वाम-उदारवादी और ‘‘पप्पू’’

स्वराज पार्टी के नेता योगेन्द्र यादव राहुल गांधी की ‘भारत-जोड़ो’ यात्रा में शुरू से अंत तक शामिल हुए थे। उन्हीं की तरह बहुत सारे गैर-सरकारी संगठनों के लोग भी। इसी यात्रा के दौरान एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि वे राहुल गांधी को पन्द्रह सालों से जानते हैं और वे इस बात को भी जानते हैं कि राहुल गांधी की जो ‘‘पप्पू’’ की छवि गढ़ी गई थी वे बिल्कुल भी वैसे नहीं हैं। वे एक संजीदा, बुद्धिमान और बात को सुनने वाले व्यक्ति हैं। इस सवाल पर कि पहले योगेन्द्र यादव क्यों, कांग्रेस के विरोधी थे और अब वे क्यों ‘भारत जोड़ो’ यात्रा में शामिल हैं, उन्होंने कहा कि आज वास्तव में देश टूटने का खतरा पैदा हो गया है इसलिए वे इस यात्रा में शामिल हैं।

इस दुविधा में पड़ने वाले योगेन्द्र यादव अकेले व्यक्ति नहीं हैं कि जिस पार्टी की सरकार का दस-बारह साल पहले इस कदर विरोध किया अब उसी के साथ जाना पड़ रहा है। इस मामले में भी वे अकेले नहीं होंगे जो शुरू से जानते थे कि राहुल गांधी ‘‘पप्पू’’ नहीं हैं। हां, ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जो अचानक जागकर पा रहे हैं कि राहुल गांधी तो ‘‘पप्पू’’ नहीं हैं और वे नरेन्द्र मोदी के मुकाबले ज्यादा संजीदा और बुद्धिमान व्यक्ति हैं।

‘असली राहुल गांधी’ की यह खोज यूं ही नहीं है। और न ही यह यूं ही था कि बहुत सारे उदारवादियों और वाम-उदारवादियों ने उन्हें ‘गुड फार नथिंग’ (निरर्थक) ‘‘पप्पू’’ मान लिया था- एक ऐसा इंसान जो व्यक्तिगत तौर पर भला तो है पर आज की जटिल और कुटिल राजनीति में कुछ नहीं कर सकता। यह आज की भारत की पूंजीवादी राजनीति की दशा और दुर्दशा को दिखाता है।

राहुल गांधी का ‘‘पप्पू’’ से एक संजीदा राजनीतिज्ञ के रूप में सामने आना राहुल गांधी का रूपान्तरण नहीं है। यह उन लोगों का रूपान्तरण है जो राहुल गांधी को पहले ‘‘पप्पू’’ मानते थे और अब संजीदा राजनीतिज्ञ। यह योगेन्द्र यादव जैसे लोगों का भी रूपान्तरण है जो राहुल गांधी को ‘‘पप्पू’’ नहीं मानते थे पर इस पर चुप्पी साधे हुए थे।

पिछले तीन-चार सालों में रूपान्तरण की इस प्रक्रिया से गुजरने वाले उदारवादी और वाम-उदारवादी असल में वे ही लोग हैं जिन्होंने उन स्थितियों के निर्माण में योगदान किया जिसमें दो अपराधी सत्ता के शीर्ष पर आसीन हो गये। यदि कांग्रेस पार्टी 2011-14 के बीच इस तरह बदनाम नहीं हुई होती तो हिन्दू फासीवादियों को भी इस तरह उभरने का मौका नहीं मिलता। और कांग्रेस पार्टी की इस बदनामी में उदारवादियों और वाम-उदारवादियों का भी बड़ा हाथ था। योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण जैसे लोगों ने ‘अन्ना आंदोलन’ में बढ़-चढ़ कर भागेदारी की थी।

और यह पहली बार नहीं हुआ था। भारत में हिन्दू फासीवादियों का उभार तीन चरणों में हुआ है और तीनों बार भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के बाद, जिनका निशाना कांग्रेसी सरकारें थीं। पहली बार 1974-75 में, दूसरी बार 1988-89 में और तीसरी बार 2011-12 में। तीनों बार इन आंदोलनों में उदारवादियों और वाम-उदारवादियों की बड़ी भूमिका थी।

इन उदारवादियों के पक्ष में यह कहना होगा कि वे नहीं चाहते थे कि हिन्दू फासीवादियों का उभार हो। 1979 में इसी बात पर जनता पार्टी टूट गयी थी क्योंकि उसमें शामिल हिन्दू फासीवादी (जनसंघी) अपने मूल यानी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से नाता तोड़ने को तैयार नहीं थे। पर उदारवादी जो भी करते थे उसका फायदा ज्यादातर हिन्दू फासीवादी उठाते थे और क्रमशः आगे बढ़ते हुए आज केन्द्र में अपने बल पर सत्तानशीन हैं।

उदारवादियों और वाम-उदारवादियों के कर्मों और कुकर्मों का यह परिणाम उनकी विडंबनापूर्ण स्थिति को दिखाता है। इसी से उनकी दुविधा भी पैदा होती है। वे पतित पूंजीवादी व्यवस्था को सुधारने के लिए आंदोलन खड़ा करते हैं और बाद में पता चलता है कि व्यवस्था और भी बुरी स्थिति में चली गई है। भ्रष्टाचार और बढ़ गया है तथा तानाशाही वाली शक्तियां और मजबूत हो गई हैं। वे अपने जैसे कांग्रेसियों के खिलाफ संघर्ष करते हैं और अचरज से देखते हैं उनके वैचारिक विरोधी हिन्दू फासीवादी मजबूत हो गये हैं। अपने ही कार्यों के परिणाम से भयभीत होकर वे फिर कांग्रेसियों की ओर झुकते हैं। यह सिलसिला चलता रहता है।

इस तरह ‘असली राहुल गांधी’ की खोज इस सिलसिले की एक और कड़ी होगी जो फिर एक बार घोर निराशा में खत्म होगी। पर पतित पूंजीवाद के इस जमाने में उदारवादियों और वाम-उदारवादियों के इस हश्र से भिन्न हश्र भला क्या हो सकता है?

आलेख

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।