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भारतीय सेना में अधिकारियों द्वारा सहायकों के रूप में सेना के जवानों को अपने निजी व घरेलू कामों में इस्तेमाल करने की औपनिवेशिक परम्परा जारी है। यह परम्परा सेना के जवानों के लिए न केवल बेहद अपमानजनक है बल्कि इसके कारण सहायकों के रूप में अधिकारियों की सेवा में तैनात सैनिकों को गुलामों जैसी स्थिति में जीना पड़ता है। <br />
हाल ही में सोशल मीडिया में कई जवानों ने अपने दुःख दर्द बयां किये जिसके चलते जवानों की विकट स्थितियों की तरफ लोगों का ध्यान गया। सबसे पहला वीडिया जो वायरल हुआ वह सीमा सुरक्षा बल के एक जवान तेज बहादुर यादव का था जिसमें तेज बहादुर ने इस बात का खुलासा किया कि कैसे सेना के बड़े अफसर जवानों को मिलने वाला राशन भी बेच खाते हैं और जवान बेहद घटिया भोजन पर विषम परिस्थितियों में जिंदा रहते हैं। इसी तरह की शिकायतें अन्य जवानों की तरफ से आयीं। सेना की ओर से सोशल मीडिया पर अपना दुख दर्द बताना इसके बाद प्रतिबंधित कर दिया गया। सेना प्रमुख ने घोषणा की कि इस तरह की शिकायतें सीधे उनसे की जा सकती हैं। <br />
बहरहाल शिकायतों का सिलसिला रुका नहीं जवानों का दर्द प्रकट होता रहा। विगत माह एक समाचार वेबसाइट पर एक स्टिंग वीडियो प्रकाशित हुआ जिसमें लांस नायक राॅय मैथ्यू ने अपने उच्चतर अधिकारियों पर उनसे अपने निजी काम करवाने का आरोप लगाया। इसी तरह सोशल मीडिया में वायरल हुए एक अन्य वीडियो में सिंघव जोगीदास नामक जवान ने कुछ अधिकारियों पर जवानों से गुलामों की तरह व्यवहार करने का आरोप लगाया। दुःखद घटनाक्रम में लांस नायक मैथ्यू कुछ हफ्ते बाद देवलाली फौजी छावनी में फांसी पर झूल गये। मैथ्यू के इस दुखद अंत पर सेना की तरफ से जो बयान आया उसमें कहा गया कि उन्होंने अपने अफसरों के बारे में किसी अनजान व्यक्ति को झूठी व गलत जानकारी देने के पश्चाताप के फलस्वरूप यह कदम उठाया हो सकता है। मैथ्यू के सम्बन्ध में सेना के अफसरों का यह बयान उनकी असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा को दिखाता है जिसमें इस आत्महत्या करने वाले जवान द्वारा उद्घाटित बातों अथवा आरोपोें की जांच करने तथा उसे आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाले व्यक्तियों व स्थितियों का खुलासा करने की बात तो दूर उल्टे जवान पर झूठ बोलने और खुद अपनी झूठी बातों से विचलित होकर प्रायश्चितस्वरूप अपनी जान लेने का आरोप मढ़ दिया। सेना के जवान मैथ्यू ने कितनी लाचारी व बेबसी की स्थितियों में यह कदम उठाया होगा और उसे किस कदर जिल्लत व प्रताड़ना से गुजरना पड़ा होगा इसका सहज अंदाज कोई भी लगा सकता है। <br />
सेना ने दूसरे जवान जोगीदास द्वारा अफसरों द्वारा जवानों से गुलामों जैसे व्यवहार के आरोप को बिल्कुल निराधार बताया और कहा कि जोगीदास को कभी सहायक के बतौर सेवा पर नहीं रखा गया। <br />
पिछले समय में सोशल मीडिया में सेना के जवानों का दर्द जाहिर होने के बाद सेना में सहायक अथवा बैटमैन की व्यवस्था एक बार फिर बहस के दायरे में आ गयी है। <br />
भारतीय सेना में स्थल सेना में सहायक की व्यवस्था है। सहायक की यह व्यवस्था औपनिवेशिक दौर में शुरू हुई जब ब्रिटिश सेना युद्ध के दौरान विभिन्न कामों के लिए सहायकों को रखा करती थी। इन सहायकों का काम डाक पहुंचाना, खंदक खोदना, अफसरों के हथियार व अन्य जरूरी चीजें दुरुस्त रखना, रेडियो सैट ढोना, रसद व अन्य सामग्री पहुंचाना आदि होता था। 19वीं शताब्दी की एक आधिकारिक सूची के अनुसार ऐसी 39 सेवाओं के लिए सेना में सहायक रखे जाते थे। इन सहायकों अथवा सेवादारों को चूंकि युद्ध के समय की जरूरतों को ध्यान में रखकर भर्ती किया जाता था अतः इन्हें ‘बैटल मैन’ अथवा संक्षेप में बैटमैन कहा जाता था। बाद में सहायकों की अथवा बैटमैन की यह व्यवस्था रूढ हो गयी तथा अधिकारियों के व्यक्तिगत सेवा टहल की व्यवस्था बन गयी। सेना में बाकायदा ओहदे के अनुरूप सहायकों अथवा बैटमैन की सेवायें तय हो गयीं। मसलन प्रत्येक फील्ड अफसर के लिए 1, कैप्टन अथवा उससे नीचे के प्रत्येक दो अफसरों पर 1, हरेक सूबेदार मेजर एक तथा प्रत्येक जूनियर कमीशन्ड अफसर (जे.सी.ओ) के लिए 1 बैटमैन अथवा सहायक की व्यवस्था तय हो गयी।<br />
सेना में रसोइये तथा नाई की भांति सहायक या बैटमैन नाम का कोई ट्रेड नहीं है। सामान्यतः नये सैनिकों को एक क्रम में बारी बारी से इस काम में लगाया जाता है। <br />
इन सहायकों से सामान्यतः वे सभी काम करवाये जाते हैं जो घरेलू नौकरों से करवाये जाते हैं। मसलन कैंटीन से राशन खरीदना, अफसरों के बच्चों को स्कूल छोड़ना, लाॅन की सफाई करना, घास छीलना, कार धोना और यहां तक कि साहबों के कुत्तों को घुमाना आदि। <br />
सेना में इन सहायकों की संख्या में कोई अधिकाधिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं फिर भी अनुमानतः इनकी संख्या 50,000 तक बतायी जाती है। <br />
सेना में सहायकों की यह शर्मनाक व्यवस्था बार-बार आलोचना का बिंदु बनी है। शासक वर्ग के दायरों के भीतर भी इस शर्मनाक व्यवस्था पर सवाल खड़े किये गये लेकिन रक्षा मंत्रालय व सेना के लिए ये आलोचनायें कोई मायने नहीं रखती हैं। 2008 में रक्षा के सम्बन्ध में संसदीय स्टैंडिंग कमेटी ने इसे एक ऐसी शर्मनाक व्यवस्था बताया जिसकी स्वतंत्र आजाद भारत में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। चूंकि इस कमेटी की अनुशंसायें रक्षा मंत्रालय व सेना के लिए बाध्यकारी नहीं थीं अतः सेना ने इसे खत्म करने का कोई प्रयास नहीं किया। सेना इस शर्मनाक औपनिवेशिक व्यवस्था को जायज ठहराने के लिए तमाम लचर दलीलें देती रही है। वह सहायकों की व्यवस्था को खत्म करने के बजाय इस व्यवस्था के कथित दुरूपयोग को रोकने की बात करती है। <br />
दक्षिण एशिया में भारत के अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार आदि में सेना में यह कथित सहायक व्यवस्था लागू रही है क्योंकि इन देशों की सेनायें अपनी औपनिवेशिक मानसिकता से कभी मुक्त नहीं हो पायीं। भारतीय सेना भी अपने गौरवशाली इतिहास में ब्रिटिश गुलामी के दौर को भी शामिल करती है। जाहिर है कि भारतीय सेना औपनिवेशिक मान्यताओं व परम्पराओं से कभी मुक्त नहीं हो सकी। पाकिस्तान व बांग्लादेश की सेनाओ ने इस व्यवस्था में थोड़ा सुधार करते हुए सहायकों अथवा बैटमैन की जगह सहायक कामों के लिए असैनिक अर्दलियों की भर्ती की व्यवस्था लागू की है। <br />
चीन की जनमुक्ति सेना एक ऐसी सेना रही है जिसमें सहायक व्यवस्था जैसी शर्मनाक व्यवस्था कभी नहीं रही। चीन की जनमुक्ति सेना साम्राज्यवाद व सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष में तपकर तैयार हुयी थी। जबकि आजादी से पूर्व ब्रिटिश इंडिया की सेना को ही आजादी के बाद आजाद भारत की सेना घोषित कर दिया गया। भारतीय पूंजीवादी शासकों ने ब्रिटिश इंडिया की सेना को औपनिवेशिक मूल्य मान्यताओं से मुक्त कर उसे एक आजाद देश की सेना केे बतौर जनवादी मूल्यों से संस्कारित करने की जरूरत कभी नहीं समझी बल्कि ऐसा करने से उन्हें भय लगता था। अतः आजाद भारत की सेना आज तक औपनिवेशिक मान्यताओं व परम्पराओं को ढो रही है जिसका एक रूप सहायक अथवा बैटमैन व्यवस्था है। इस व्यवस्था का दंश भारतीय सेना के जवान अपनी मानवीय गरिमा को गंवाकर चुका रहे हैं।