संघ, सेना और राजनीति

    पिछले दिनों आर.एस.एस. प्रमुख व थल सेनाध्यक्ष की ओर से जो बयान आये वो इस बात का संकेत हैं कि जहां संघ खुद सेना बनाने का मंसूबा रखता है वहीं सेना अधिकाधिक संघ की राजनीति के प्रभाव में आ चुकी है। संघ और सेना का इस तरह एक दूसरे के करीब आना भारतीय समाज में फासीवाद के एक कदम और आगे बढ़ने का संकेत है। <br />
    पहले संघ की बात करें तो आर.एस.एस. प्रमुख ने अपने स्वयंसेवकों का गुणगान करते हुए कहा कि भारतीय सेना को जहां युद्ध की तैयारी में 5-6 माह लग जायेंगे वहीं संघ के स्वयंसेवक 3 दिन में सेना तैयार कर देंगे। जब इस बयान पर लोगों द्वारा सवाल उठाया गया कि यह तो खुलेआम एक निजी सेना पालने का कदम है जिसकी संविधान के तहत किसी को इजाजत नहीं दी जा सकती तो संघ प्रमुख के बयान की रक्षा में मोदी सरकार के कई मंत्री सामने आ गये और कहने लगे कि संघ प्रमुख तो बस संघी स्वयंसेवकों के अनुशासन की प्रशंसा कर रहे थे। <br />
    वहीं दूसरी ओर थल सेनाध्यक्ष विपिन रावत जब पिछले दिनों असम पहुंचे तो उन्होंने वहां कहा कि असम में आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट भाजपा से भी तेज गति से बढ़ रहा है। उनका इशारा असम में बांग्लादेश से आ रहे मुस्लिम लोगों की ओर था जिनके चलते उनके अनुसार ए.आई.यू.डी.एफ. का जनाधार बढ़ रहा है। इस तरह मुस्लिम लोगोें पर हमला करने में विपिन रावत संघ की भाषा बोल रहे थे। यह पहला मौका नहीं था जब विपिन रावत ने इस तरह का बयान दिया हो। इससे पहले भी वे पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश के खिलाफ जब तब राजनैतिक बयान देते रहे हैं। फरवरी, 2017 में तो उन्होंने कश्मीरी नागरिकों को धमकाते हुए यह बयान दे डाला कि अगर कश्मीरी नागरिक आतंकियों से निपटने में बाधा पहुंचायेंगे तो भारतीय सेना कश्मीरी नागरिकों से भी बल प्रयोग से निपट सकती है। गत वर्ष विमौद्रीकरण की तारीफ से लेकर सर्जिकल स्ट्राइक करने वालों की प्रेस कांफ्रेंस कराने, कश्मीरी युवक को जीप में बांधकर घुमाने वाले सेना के अधिकारी को सीधे प्रेस में बात की छूट आदि दिखलाते हैं कि मोदी काल में भारतीय सेना को अधिकाधिक संघी राजनीति पर खड़ा किया जा रहा है। <br />
    बात केवल इतनी नहीं है कि संघ सेना खड़ी कर सकता है और सेना संघ की भाषा बोल रही है। बात इससे आगे बढ़ जाती है जब पूंजीवादी मीडिया समूचे जनमानस के ही संघीकरण और सैन्यीकरण के अभियान में जुट जाती है। आज टी.वी. चैनलों पर बहसों में यकायक सेना के रिटायर्ड अधिकारियों को काफी संख्या में आमंत्रित किया जाने लगा है। सेना को ‘पवित्र गाय’ की तरह देशभक्ति का पर्याय व सवालों से परे स्थापित किया जा रहा है। <br />
    सेना को राजनीति से दूर रखने की भारतीय शासकों की पुरानी नीति अब मोदी काल में छोड़ी जा चुकी है। यह पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में सालों रहे सैन्य शासन व सेना के राजनीति में भारी हस्तक्षेप के दुष्परिणामों को देखने के बावजूद भी किया जा रहा है। इसकी वजह स्पष्ट है। इसकी वजह यही है कि संघ को भारतीय लोकतंत्र को प्रकारांतर से पाकिस्तान की राह में ही आगे बढ़ाना है, इसे भी लोकतंत्र को धता बता फासीवादी हिन्दू राष्ट्र कायम करना है। <br />
    इसीलिए संघ जहां आई.एस. की तरह सेना बनाने के मंसूबे पाल रहा है, स्वयंसेवकों को सैन्य परीक्षण दे रहा है वहीं सेना खुद को स्वयंसेवक बनाने में जुटी हुई है। यह सब कुछ निश्चय ही भारतीय समाज में जनवाद को लगातार कमजोर करने की ओर जायेगा। यह संघ के फासीवादी एजेंडे के और आगे बढ़ने का संकेत है जो देश में अल्पसंख्यकों, दलितों और महिलाओं के साथ-साथ मेहनतकशों पर जुल्म-सितम को और बढ़ाने का काम करेगा। वक्त रहते संघ के इन मंसूबों को चुनौती देना जरूरी है। 

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