर और गैर-राजनीतिक चरित्र को नष्ट करें। सेना किसी भी राजनीतिक व्यवस्था की अंतिम रक्षक होती है। जब अन्य नागरिक संस्थान उसकी रक्षा नहीं कर पाते तो अंत में सेना को सामने आना पड़ता है। इस तरह सेना न केवल बाहरी शत्रुओं से देश की रक्षा करती है बल्कि आंतरिक शत्रुओं से भी राजनीतिक व्यवस्था की रक्षा करती है। ऐसे में यदि आंतरिक राजनीति को नष्ट कर नई राजनीतिक व्यवस्था कायम करनी है तो सेना पर भी कब्जा करना पड़ेगा। यह उसे युद्ध में पराजित कर किया जा सकता है या उसमें घुसपैठ कर। हिन्दू फासीवादी आज यही कर रहे हैं। 
    
सेना के इस हिन्दू साम्प्रदायीकरण का परिणाम कोई अच्छा नहीं होगा। इससे भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना के बेहद खराब भविष्य की राह पर चल पड़ी है। पर हिन्दू फासीवादियों को इसकी परवाह नहीं। वे भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के ख्वाब में पगलाये हुए हैं। अपनी पगलाहट में वे यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि सेना का इस तरह का राजनीतिकरण करके वे अपनी और समूची पूंजीवादी व्यवस्था की कब्र खोदने वाली क्रांति का भी आधार तैयार कर रहे हैं। 

 

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