कंगना को थप्पड़ : एक शुभ संकेत

किसान आंदोलन को कोसने वाली, उसमें शामिल महिलाओं को सौ-सौ रु. लेकर शामिल होने वाली कहने वाली बदमिजाज अदाकारा को थप्पड़ पड़ गया। आंदोलन में शामिल किसान मां की एक बहादुर बेटी ने सरेआम अदाकारा को थप्पड़ मार दिया। 
    
यहां इस बहस में नहीं जाया जा रहा है कि किसी संघर्ष के समर्थन में उसके प्रति जहर उगलने वाले बददिमाग नेताओं-सेलीब्रेटी को थप्पड़ मारना संघर्ष के कितने हित में है अथवा नहीं है। यहां एक दूसरी बात की ओर ध्यान दिया जा रहा है जो अपने आप में महत्वपूर्ण है। 
    
थप्पड़ मारने वाली संघर्ष की समर्थक आम कार्यकर्ता नहीं थी। जहां एक ओर वो एक किसान परिवार की बेटी थी वहीं दूसरी ओर केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (ब्प्ैथ्) की जवान भी थी। एक जवान होने के नाते उसकी ड्यूटी थी कि वह विभिन्न कारखाना क्षेत्रों से लेकर सार्वजनिक जगहों पर सुरक्षा के नाम पर मजदूरों-मेहनतकशों पर सख्ती करे। बीते 15 वर्ष से वह यह ड्यूटी निभा भी रही थी। अदाकारा जब उसके सामने आयी होगी तो उसके दिमाग के द्वन्द्व को समझा जा सकता है। उसकी ड्यूटी उसे अदाकारा की सुरक्षा की ओर धकेल रही थी तो उसका दिल उसे अदाकारा की टिप्पणी पर थप्पड़ बरसाने की ओर। दिल और ड्यूटी की इस जंग में दिल जीत गया। थप्पड़ मारने वाली कुलविंदर कौर जानती थी कि यह थप्पड़ उनकी सरकारी नौकरी खा जायेगा। पर किसानों के प्रति पक्षधरता की खातिर कुलविंदर ने नौकरी को दांव पर लगा दिया। 
    
एक जवान अपनी पक्की नौकरी दांव पर लगा संघर्षरत जनता के साथ आ मिले। ऐसा तभी होता है जब सरकारें-पूंजीपति अपने घमण्ड में, सत्ता के नशे में इतने मगरूर हो जायें कि सेना-पुलिस के दम पर निर्दोष जनता को बेरहमी से कुचलने लग जायें। सेना के जवान यह देखने में सक्षम हो जायें कि उनसे उनके ही माता-पिता, भाई-बहनों पर डंडा-गोली चलवायी जा रही है। तब वे नौकरी को दांव पर लगा, उसे लात मार संघर्षरत जनता की कतारों में आ मिलते हैं। ऐसा होते ही सत्तानशीनों का सारा घमण्ड गायब हो जाता है और उन्हें जोर का थप्पड़़ पड़ता है। उनकी सत्ता डोलने लगती है। इसीलिए एक जवान का थप्पड़ आने वाले वक्त का शुभ संकेत है। क्यांकि संघ-भाजपा की मगरूर सरकार देश को उसी दिशा में ले जा रही है। वह मजदूरों- किसानों-दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों पर जैसे-जैसे अत्याचार बढ़ा रही है वैसे-वैसे सेना में हथियार लिए खड़ी इनकी औलादों का द्वन्द्व भी बढ़ा रही है। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।