वर्तमान समाज में शिक्षा के बदलते हालात - पार्ट 1

शिक्षा को किसी भी समाज के विकास का पैमाना माना जाता रहा है। किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था जितनी बेहतर होगी उस समाज के लोगों का जीवन उतना ही बेहतर होगा किन्तु वर्तमान में दक्षिणपंथी सरकारों के लिए शिक्षा और शिक्षित नागरिक किसी खतरे से कम नहीं देखे जा रहे हैं।         

आज हम भारत के उत्तर प्रदेश राज्य की शिक्षा व्यवस्था पर बात करेंगे। उ.प्र. सरकार द्वारा शिक्षा पर 3.1 प्रतिशत जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का खर्च किया जा रहा है। कोठारी आयोग (1964-66) ने शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने की सिफारिश की थी। किन्तु 55 वर्षों बाद भी यह बढ़ने की जगह घटाव की तरफ ही है। वर्तमान समय की यह मद (3.1 प्रतिशत) अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग खर्च हो रही है। मसलन प्राथमिक स्तर, माध्यमिक स्तर और उच्च स्तर की शिक्षा पर। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (छम्च्) में शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद के 6 प्रतिशत तक सार्वजनिक निवेश की बात कही गयी है। हालांकि, भारत का शिक्षा बजट अभी तक इस लक्ष्य को नहीं छू पाया है। यहां तक कि शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने कहा है कि केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, कुछ इण्डस्ट्री, दानदाता शिक्षा के क्षेत्र पर खर्च कर रहे हैं। इन सभी सोर्स को जोड़कर शिक्षा पर वर्तमान में लगभग जीडीपी का 4.64 फीसदी खर्च किया जा रहा है। 
    
ये सरकार के द्वारा किये गये दावे हैं जिसे सभी जानते हैं कि इन दावों में कितनी सच्चाई है। इन दावों की पड़ताल के लिए हम हर स्तर पर जांच कर सकते हैं मसलन प्राथमिक स्तर के हालात स्कूल में शिक्षकों की कमी, बच्चों के लिए जो पौष्टिक भोजन दिये जाने के दावे किये गये वहां सिर्फ खिचड़ी और दाल के नाम पर पानी और मोटे चावल, बैठने की व्यवस्था, स्कूलों की साफ-सफाई आदि। यही हाल माध्यमिक स्तर पर है। उच्च स्तर पर महाविद्यालयों में भी प्रोफेसरों की कमी, कालेजों में लेक्चर नहीं चलते क्योंकि टीचर हैं ही नहीं, सुविधाओं के नाम पर कटौतियां ही कटौतियां हैं। और वर्तमान सरकार विश्वगुरू बनने की अपने खोखले दावों का दम्भ भर रही है जबकि युवा वर्ग का भविष्य अंधकारमय लग रहा है। युवाओं को सरकार की नीतियों को जानना होगा और स्वयं संगठित होकर इसका समाधान खोजना होगा। 
    -एक पाठक, सहारनपुर

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।